भारतवर्ष में जो अनेक प्रसिद्ध मुसलमान कवि, लेखक आर विद्वान् हुए हैं, अमीर-ख़ुसरो उन सबके शिरोमणि थे । स्वर्गीय मौलाना ‘शिबली’ ने उनकी जीवनी में लिखा है—‘हिंदुस्तान में छै सौ बरस से आज तक इस दर्जे का जाम-ए-कमाला (सर्वगुण-संपन्न विद्वान्) नहीं पैदा हुआ, और सच पूछो, तो इस क़दर मुख़्तलिफ़ और गूनागूँ औसाफ़ के जामा (जिसमें इतनी विविध प्रकार को विशेषताएँ हों) ईरान और रूम को ख़ाक (भूमि) ने भी हज़ारों बरस की मुद्दत में दो ही चार पैदा किए होंगे।’—
मिर्ज़ा ग़ालिब की नाज़ुक-ख़याली मशहूर है, उनकी परख और नज़र बहुत ऊँची थी, वह अमीर ख़ुसरो के सिवा किसी हिंदुस्तानी फ़ारसी-लेखक या कवि के क़ायल नहीं थे, केवल ख़ुसरो ही को आदर्श मानते थे।1 उन्होंने किसी विवादास्पद प्रसंग में अपने एक मित्र को लिखा है—‘मैं अहल-ए-ज़बान का पैरों (अनुयायी) हूँ और हिंदियों में सिवा अमीर ख़ुसरो देहलवी के सबका मुनिकर (न मानने वाला) हूँ।’ यही बात उन्होंने फिर एक दूसरे पत्र में लिखी है—
‘ग़ालिब कहता है कि हिंदुस्तान के सुख़नवरों (कवियों) में अमीर ख़ुसरो देहलवी के सिवा कोई उस्ताद मुसल्लिम-उस-सबूत (माननीय प्रामाणिक विद्वान्) नहीं हुआ।’—ग़ालिब को जानने वाले जानते हैं कि इस सम्मति का कितना महत्त्व और मूल्य है। वह व्यक्ति सचमुच धन्य है जिसे ग़ालिब इस तरह सराहते हैं! फ़ारस के विद्वानों ने भी अमीर ख़ुसरो की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है, उनकी उस्तादी के सामने सिर झुकाया है। ख़ुसरो फ़ारसी ही के नहीं, अन्य कई भाषाओं के भी पारंगत विद्वान थे। गान-विद्या के भी वह आचार्य थे। बहुत से नए राग और रागनियाँ उनके बनाए हुए मशहूर हैं। वीणा का परिवर्तित रूप ‘सितार’ उन्हीं का ईजाद है। इसके अतिरिक्त वह एक शूर-वीर सैनिक भी थे। शस्त्र विद्या उनकी कुल-विद्या थी। वह उम्र-भर शाही दरबारों में बड़े-बड़े पदों पर रहे। उन्होंने 11 बादशाहों को दिल्ली के तख़्त पर उतरते और बैठते देखा, और 7 बादशाहों के स्वयं दरबारी रहे। इस प्रकार रात-दिन राजसेवा में संलग्न रहते हुए जितनी साहित्य सेवा ख़ुसरो ने की, उसे देखकर आश्चर्य होता है। बड़े-बड़े एकांत सेवी साहित्य-सेवी भी इतना न कर सके होंगे। बाईस-तेईस ग्रंथों के अतिरिक्त हज़ारों फुटकर पद्य भी उनके प्रसिद्ध हैं। उनके पद्यों की संख्या कई लाख लिखी है। ‘तज़कर-ए-इरफ़ान’ में लिखा है—‘अमीर साहब का कलाम (कविता) जिस क़दर फ़ारसी भाषा में है उसी क़दर ब्रज भाषा में।’—पर दुर्भाग्य से अमीर ख़ुसरो को हिंदी कविता कुछ फुटकर पद्यों को—पहेलियों और कहमुकरनियों को छोड़कर, इस समय नहीं मिलती, यद्यपि ख़ुसरो हिंदी कविता के नाते ही सर्वसाधारण में प्रसिद्ध हैं। ख़ुसरो की हिंदी कविता के विनाश का ‘श्रेय’ मुसलमानों की हिंदी-विषयक उपेक्षा ही को है। इस दुर्घटना के लिए मौलाना मुहम्मद अमीन चिड़ियाकोटी ने मुसलमानों को उपालंभ दिया है और हिंदुओं की गुणग्राहिता को सराहा है कि ख़ुसरो और दूसरे मुसलमान हिंदी-कवियों को जो थोड़ी-बहुत हिंदी-कविता अब तक नष्ट होने से बची हुई है, यह हिंदुओं ही की कृपा का फल है। मुसलमानों ने हिंदी और हिंदुओं को मिटाने में कभी कमी नहीं की। अरब और तुर्किस्तान की मामूली-मामूली बातों की मुसलमानों को जितनी चिंता है—अरब का ऊँट किस तरह जुगालता है और हुदीख़्वाँ (ऊँट हाँकनेवाला) किस तरह बलबलाता है, —गाता है— इसका जितना महत्व उनकी दृष्टि में है, उसका सहस्रांश भी यदि ख़ुसरो की हिंदी-कविता का मान या अभिमान उन्हें होता, तो यह अनर्थ न हो पाता। यदि आज अमीर ख़ुसरो की हिंदी-कविता अपने असली रूप में और पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हुई होती, तो उससे भाषा-साहित्य के इतिहास-ज्ञान में कितनी सहायता पहुँची होती!
