अषाढ़ का महीना था। पहली बरखा के संपूर्ण लक्षण दिखाई पड़ने, लगे थे। पछवा का ज़ोर रुका और पुरवा का जीवन-स्रोत बह चला। तीतरपांखी बदली उठ रही थी, पर गाँव के किसानों के हृदयों में उमंग की हिलोर न उठी। प्रत्येक की आकृति पर वेदना की घटा छाई हुई थी। बात यह थी कि आस-पास के गाँवों में पशुओं के रोग की महामारी फैल रही थी। ख़ून के दस्त—पेट की चेचक की बीमारी के प्रकोप के कारण हाहाकार मचा हुआ था। भाड़ में जैसे चने भुनते हैं, वैसे ही रोज़ दस-बीस जानवर—गाय, भैंस और बैल—चटचट मर रहे थे। अधिकांश जानवर बीमार थे। दो-चार ही अछूते थे। ‘घर के सौ व्यक्ति मर जाएँ, पर एक कमाने वाला—सबको रोज़ी देने वाला न मरे, भगवान्’—की करुण ध्वनि घरों और छप्परों को पार कर मेरी कुटिया तक आ रही थी, मानो मेरी भर्त्सना की जा रही थी कि, वह शिक्षा और अखबार-नवीसी किस काम की, जो आड़े समय में गाँव वालों की एकमात्र संपत्ति—बैलों को बीमारी से नहीं बचा सकती?
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“पंडितजी, अब कैसे गुज़र होएगी? बधिया हती सो कल्लि मरि गई। रुक्का करिकैं बधिया लई। आज भैसि बीमार ऐ। साँझ सबेरै बियानहार है।” कातर दृष्टि से और भर्राई आवाज़ में गोविंदा चमार ने कहा।
“भई, क्या करूँ। कुछ समझ में नहीं आता। पशुओं की साधारण दवा-दारू मैं जानता हूँ। उससे काम नहीं चलता। बचे-खुचे जानवरों के टीका लगवा दिया है; पर बीमार जानवरों को कौन अच्छा करे। डाक्टर उस दिन साफ़ जवाब दे गया और कह गया कि पीतांबर से अधिक मैं नहीं जानता। सो दवा करते-करते और भाग-दौड़ करते बेचारा बीमार पड़ गया। सैकड़ों जानवरों को उसने बचाया है और अब वह स्वयं खाट तोड़ रहा है। कल ही उसके लिए मैंने दवा भेजी है।” सांत्वना देते हुए मैंने कहा।
गोविंदा— “परि पीतू आई सकत ऐं। कल्लि मैंने चौतरा (चबूतरा) पै बैठे देखे।”
मैं— “हाँ, तबीअत ठीक है, पर चल-फिर नहीं सकता। और फिर एकके यहाँ जाने से चारों ओर से दैया-तौबा मचेगी कि हमारे पौहे भी देखो। इसलिए मैंने कहला भेजा है कि जबतक अच्छे न हो जाओ, कहीं न जाओ।”
गोविंदा (लंबी साँस लेकर)—“सो तो ठीक ऐ; परि मेरी भैस मरि गई तो फिर हिल्ली नाऐं। लरिकाबारे सबु बिलख-बिलख के मरि जाँगे।”
मैं—“अच्छा जा। कुछ करूँगा।”
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“अरे भैया, बीमारी बड़ी करी ऐ। भैसि गाभिन ऐ। कामु तौ होइ जो भैसिऊ बचि जा, और तौय (गर्भपात) ऊ न जा।” —पीतांबर ने गंभीरता से कहा।
“हाँ हकीम, कामु तो तबई बनै।”—मैने अनुमोदन करते हुए कहा।
पीतांबर ने खेतों से कुछ जड़ी-बूटी उखाड़ी और दो आने की औषधि पास के बाज़ार से मंगा कर दी। भैस अच्छी हो गई और ठीक समय पर उसने बच्चा दिया। गोविंदा का उद्धार हो गया।