मुसलमानों में इस व्यापक नियम के अपवाद-स्वरूप कुछ सहृदय सज्जन हुए हैं सही, जैसे मीर ग़ुलाम अली ‘आज़ाद’ बिलग्रामी, (जिन्होंने ‘सर्वे-आज़ाद’ में बिलग्राम के मुसलमान हिंदी-कवियों का विस्तृत वर्णन करके अपनी भावुकता का परिचय दिया है) पर बहुत ही कम, ऐसे ही जैसे अंग्रेज़ों में भारतभक्त, उदार-हृदय एक ऐंड़ूज़ साहब। अस्तु।
अमीर ख़ुसरो जन्मसिद्ध कवि थे—माँ के पेट से कवि पैदा हुए थे। उन्होंने स्वयं लिखा है कि—मेरे दूध के दाँत अभी न टूटे थे कि मैं शेर कहता था, और मुँह से कविता के मोती झड़ते थे।—‘सीरउल-औलिया’ और ‘सीरउल-आरफ़ी’ न में लिखा है कि अमीर ख़ुसरो अभी पाँच ही बरस के थे कि दिल्ली में पहुँचे। बाप बचपन ही में मर गए, नाना ने इन्हें पाला। जब यह दिल्ली गए, तो उन दिनों दैवयोग से हज़रत निजामुद्दीन औलिया का डेरा इनके ननिहाल में था। हज़रत निजामुद्दीन सूफ़ी-संप्रदाय के पक्के मुबल्लिग़ फ़क़ीर थे। (दिल्ली के हसन-निज़ामी, उन्हीं की दरगाह के मुजाविरों में एक हैं) मुरीद बनाना यानी चेले मूँड़ना इनका धार्मिक व्यवसाय था। ख़ुसरो के पिता और नाना भी उनके भक्तों में थे। ख़ुसरो को इसी अवस्था में इनके चरणों में चढ़ा दिया गया, —दीक्षा दिला दी गई। प्रेमपंथ की शृंगारिक कविता का उपदेश ख़ुसरो को इन्हीं रसिया गुरु से मिला। इन्होंने इस विषय में यह मंत्र दिया—‘बतर्ज़ सफ़ाहानियान बिगो, यानी इश्क-अंगेज़ व ज़ुल्फ़-ओ-ख़ाल आमेज़।’ अर्थात् इश्क़िया शाइरी करो।
ख़ुसरो के पाँच दीवान (कविता संग्रह ग्रंथ) हैं, जिनमें सबसे पहला ‘तोहफ़तुस्सिग़िर’ है। इसमें 16 वर्षकी उम्र से 16 वर्ष तक की कविताओं का संग्रह है। इसकी भूमिका में ख़ुसरो ने अपनी कविता का मनोरंजक और शिक्षाप्रद प्रारंभिक वर्णन किया है। लिखा है—
“ईश्वर की दया से मैंने 12 बरस की उम्र में बैत और रुबाई कहनी शुरू की। उस समय के कवि विद्वान् सुन-सुनकर आश्चर्य प्रकट करते थे। उनकी आश्चर्यपूर्ण प्रशंसा से मेरा उत्साह बढ़ता था। वे मुझे उभारते थे। मेरी यह दशा थी कि साँझ से सवेरे तक चराग़ के सामने कविता लिखने-पढ़ने में तल्लीन हो अभ्यास करता और मस्त रहता था। अभ्यास करते-करते दृष्टि सूक्ष्म हो गई, कविता की बारीकियाँ सूझने लगीं। और कविता-प्रेमी साथी मेरी बुद्धि की परीक्षा लेते थे, इससे हृदय में और भी उमंग बढ़ती थी—दिल गरमाता था— और दिल की गर्मी ज़बान में उतरकर कविता को चमकाती थी। इस समय तक कोई गुरु न मिला था, जो कविता की दुर्गम घाटियों में कुशलता से चलने को राह बताता, क़लम को उल्टे रास्ते चलने से रोकता, दोषों से बचाकर गुणों का उत्कर्ष दिखाता। मैं नवाभ्यासी तोते की तरह अपने ही ख़याल के दर्पण के सामने बैठा-बैठा कविता का अभ्यास करता था—कविता का मर्म ओर कविता करना सीखता था— दिल के लोहे को अभ्यास की ‘सान’ पर रगड़-रगड़ कर तेज़ करता रहा। प्राचीन सत्कवियों के ग्रंथों का स्वाध्याय निरंतर करता था। इस प्रकार करते-करते कविता के मर्म को समझने लगा, भावुकता प्राप्त हो गई । ‘अनवरी’ और ‘सनायी’ की कविता को विशेष रूपसे आदर्श मानकर देखता था। जो अच्छी कविता नज़र आती. उसी का जवाब लिखता। जिस कवि को कविता का मनन करता, उसी के ढंग पर स्वयं लिखता। बहुत दिन तक ‘ख़ाक़ानी’ (ईरान के एक प्रसिद्ध कवि) को कविता से लिपटा रहा। उसकी कविता में जो ग्रंथियाँ थीं, उन्हें सुलझाता, यद्यपि उसके दुरूह स्थलों पर नोट लिखता था, पर लड़कपन और नवाभ्यास के कारण कठिन कविता का भाव अच्छी तरह न खुलता था। मेरा उत्साह और कल्पना शक्ति आकाश में उड़ती थी; पर उस्ताद ख़ाक़ानी की कविता इतनी उच्च कोटि की थी कि उस तक मेरी बुद्धि नहीं पहुँचती थी। तथापि अनुकरण करते-करते तबीअत बढ़ने लगी। मेरी कविता का कोई विशेष आदर्श नियत न था, हर उस्ताद के रंग में कहता था, इसलिए इस संग्रह (तोहफ़्तुस्सिग़िर) में नया-पुराना सब रंग मौजूद है।”—
“बचपन में बाप ने पढ़ने के लिए मकतब में बिठाया। यहाँ यह हाल था कि क़ाफ़िए की तकरार थी—क़ाफ़िया ढूँढने से काम था। मेरे उस्ताद मौलाना सआदुद्दीन ख़त्तात सुलेख के अभ्यास की आज्ञा देते थे; पर मैं अपनी ही धुन में था। वह पीठ पर कोड़े लगाते, और मुझे ज़ुल्फ़-ओ-ख़ाल (अलक, तिलक) का सौदा था। इसी उधेड़-बुन में यहाँ तक नौबत पहुँची कि मैं इसी छोटी उम्र में ऐसे शेर और ग़ज़ल कहने लगा कि जिन्हें सुनकर बड़े-बूढ़ों को आश्चर्य हाता था। एक बार सुबह के वक़्त मेरे उस्ताद को ख़्वाजा-असील नायब-कोतवाल ने ख़त लिखने के लिए बुलाया। मैं दवात-क़लम लेकर साथ गया। असील के घर में ख़्वाजा अज़ीज़ुद्दीन नज़रबंद थे। ख़्वाजासाहब बहुत बड़े विद्वान् और कविता के पूरे पारखी थे। जब हम वहाँ पहुँचे, तो वह स्वाध्याय में संलग्न थे—मुताल-ए-किताब में मसरूफ़ थे। किताब देखते-देखते जब कभी वह कुछ कहने लगते थे, तो उनके मुँह से मोती झड़ते थे।— जवाहर आबदार ज़बान से निकलते थे। मेरे उस्ताद ने उनसे कहा कि ‘यह मेरा ज़रा-सा शागिर्द (छोटा-सा शिष्य) इस बचपन में कविता का बड़ा प्रेमी है, शेर पढ़ता भी ख़ूब है, किताब इसे देकर इम्तिहान लीजिए।’ ख़्वाजा अज़ीज़ ने फ़ौरन किताब मुझे देकर सुनाने की फ़रमाइश की। मैंने शेर मधुर गीत के स्वर में पढ़ने आरंभ किए। उसके प्रभाव से सुनने वालों की आँखें डबडबा आईं, चारों ओर से शाबाश की आवाज़ें आने लगीं। फिर मेरे उस्ताद ने कहा कि पढ़ना सुन लिया, अब कोई मिसरा (समस्या) देकर कविता-शक्ति की परीक्षा लीजिए। ख़्वाजा साहब ने चार अनमिल चीज़ों के नाम लेकर कहा कि इन्हें सार्थक पद्यबद्ध करो। वे नाम-मू (बाल), बैज़ा (अंडा), ख़रबूज़ा और तीर (बाण) थे। मैंने तत्काल इन्हें ‘रूवाई’ में बाँधकर सुनाया।2जिस वक़्त मैंने यह रुबाई पढ़ी, ख़्वाजा ने बहुत ही प्रशंसा की, और नाम पूछा। मैंने कहा ‘ख़ुसरों’। फिर बाप का नाम-धाम और अता-पता पूछकर कहा कि तुम अपना तख़ल्लुस (कविता का उपनाम) ‘सुलतानी’ रखो। इसके पीछे बहुत-सी बातें मेरा दिल बढ़ाने की कीं, और कवित्व-कला के संबंध में बहुत-सी रहस्य की बातें बता दीं, जिन्हें मैं दिल में रखता गया। उस दिन से मैंने अपना उपनाम ‘सुलतानी’ रखा। इस दीवान के प्रायः पद्यों में यहीं नाम काम में आया है। इसके बाद मैं बारीक मज़मूनों के पीछे पड़ा रहा। यह सब कुछ हुआ, पर ज़माना लड़कपन का था, इसलिए कभी अपना कलाम (कविता) जमा करने का ख़याल नहीं किया। मेरा भाई ताजदीन ज़ाहिद, जिसकी विवेचना-शक्ति कविता कामिनी का सिंगार करने में समर्थ है, मेरे पद्यों का संग्रह कर लेता था, और जो कुछ मैंने 16 बरस की उम्र से 16 बरस की उम्र तक कहा, उस सबका उसने संग्रह बना डाला। मैंने उसे देखकर कहा कि यह तो पानी में डुबो देने क़ाबिल है। पर उसने न माना और कहा कि इसे सिलसिलेवार कर दो। भाई के आग्रह से मैंने संग्रह का विभाग करके प्रत्येक परिच्छेद के आरंभ में परिच्छेद-सूचक एक-एक पद्य लगा दिया। क्रम-विभाग का यह प्रकार मेरा आविष्कार (ईजाद) है, मुझसे पहले किसी ने यह सिलसिला क़ायम नहीं किया। इस दीवान का नाम ‘तोहफ़तुस्सिग़िर’ (लड़कपन का कलाम) है। निस्संदेह यह कविता बहुत ऊट-पटाँग है, मैंने बहुत चाहा कि यह जमा न की जाए, पर यार दोस्तों ने और ख़ासकर भाई ताजदीन ने न माना, बराबर आग्रह करते रहे। मैं भाई के कहने को न टाल सका। स्नेहने हम दोनों भाइयों में अभेद-बुद्धि उत्पन्न कर दी है, अभिन्न-हृदय बना दिया है—दोनों को एक कर दिया है—
“बस कि जानम् यगाना शुद् बा ऊ,
दर गुमानम् कि ईं मनम् या ऊ।”
—‘मेरी आत्मा इस प्रकार उसमें मिल गई है कि मैं सोचने लगता हूँ, मैं यह हूँ या मैं वह हूँ!’—भाई का अभिप्राय इस तुकबंदी के जमा करने से यह था कि यह भी किसी शुमार में आ जाए। मैं कहता था कि लोग एतराज़ (आक्षेप) करेंगे। भाई कहता था कि बुद्धिमान यह समझकर कि (जैसा इस संग्रह के नामसे प्रकट है) यह लड़कपन का कलाम है, एतिराज़ (आक्षेप) न करेंगा, और अनभिज्ञ के आक्षेप का मूल्य ही क्या। मैं कहता था कि इसमें ‘शुतर-ग़ुरबा’ (ऊँट-बिल्ली का-सा साथ, वैषस्य-दोष) बहुत है। उसका उत्तर था कि लोग इसे तावीज़ बनाकर बाज़ू (बाहु) पर बाँधेगे। निदान भाई के आग्रह से इस संग्रह को सहृदयों की सेवा में समर्पित करता हूँ, आशा है, वे इसे स्वीकार करेंगे।’—
यह ख़ुसरो की उस भूमिका का भावार्थ है, जो उसने अपने पहले दीवान ‘तोहफ़तुस्सिग़िर’ पर लिखी है। इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि अमीर ख़ुसरो को कवि-सम्राट् किस चीज़ ने बनाया। स्वाभाविकी प्रतिभा, स्वाध्याय-शीलता, उत्साह-संपन्नता, निरंतर अभ्यास और लगन, यही सब बातें अमीर ख़ुसरो को कवि-सम्राट् बनाने में कारण थीं। समझदार सोसाइटी, साथियों की छेड़-छाड़, बड़ों को उत्साह-वर्द्धक समालोचना, इन सबने मिलकर उन कारणों को और कार्यक्षम बना दिया, ख़ुसरो की कविता को चमका दिया। फिर क़द्रदान भी ऐसे मिले किन मिले होंगे किसीको। ख़ुसरो को कई बार कविता के पुरस्कार में हाथी बराबर तोलकर रुपए मिले थे!