पीतांबर कुम्हार उन तपस्वी, ईमानदार परहित-कातर और परोपकारी महानुभावों में से था, जो निष्काम सेवा को मानव-जीवन की भित्ति समझते हैं। वे सेवा करते हैं किसी को दिखाने और नाम करने के लिए नहीं, वरन् इसलिए कि सेवा करना उनका स्वभाव है। कोयल की भाँति, जो दूसरे के लिए नहीं, वरन् अपने लिए ही कंटकित होकर मधुर आलाप करती है।
पीतांबर ज़ात का कुम्हार, स्वभाव का ब्राह्मण और पेशे से किसान था। मेरा पड़ौसी—पास के गाँव अंगदपुर का रहने वाला नैष्टिक पीतांबर पशु-चिकित्सा का आचार्य था। पशुओं का भी रोग ऐसा न था, जिस की अचूक औषधि वह न जानता हो। और औषधि भी कैसी? दस-बीस रुपए की विलायत से सील होकर आने वाली दवा? तोबा कीजिए! गाँव के किस आदमी में इतना बूता है, जो जानवरों की औषधि में दस-बीस रुपए ख़र्च कर सके? आदमियों के इलाज के लिए तो रुपया-दो रुपया उनके पास है नहीं, जानवरों के लिए इतना ख़र्च कहाँ से और कैसे करें? पीतांबर की क़ीमती-से-क़ीमती दवा का मूल्य चार आने से अधिक न होता था। साधारण-सी बीमारियों के लिए, जिनके लिए अंग्रेज़ी दवा की क़ीमत चार-चार रुपया होती, पीतांबर की दवा का मूल्य कुछ नहीं था। कुछ नहीं के मानी यह कि वह खेतों से ही जड़ी-बूटी उखाड़ कर और घर से हल्दी और फिटकरी मंगा कर अचूक दवा देता था।
चारों ओर बीसों मील दूर से उसके पास आदमी आते थे। बीमारी के दिनों में तो वह परेशान रहता था। घर पर परोसी थाली रखी है। उसकी स्त्री बाट जोह रही है। हाथ धोकर पीतांबर चौके में जाना चाहता है कि घिघियाते आदमी आ गए कि पास के ही गाँव में बैल बीमार है। खेत भरने को पड़े हैं, जुताई आधी रही है। बैल अच्छे न हुए तो सर्वनाश हो जाएगा।
पीतांबर झल्ला जाता, उसकी स्त्री बड़बड़ाती कि रोटी बनी रखी है। जानवरों के इलाज की ढोलकी गले में डाल ली है। अपने यहाँ कोई बीमार होता है तब कोई पूछने भी नहीं आता। किसी प्रकार पेट में रोटी डाल कर पीतांबर पास के गाँव में दवा देने जाता।
पीतांबर सफल किसान था। दिन-रात चींटी की भाँति लगा रहता और जब लोग अपने पशुओं को दिखाने के लिए पीतांबर को बुलाने आते तब वह आगंतुकों में से किसी को अपने स्थान में काम करने छोड़ देता और पशुओं की चिकित्सा करने चला जाता।
नंगे पैर, मैले-कुचैले कपड़े पहने इस सीधे-सादे देहाती को देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि वह अपने विषय का आचार्य होगा—असाधारण आचार्य। हज़ारों पशुओं का उसने इलाज किया— दो-एक हज़ार का नहीं, दसों हज़ार का, और जितने पशुओं पर उसने हाथ डाला, उनमें से आठ ही मरे थे!