अमीर ख़ुसरो ने अपनी तरक़्क़ी का जो गुर लिखा है वह बहुत ही उपादेय है, उन्नति-मार्ग के पथिकों का पाथेय (तोशा) है। ख़ुसरो के उन पद्यों का भाव यह है—‘जो कोई मेरी प्रशंसा करता है, यद्यपि वह सच हो, तो भी, मैं उस पर कान नहीं देता; क्योंकि प्रशंसा आदमी को अभिमत्त बनाकर रास्ते से दूर हटा देती है, मिथ्या स्तुति धोके में डालकर हानि पहुँचाती है, जैसे नादान बच्चे गुड़ से फुसलाकर ठग लिए जाते हैं। जो सचमुच कविता-रत्न के पारखी हैं, उनकी निंदा भी प्रशंसा है। मैं स्वयं अपनी कविता के गुण-दोषों पर ध्यान-दृष्टि रखता हूँ, अच्छी कविता की कोई प्रशंसा न करे, परवा नहीं, मैं ख़ुद उसे सराहता हूँ।’—
इस प्रकार निरंतर लगन के साथ अभ्यास करते-करते अमीर ख़ुसरो ने वह कमाल हासिल किया कि शेख़ सादी और हाफ़िज़ जैसे ‘चुलबुले-शीराज़’ भी इस ‘तूतिए-हिंद’ (यह ख़ुसरो का खिताब था) के सम्मोहन स्वर से मोहित होकर प्रशंसा करते थे। एक लेखक ने तो यहाँ तक लिखा है कि शेख़ सादी शीराज़ी, ख़ुसरो से मिलने के लिए शीराज़ से दिल्ली में आए थे। पर शेख़ सादी का हिंदुस्तान में आना इतिहास से सिद्ध नहीं होता। हाँ, इसपर सत्र इतिहास लेखक सहमत हैं कि जब सुलतान शहीद ने ‘सादी’ को शीराज़ से बुलाया, तो उन्होंने बुढ़ापे के कारण आना स्वीकार न किया, और लिख भेजा कि ‘ख़ुसरो का सम्मान कीजिए, वह एक आदरणीय रत्न हैं।’ उस समय ख़ुसरो की उम्र बत्तीस के लगभग थी। इसी अवस्था में सादी-जैसे महाकवि से प्रशंसा का सार्टिफ़िकेट पा जाना ख़ुसरो की महत्ता का सूचक है।
प्रारंभिक अवस्था में ख़ुसरो अपनी कविता किसी कविता गुरु को न दिखाते थे, प्राचीन महाकवियों को गुरु मानकर उन्हीं के आदर्शपर रचना करते थे। पर आगे चलकर उन्होंने ‘शहाब’ को कविता-गुरु बना लिया था। ‘शहाब’ की ‘अमीर’ ने बहुत तारीफ़ की है। ख़ुसरो ने ‘निज़ामी के जवाब में जो अपनी पाँच मसनवियाँ लिखी हैं, वे ‘शहाब’ की देखी—शोधी— हुई हैं, और इसके लिए ख़ुसरो ने अपने उस्ताद का बहुत उपकार माना है। कैसा आश्चर्य है कि उसका आज कोई नाम भी नहीं जानता, जिसे कभी कवि-सम्राट् अमीर ख़ुसरो के काव्य-गुरु होने का गौरव प्राप्त था!
अपनी माता से अमीर ख़ुसरो को अनन्य प्रेम था। बड़ी उम्र में भी वह इस तरह माता से मिलते थे, जैसे छोटे बच्चे माँ को मुहब्बत से लिपट जाते हैं। ख़ुसरो ने अवध के सूबे की नौकरी का ऊँचा पद केवल इसी कारण छोड़ दिया था कि माता दिल्ली में उन्हें याद करती थी। अवध से आकर जब दिल्ली में माँ से मिले हैं, तो उस मुलाक़ात का हाल इस जोश से लिखा है, जिसके एक एक शब्द से प्रेम का मधु टपकता है।
जब माता का देहांत हुआ, तो ख़ुसरो की अवस्था 48 वर्ष की थी। माता की मृत्यु के मरसिए में इस तरह विलाप किया है, जैसे छोटा बच्चा माँ के लिए बिलखता है। भाई का मरसिया भी बड़ा करुणाजनक लिखा है।
ख़ुसरो कहीं बाहर किसी मुहिम पर थे कि पीछे अचानक कुछ आगे-पीछे, माता और भाई, दोनों का एक-साथ देहांत हो गया। दोनों का मरसिया ‘लैला-मजनू’ मसनवी के अंत में बड़ा ही करुणा-पूर्ण है, पढ़ कर दिल पर चोट लगती है।
अमीर ख़ुसरो के दो संतान थीं, एक पुत्र, एक पुत्री। पुत्रका नाम ‘मलिक अहमद’ था। यह भी कवि और समालोचक थे; इन्हें कविता में तो प्रसिद्धि प्राप्त न हुई, पर अपने समय में यह समालोचना के लिए प्रसिद्ध थे। कविता-कला के पूरे मर्मज्ञ थे, बड़े-बड़े कवियों की कविता में उचित संशोधन कर डालते थे जिन्हें कवि विद्वान पसंद करते थे। मलिक अहमद, सुलतान फ़ीरोज़शाह के दरबारी थे।
जब ख़ुसरो साहब ने मसनवी ‘लैला-मजनू’ लिखी है उस वक़्त इनकी पुत्री 7 वर्ष की थी। स्त्रियों की बेक़द्री उस समय भी ऐसी ही थी। ख़ुसरो को भी खेद था कि पुत्री क्यों पैदा हो गई! पुत्री को लक्ष्य करके जो उपदेश-वाक्य आपने लिखे हैं, उसमें अफ़सोस के साथ पुत्री से कहते हैं—‘क्या अच्छा होता कि तुम पैदा ही न होती, या पुत्री न होकर पुत्र होती।’ फिर सोच-समझकर दिल को तसल्ली देते हैं कि ईश्वर जो दे, उसे कौन टाल सकता है।
“पिदरम हम ज़ मादर अस्त आख़िर;
मादरम नीज़ दुख़्तर अस्त आख़िर।”
—‘मेरा बाप भी तो आख़िर माँ ही के पेट से पैदा हुआ था, और मेरी माँ भी तो किसी की लड़की ही थी!’
चर्खे का उपदेश
पुत्री को जो आपने उपदेश दिया है, वह बिलकुल भारतीय ढंग का और महत्त्व-पूर्ण है—
कालते-परदापोशी-ए-बदन अस्त।
पा-ब दामाने-आफ़ियत् सर कुन्;
रू ब-दीवारो पुश्त बर दर कुन्।
दर तमाशाए-रोज़नत हवस अस्त;
रोज़नत् चश्मे-सोज़ने तो बस अस्त।’
—अर्थात् चर्ख़ा कातना और सीना-पिरोना न छोड़ना— इसे छोड़ बैठना अच्छी बात नहीं है, क्योंकि यह परदा-पोशी का शरीर ढँकने का-साधन है। स्त्रियों को यही उचित है कि घर में दरवाज़े की ओर पीठ फेरकर और दीवार की ओर मुँह करके शांति से बैठें। इधर-उधर ताक-झाँक न करें। झरोखे में से झाँकने की साध सुई के झरोखे (छिद्र) को देखकर पूरी करें।
पुत्री के प्रति ख़ुसरो के इस उपदेश पर मौलाना ‘शिबली’ लिखते हैं—‘इस नसीहत से मालूम होता है कि उस ज़माने में औरतों की हालत निहायत पस्त थी। अमीर साहब इस क़दर साहिब-ए-दौलत-ओ-सर्वत (ऐश्वर्यवान्) थे, लेकिन बेटी से कहते थे कि ख़बरदार, चर्ख़ा कातना न छोड़ना, और कभी मोखे के पास बैठकर उधर-उधर न झाँकना।’—
अफ़सोस है कि मौलाना शिबली का स्वर्गवास चर्ख़ा-आंदोलन के युग से पहले हो गया, वर्ना वह अमीर की इस सुनहरी नसीहत पर वज्द करते! और देखते कि जिसे वह पस्ती का सबब समझते हैं, वह संसार के सबसे बड़े नेता गाँधी महात्मा के मत में उन्नति का एक-मात्र साधन है—मुक्ति का उपाय है, चर्ख़ा ही सुदर्शन चक्र है, कामधेनु गौ है, चिंतामणि है और कल्पवृक्ष है! इस समय संसार चर्ख़े की महिमा के गीत गा रहा है, राजकुमारियाँ और रानियाँ ही नहीं, बड़े-बड़े राजकुमार और राजा महाराजा तक चर्ख़ा कात रहे हैं, वृद्ध रसायनाचार्य सर प्रफुल्लचंद्र राय रसायन-शास्त्र को भूलकर चर्ख़े की रसायन के पीछे पागल हो रहे हैं!
अमीर ख़ुसरो की इस दिव्य दृष्टि की दाद देनी चाहिए कि छै सौ बरस पहले चर्ख़े का ऐसा उपादेय उपदेश दे गए, जिसकी उपयोगिता संसार मुक्तकंठ से आज स्वीकार कर रहा है।
ख़ुसरो की कविता
ख़ुसरो की कविता अत्यंत चमत्कार-पूर्ण, सरस और हृदयहारिणी है। यद्यपि उन्होंने अनेक ऐतिहासिक कहानियाँ-अपने आश्रयदाता बादशाहों के कारनामे और प्रशस्तियाँ लिखी हैं, जो उन्हें दरबारदारी के दबाव से लिखनी पड़ती थीं, पर उनका मुख्य रस शृंगार था। वह स्वभाव से ही सौंदर्योपासक प्रेमी पुरुष थे। फिर उन्हें दीक्षागुरु (हज़रत निज़ामुद्दीन) से भी यही उपदेश मिला कि ‘बतर्ज़े सफाहानियान बिगो’—यानी शृंगार रस को कविता करो। ख़ुसरो उपदेशक या सूफ़र कवि नहीं थे। कवियों के कितने भेद हैं, और कवियों में कितनी बातें होनी चाहिण, इस विषयपर लिखते हुए ख़ुसरो ने लिखा है—‘शाइर की तीन क़िस्में हैं, 1—उस्ताद तमाम (काव्यके सब अंगों का पूर्ण आचार्य), जो किसी ख़ास तर्ज़ का मूजिद हो—प्रकार-विशेष का प्रवर्तक हो—जैसे हकीम सनाई, अनवरी, निज़ामी, ज़हीर, 2—उस्ताद नीम-तमाम (अर्धाचार्य!), जो किसी ख़ास तर्ज़ का मूजिद नहीं, पर किसी तर्ज़ का सफ़ल अनुयायी है। 3—सारिक़ (चोर), जो दूसरों के मज़मून चुराता है। फिर लिखते हैं कि उस्तादी की चार शर्तें हैं— तर्ज़ ख़ास का मूजिद हो, उसका कलाम शाइरों के अंदाज़ पर हो, सूफ़ियों (वेदांतियों) और वाइज़ों (उपदेशकों) के ढंग का न हो, कविता निर्दोष हो, गलतियाँ न करता हो; —इत्यादि लिखकर कहते हैं कि मैं दर-हक़ीक़त उस्ताद नहीं; क्योंकि चार शर्तों में से मुझमें सिर्फ़ दो शर्तें पाई जाती हैं, यानी मैं मज़मून नहीं चुराता और दूसरे मेरा कलाम सूफ़ियों और वाइज़ों के अंदाज़ पर नहीं। शेष दो शर्तें मुझमें नहीं हैं, अव्वल तो मैं किसी तर्ज़ का मूजिद नहीं, दूसरे मेरा कलाम गलतियों से ख़ाली नहीं होता।’—
साहित्य-संसार में इससे अधिक विनय और सत्यशीलता का उदाहरण कम मिलेगा! आज संसार जिसे उस्ताद-कामिल मान रहा है, वह इस तरह अपनी हीनता की घोषणा करता है! ‘विद्या ददाति विनयं’ में सचमुच सच्चाई है। अस्तु।