बात यह थी कि उसके हाथ में यश था। यश की बात को वैज्ञानिक न मानें, पर जो पावन भावनाओं में विश्वास रखते हैं और जिनका ख़याल है कि प्रेम की चितवन, माँ के आशीर्वाद और विरह की तड़पन से हृदय पर आघात होता है, वे समझ सकते हैं कि औषधि देते समय पवित्र हृदय के आशीर्वाद के कुछ मानी होते हैं। ऐसा व्यक्ति दवा देते समय प्रभु से प्रार्थना करता है कि भगवन्, आपकी बनाई औषधि को मैं आप के ही बनाए जीव को दे रहा हूँ। मैं तो कोई चीज़ नहीं, आपकी अनुकंपा से रोगी अच्छा होगा और मुझे भी बार बार न दौड़ना पड़ेगा—ऐसी ही भावना से पीतांबर औषधि देता था।
ऐसे सफल चिकित्सक की आमदनी क्या होगी? प्रति पशु यदि वह चार आने भी फ़ीस लेता तो वह दस-बीस हज़ार कमा लेता; पर पीतांबर बड़प्पन की कसौटी रुपया न मानता था। उसका दृढ़ विश्वास था कि हिंदुओं के पुराने आदर्श के अनुसार औषधि करने के लिए कुछ लेना घोर पाप-जघन्य व्यभिचार है। शिक्षा, आयुर्वेद और संगीत स्वार्थ के लिए नहीं, वरन् परमार्थ के लिए हैं। किसी का भला करके कुछ लेना वह पाप समझता था। जिसके यहाँ इलाज को जाता, खाना तो दूर, पानी तक न पीता। दो-चार बार पूछे जाने पर कि हकीम, फ़ीस क्यों नहीं लेते, हकीम पीतांबर बाल-स्वभावजन्य सरलता से उत्तर देता कि पंडितजी, कुछ लेने से औषधि का असर न रहेगा और मेरे गुरु की आत्मा को कष्ट होगा।
हकीम पीतांबर की इन सरल बातों की फ़िलासफ़ी कितनी गूढ़ है। उसके मत से संग्रह करने की—ग़रीबों से फ़ीस लेकर संग्रह करने की—लालसा भयंकर, दूषित और पापमयी थी, और दूसरों की निःस्वार्थ-सेवा धर्म का परमपद था। नाम और प्रकाश की उसे चाह न थी।
‘मुझ-सा कोई गुमनाम ज़माने में न होगा,
गुम हो वह नगी, जिस पे ख़ुदे नाम हमारा।’
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दो-चार बार बुलाकर मैंने उसकी निष्काम सेवा की प्रशंसा की तो वह मुस्कुराकर कहने लगा कि इसमें कौन-सी तारीफ़ की बात है। दूसरों को दवा देना तो ठीक वैसा ही है, जैसे कोई अपने पेट भरने के लिए रोटी खा ले। दवा देने से अपनी आत्मा को संतोष मिलता है। कई बार कोशिश की कि कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति वर्ष, दो वर्ष साथ रहकर हकीम पीतांबर से उस विद्या को सीख ले; पर कोई व्यक्ति नहीं मिला। एक दिन मैंने ही दीक्षा लेनी चाही और उसकी औषधियों, जड़ी-बूटियों और रोगों का नाम लिखने की ठानी; पर पीतांबर स्वयं सब जड़ी-बूटियों के नाम नहीं जानता था। उन्हें पहचानता भर था। उसके गुरु ने उसे पशु-चिकित्सा सिखाई थी और जड़ी बूटियों की पहचान कराई थी। इस कठिनाई के कारण हकीम पीतांबर से में कुछ भी न ले सका। दो-चार बार उनके फोटो लेने का भी प्रबंध किया, पर कोई फ़ोटोग्राफ़र न मिला।
अभी उस दिन अपने नए रोलीफ़्लेक्स कैमरे के आने पर हकीम पीतांबर को मैंने बुलाया और फ़ोटो लिया तथा उसकी मुलाक़ात अपने एक साहित्यिक मित्र से कराई। यह बात 27 जनवरी 1934 की है।