ख़ुसरो की स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है कि उनका कलाम सूफ़ियाना नहीं है, और चाहे जो कुछ हो; पर आश्चर्य है कि सूफ़ी-संप्रदाय में ख़ुसरो की कविता बड़े आदर की दृष्टि से देखी जाती है, और ख़ालिस सूफ़ियाना कलाम समझकर पढ़ी जाती है, जिसे सुनकर सूफ़ी साधु आपे में नहीं रहते, सिर धुनते-धुनते बावले हो जाते हैं, अक्सर मर भी जाते हैं! इसका कारण इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि ख़ुसरो का सूफ़ी-संप्रदाय से संबंध विशेष था। वह एक सूफ़ी गुरु के शिष्य थे, इसलिए ख़्वाह-मख़्वाह उनका कलाम भी ख़ालिस सूफ़ियाना समझ लिया गया। शुद्ध सांसारिक शृंगार को भी परमार्थ प्रेम बतलाकर टट्टी की आड़ में शिकार खेलना सूफ़ियों के बाएँ हाथ का खेल है। खुले हुए इश्क़-ए-मजाज़ी को छिपा हुआ इश्क़-ए-हक़ीक़ी ज़ाहिर करना, छिपे रुस्तम सूफ़ियों ही का काम है। बड़े-बड़े रिंद मशरब, शराबी और अनाचारी फ़क़ीरों और शाइरों को पहुँचा हुआ सूफ़ी कहकर इन्हीं लोगों ने पुजवाया है।
मौलाना शिबली ने उमर-ख़य्याम के बारे में लिखा है—‘साफ़ साबित है कि वह दर-हक़ीक़त शराब पीता था और यही ज़ाहिरी शराब पीता था। अफ़सोस है कि वह फ़लसफ़ी और हकीम (दार्शनिक) था, सूफ़ी न था, वर्ना हाफ़िज़ की तरह यही शराब; शराब-ए-मार्फ़त बन जाती!’—कहने को तो सूफ़ी समदर्शी और एकात्मवादी होते हैं, उनकी दृष्टि में सब धर्म और सब जातियाँ समान हैं, उन्हें किसी से राग-द्वेष नहीं होता, पर मुसलमान सूफ़ियों के आचरणों को देखते हुए यह एकात्मवाद भोले-भाले भिन्न धर्मियों को फुसलाकर भ्रष्ट करने का एक बहाना है। ख़्वाजा चिश्ती और निज़ामुद्दीन औलिया से लेकर जितने बड़े-बड़े जय्यद सूफ़ी हुए हैं, वही लोग भारतवर्ष में इस्लाम को जड़ जमाने वाले हुए हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद है— ख़्वाजा हसन निज़ामी भी तो एक प्रसिद्ध सूफ़ी हैं, और उनकी करतूतें किसी से छिपी नहीं हैं।
शेख़-सादी ने क्या पतेकी कही थी—
‘मोहतसिब दर क़फ़ा-ए-रिन्दानस्त,
ग़ाफ़िल अज सूफ़ियाने-शाहिदबाज़।’
—कोतवाल, बेचारे रिंदों के पीछे पड़ा है, और इन बदकार सूफ़ियों के हथखंडों से बे-ख़बर है, इन्हें नहीं पकड़ता!
मतलब यह नहीं कि सब सूफ़ी ऐसे ही होते हैं (जैसों को शेख़ सादी पकड़वाना चाहते हैं!) या अमीर ख़ुसरो के कलाम में सूफ़ियाना रंग है ही नहीं। नहीं, यह बात नहीं है, सूफ़ियों में कहीं सच्चे सूफ़ी भी हुए होंगे और होंगे, और ख़ुसरो के कलाम में भी सुफ़ियाना रंग है और हो सकता है। कहना यह है कि ख़ुसरो सूफ़ी भले ही हों, पर वह ‘सूफ़ी शाइर’ नहीं थे, जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है, और जैसा कि उनका कलाम ख़ुद पुकारकर कह रहा है। अस्तु; अतिप्रसंग हो गया, स़ूफ़ी साधु क्षमा करें। कविता-प्रेमी हर कविता को सूफ़ियों के कहने से सूफ़ियाना रंग की न समझ लिया करें, यही इस निवेदन का तात्पर्य है।
अमीर ख़ुसरो की विशेषता
ख़ुसरो में कविता की दृष्टि से यूँ तो बहुत सी विशेषताएँ हैं, पर उनको एक विशेषता मुसलमान-लेखकों में बहुत प्रसिद्ध है, जिसका उल्लेख मौलाना आज़ाद, हाली और शिबली ने कई जगह जी खोलकर किया है। वह विशेषता ख़ुसरो की कविता में ‘भारतीयपन की छाप’ है। फ़ारसी के जितने कवि हिंदुस्तान में हुए, वे हिंदू हों या मुसलमान, भारतनिवासी हों या प्रवासी ईरानी, सारे के सारे फ़ारस का ही समाँ बाँधते रहे, वह गुल और बुलबुल का ही रोना रोते रहे, हिंदुस्तान के कमल और भौंरें को, कोयल और पपीहे को, कहीं भूलकर भी उन भले आदमियों ने याद नहीं किया। ऋतुओं का वर्णन है, तो वहीं की ऋतुओं का, जंगल और पहाड़ों के दृश्य हैं, तो वहीं के, उपमान और उपमेय सब वहीं के। आँख की उपमा देंगे तो ‘नर्गिस’ से या ‘बादाम’ से। भारतीय सौंदर्य की दृष्टि से यह उपमा कितनी विरूप है, इसपर शायद ही किसी उर्दू-फ़ारसी के कवि ने ध्यान दिया हो। बहुतों ने ‘नर्गिस’ को आँख से देखा भी न होगा, यह आँख का उपमान कैसे बना, इसका पता भी बहुत कम कवियों को होगा। मौलाना शिबली ने लिखा है कि ‘आँख की तशबीह (उपमा) ‘नर्गिस’ से आम (प्रसिद्ध) है, लेकिन नर्गिस को देखा, तो उसका फूल एक गोल-सी कटोरी होती है, जिसको आँख से मुनासिबत (सादृश्य-संबंध) नहीं। खोज से मालूम हुआ कि इब्तिदा-ए-शाइरी में (फ़ारसी-कविता के प्रारंभिक काल में) तुर्क माशूक़ थे। उनकी आँखें छोटी और गोल होती हैं, इसी बिना (आधार) पर पुराने शाइर आँखों के छोटे होने की तारीफ़ करते हैं।’
पुराने शाइर जो तारीफ़ करते थे, वह देख-भालकर करते थे। ईरान में तुर्क माशूक़ों की आँखें छोटी-छोटी और गोल-गोल होती थीं। वहाँ के लिए ‘नर्गिस’ की उपमा अनुरूप हो सकती है। पर भारतीय आँख के सौंदर्य का जो आदर्श है, उससे नर्गिस को क्या निसबत!
इसी तरह बुलबुल का रोना-गाना फ़ारस में तो कुछ अर्थ रखता है, पर यहाँ को बुलबुल में वह बात कहाँ? फिर भी यहाँ को फ़ारसी-उर्दू की कविता बुलबुल के तरानों से भरी पड़ी है! इस प्रसंग में मौलाना आज़ाद के एक अनुभव का, उन्हीं के शब्दों में, उल्लेख किए बिना आगे नहीं बढ़ा जाता। स्वर्गीय मौलाना आज़ाद ने फ़ारस की बहार (वसंत) का वर्णन करते हुए लिखा है—
—‘इधर गुलाब खिला, उधर बुलबुल हज़ारदास्ताँ उसकी शाख़पर बैठी नज़र आई। बुलबुल न फ़क़त फूल को टहनी पर, बल्कि घर-घर दरख़्तों पर बोलती है और चहचहे करती है। और गुलाब की टहनी पर तो यह आलम होता है कि बोलती है, बोलती है, बोलती है; हद्द से ज़ियादा मस्त होती है, तो फूल पर मुँह रख देती है, और आँखें बंद करके ज़मज़मा करते रह जाती है। तब मालूम होता है कि शाइरों ने जो इसके और बहार के और गुलो-लाला के मज़मून बाँधे हैं, वे क्या हैं, और कुछ असलियत रखते हैं या नहीं। वहाँ (फ़ारस में) घरों में नीम की करके दरख़्त तो हैं नहीं, सेब, नाशपाती, बिही, अंगूर के दरख़्त हैं। चाँदनी रात में किसी टहनी पर आन बैठती है, और इस जोश व ख़रोश से बोलना शुरू करती है कि रात का काला गुंबद पड़ा सूजता है, वह बोलती है और अपने ज़मज़मे में तानें लेती है, और इस ज़ोर शोर से बोलती है कि बाज़ मौत पर जब चह-चह करके जोश ओ ख़रोश करती है, तो यह मालूम होता है कि इसका सीना फट जाएगा! अहल-ए-दर्द के दिलों में सुनकर दर्द पैदा होता है, और जी बेचैन हो जाते हैं। मैं (आज़ाद) एक फ़सल-ए-बहार में उसी मुल्क में था। चाँदनी रात में सहनके दरख़्त पर आन बैठती थी, और चहकारती थी, तो दिलपर एक आलम गुज़र जाता था; कैफ़ियत बयान में नहीं आ सकती। कई दफ़ा यह नौबत हुई कि मैंने दस्तक दे-देकर उड़ा दिया।’
यह है फ़ारस की बुलबुल का हाल, जिसका बयान वहाँ की बहार (बसंत) के मुनासिब-हाल है। हिंदुस्तान में ऐसी बुलबुल किसी ने कहीं देखी है! यहाँ जो चिड़िया बुलबुल के नाम से मशहूर है, उस ग़रीबपर तो किसी का यही शेर सादिक़ आता है—
‘मालूम है हमें सब, बुलबुल तेरी हक़ीक़त;
एक मुश्त उस्तख्वाँ3 हैं, दो पर लगे हुए हैं।’
भारत के वसंत में कोकिल का कल-कूजन ही आनंद देता है।
ख़ुसरो ने फ़ारसी-साहित्य के कवि-समय को सब जगह आदर्श नहीं माना; उन्होंने बहुत-सी बातों का वर्णन भारतीय ढंग से किया है। ख़ुसरो का एक फ़ारसी शेर है—
‘हे ख़रामश् आँ नाज़नी व अय्यारी;
कबूतरे ब निशात आमदस्त पिंदारी।’
इसमें ख़ुसरो ने किसी मदमाती युवती की गति को कबूतर की मस्ताना चाल से उपमा दो है। इसपर ‘शिबली’ कहते हैं कि—‘अमीर’ साहब चूकि हिंदी ज़बान से आशना (परिचित) थे, इसलिए तशबीहात (उपमाओं) में उनको ब्रज-भाषा के सरमाए से बहुत मदद मिली होगी। यह शेर ग़ालिबन इसी खिरमन की खोशा-चीनी है। फ़ारसी-शाइर माशूक़ की रफ़्तार को कबक (चकोर) की रफ़्तार से तश्बीह देते थे, हिंदी में हंस की चाल आम तश्बीह (प्रसिद्ध उपमा) है, लेकिन कबूतर मस्ती की हालत में जिस तरह चलता है; वह मस्ताना-ख़िराम (मद-मंथर गति) की सबसे अच्छी तसवीर है।’—
सबसे बड़े मार्के की बात जो ख़ुसरो ने की, वह प्रेम-प्रकाशन में भारतीय साहित्य के आदर्श का अनुकरण है, अर्थात्—
‘आदौ वाच्यः स्त्रियों रागः पश्चात् पुसस्तदिङ्गित्तै।’
—प्रेम का प्रारंभ पहले स्त्री की ओर से होना चाहिए, फिर स्त्री की प्रेम-चेष्टाओं को देखकर पुरुष की ओर से।
इसके औचित्य को किसी समझदार फ़ारसी-शाइर ने दृष्टांत द्वारा सिद्ध किया है—
‘इश्क़ अव्वल दर दिल-ए-माशूक़ पैदा मीशवद्;
ता न सोज़द् शमा कै परवाना शैदा मीशवद्।’
अर्थात्—
‘पहले तिय के हीय मैं उमगत प्रेम-उमंग;
आगे वाती वरति है, पाछे जरत पतंग’
फ़ारसी-साहित्य में इसके बिलकुल उलटा होता है। वहाँ प्रेम-प्रेम प्रसंग में स्त्री का अधिकार ही नहीं। प्रेमी पुरुष प्रेम-पात्र पुरुष पर आसक्त होता है, जो बहुत ही अस्वाभाविक, प्रकृति-विरुद्ध व्यापार है। फ़ारसी का सारा साहित्य इसी घृणित रसाभास के वर्णन से भरा पड़ा है। मौलाना हाली और मौलाना शिबली ने इसपर बहुत बहस की है, फ़ारसी-साहित्य के इस प्रकार को उन्होंने निंदनीय बताया है। इस विषय में फ़ारसी-कवियों में ख़ुसरो ने ही भारतीय आदर्श का अनुकरण किया है। मौलाना आज़ाद ने ख़ुसरो के संबंध में लिखते हुए लिखा है—‘इसमें यह बात सबसे ज़ियादा क़ाबिल लिहाज़ है कि इन्होंने (ख़ुसरो ने) बुनियाद इश्क़ की औरत ही को तरफ़ से क़ायम की थी, जो कि ख़ासा नज़्म हिंदी का हैं।’—