पहली मार्च। (1934) को कलकत्ते से लौटकर शिकोहाबाद स्टेशन पर पहुँची और गाँव के लिए इक्का किया। अपने आदमी से मार्ग में मालूम हुआ कि हकीम पीतांबर की तबीअत बहुत ख़राब है। इक्का लेकर सीधा उनके यहाँ पहुँचा—रास्ता ही अंगदपुर में होकर था। मुझे देखकर पीतांबर के मुरझाए चेहरे पर उल्लास की रेखाएँ अंकित हो गईं। उसकी आँखें कहती थीं कि बीमारी में उसका भी कोई घनीधोरी है। कितनी ख़ामख़याली थी हकीम की! सैकड़ों बार अपने और दूसरों के पशुओं के लिए मैंने हकीम पीतांबर को मौक़े-बे-मौक़े बुलाया था। सांत्वना देकर मैंने कहा—“हकीम, घबराओ नहीं, आज तो रात है। कल ही तुम्हारे लिए फ़िरोज़ाबाद से डाक्टर जीवारामजी को बुला दूँगा।”
“बस अब के बचा लो, पंडितजी,”— अवरुद्ध कंठ से पीतांबर ने कहा। आँसुओं को रोकते हुए और ध्यान बटाने के लिए मैंने पीतांबर को उसका फ़ोटो निकाल कर दिया। देखकर वह प्रसन्न हो गया। घर आकर मैंने दवा की दो खुराकें भेजी और डॉक्टर जीवाराम को पत्र लिखा।
अगले दिन प्रातःकाल ही नौकरी पर जाना था—हाज़री थी। पर मन में मैं लज्जित था कि नौकरी की ख़ातिर हकीम पीतांबर को छोड़ कर मैं क्यों जा रहा हूँ! स्वार्थ और अशिष्टता के अतिरिक्त और क्या कहा जाए?
तीन दिन बाद मालूम हुआ कि हकीम पीतांबर मेरी दवा को खाने के बाद ही बैलगाड़ी में लेटकर आधी रात के समय फ़िरोज़ाबाद गए। पेट में भयंकर पीड़ा थी। 104 डिग्री का ज्वर था। जाड़ा था और तेज़ हवा चल रही थी। जीवारामजी ने एनिमा से दस्त कराया। पीतांबर को कुछ चैन मिला। घर को लौट आया और अगले दिन उसकी बीमारी (अंतड़ियों में रोक) ने इतना ज़ोर पकड़ा कि हकीम चल बसा। उस बेचारे का इलाज भी न हो पाया!
आज हकीम पीतांबर नहीं है और उसके साथ उसकी अनुपम विद्या भी चली गई। अख़बारी दुनिया के आदमी नहीं जानते और वे डॉक्टर उसे क्या समझ सकते हैं, जो रोगी को मुफ़्त औषधि देकर उससे वोट के इच्छुक होते हैं और उससे वोट न मिलने पर अपनी करनी का उलाहना देते हैं, पर हकीम पीतांबर बहुत बड़ा आदमी था—कोरे धुँआधार और मेज़तोड़ भाषण देने वाले अनेक कार्यकर्ताओं से बहुत ऊँचा। उसकी चरण-रज से वे अपनी आत्मा को उन्नत कर सकते थे।
हकीम पीतांबर पर मुझे नाज़ था। इंग्लैंड और अमरीका के मित्रों से में उसका परिचय कराकर कहता था कि मेरे गाँवों के आस-पास सरकार पशुओं के लिए कुछ न करे। हमारा हकीम बरकरार चाहिए। ग्राम-सेवा में मैं उसे अपने से बढ़कर मानता था। उसपर मुझे भरोसा था। ग्राम-सेवा के बृहत् काम में हकीम पीतांबर पर बड़ी बड़ी आशाएँ बाँध रखी थी। बड़े-बड़े मंसूबे बाँधे थे, पर क्या किया जाए!
“हमने जो कोई शाख़ चुनी, शाख़ जल गई।”
- पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 168)
- संपादक : सत्यवती मलिक
- रचनाकार : श्रीराम शर्मा
- प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
- संस्करण : 1955
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