मौलाना हाली ने इस संबंध में एक मनोरंजक ऐतिहासिक घटनाका उल्लेख किया है, जो सुनने लायक़ है—
‘एक मौक़े पर जहाँगीर (बादशाह) के रू-ब-रू क़व्वाल, अमीर ख़ुसरो की ग़ज़ल गा रहा था, और बादशाह उसको सुनकर बहुत महजूज़ (आनंदित) हो रहा था। जब क़व्वाल ने यह शेर गाया—
‘तो शबाना मी-नुमाई ब-बरे के वूदी इमशब; 4
बादशाह दफ़ातन बिगड़ गया, और क़व्वाल को फ़ौग्न पिटवाकर निकलवा दिया, और इस क़दर बर्रहम (क्रुद्ध) हुआ कि तमाम नदीम (दरयारी) और ख़वास (नौकर-चाकर) ख़ौफ़ से लरज़ने लगे और फ़ौरन मुल्ला नक़शी मोहर-कनको जिनका बादशाह बहुत लिहाज़ करता था, बुलाकर लाए, ताकि वह किसी तदबीर से बादशाह के मिज़ाज को धीमा करें। जब वह सामने आए, तो बादशाह को निहायत ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब में भरा हुआ पाया। अर्ज़ किया, हुज़ूर! ख़ैर वाशद!—बादशाह ने कहा, देखो, अमीर ख़ुसरो ने कैसी वेरिती का मज़मून शेर में बाँधा है। भला कोई ग़ैरतमंद आदमी अपनी महबूबा (प्रिया) या मनकूहा (विवाहिता) से ऐसी बेग़ैरती की बात कह सकता है? मुल्ला नक़शी ने एक निहायत उम्दा तौजीह (कारणनिर्देश) से उसी वक़्त बादशाह का ग़ुस्सा कर पर दिया। उन्होंने कहा— अमीर ख़ुसरो ने चूँकि हिंदुस्तान में नश्व-ओ-नुमा पाया था, इसलिए यह अक्सर हिंदुस्तान के उसूल के मुवाफ़िक़ शेर कहते थे। यह शेर भी उन्होंने उसी तरीक़े पर कहा है—गोया ‘औरत अपने शौहर (पति से) कहती है कि तू रात को किसी और औरत के यहाँ रहा है क्योंकि अबतक तेरी आँखों में नशे का या नींद का ख़ुमार पाया जाता है। यह सुनकर बादशाह का ग़ुस्सा जाता रहा, और फिर गाना-बजाना होने लगा।’
मालूम होता है, जहाँगीर उस दिन कुछ ज़्यादा पिए हुए थे, तभी ज़रा-सी मामूली बातपर इस तरह बरस पड़े; वर्ना फ़ारसी शाइरी का माशूक़ हद दर्जे का हरजाई, बेवफ़ा, झूठा और ज़ालिम होता है। रक़ीब का रोना; हरजाईपन की शिकायत, यही तो फ़ारसी शाइरी के आशिक़ का ‘क़ौमी गीत’ है अस्तु।
अमीर ख़ुसरो की इस विशेषता का वर्णन प्रायःमुसलमान कवि लेखकों ने बड़े आश्चर्य से किया है। सर्वे ‘आज़ाद’ नामक फ़ारसी ग्रंथ के लेखक ने भी इस संबंध में ख़ुसरो का उल्लेख किया है। उन्होंने अकबर बादशाह के समय की एक सती की घटना लिखी है कि ‘अकबर के समय में एक नौजवान हिंदू-वर की बरात आगरे में छत्ते के बाज़ार होकर लौट रही थी। अचानक बाज़ार के छत्ते की कड़ी टूटकर वर के ऊपर गिर पड़ी, जिसकी चोट से बेचारे वर की वहीं मृत्यु हो गई। अभागी वधू (दुलहिन), जो अत्यंत रूपवती युवती थी, वर के साथ सती होने लगी। जब इस घटना की ख़बर अकबर को मिली, तो दुलहिन को अपने सामने बुलाकर समझाया-बुझाया, और तरह-तरह के लालच देकर उसे सती होने से रोकना चाहा। पर सती वधू अपने व्रत से न डिगी, और पति के साथ चिता में जल कर सती हो गई।’5
इस घटना का उल्लेख करके मीर ग़ुलाम नबी आज़ाद लिखते हैं—
‘अज़ ई जास्त कि शोअरा-ए-जवान हिंद दर अशआर ख़ुद इश्क़ अज़ जानिब-ए-जन बयाँ मी कुनंद कि ज़ने हिंदू हमीं यक शौहर मी कुनद्, व ओरा सरमाय-ए-ज़िंदगी मी-शुमारद् व बाद-मुर्दने-शौहर ख़ुदरा बा मुर्दा-शौहर मी सोफ़द् अमीर ख़ुसरो मी-गोयद्—
ख़ुसरवा दर इश्क़बाज़ी कमज़ हिंदूजन सवाश,
कज़ बराए मुर्दा सोज़द ज़िंदा जाने-खेश रा।’
—अर्थात् यही बात है कि हिंदी-भाषा के कवि अपनी कविता में स्त्री की ओर से प्रेम का वर्णन करते हैं; क्योंकि हिंदू-स्त्री बस एक ही पति को वरती है, और उसे ही अपना जीवन-सर्वस्त्र समझती है। पति के मरने पर मृत पति के साथ वह भी जल मरती है। अमीर ख़ुसरो ने कहा है—
—ऐ ख़ुसरो! प्रेम-पंथ में हिंदू स्त्री से तू पीछे मत रह; उसकी बराबरी कर कि वह मुर्दा पति के साथ अपनी ज़िंदा जान को जला देती है।—
इसी भाव को एक और फ़ारसी-कवि ने इन शब्दों में प्रकट किया है—
—‘हमचु हिंदूजन कसे दर-आशक़ी मरदाना नेस्त;
सोख़्तन बर शमा मुर्दा कार हर परवाना नेस्त।’
—यानी प्रेम में हिंदू-स्त्री की तरह कोई मर्द मर्द-मैदान नहीं। मरी हुई (बुझी हुई) शमा (मोमबत्ती) के ऊपर जल मरना, हर परवाने का काम नहीं है। एक उर्दू-कवि ने इस भाव को और भी चमत्कृत कर दिया है—
निसबत न ‘सती’ से दो ‘पतंगे’ के तई,
इसमें और उसमें इलाक़ा भी कहीं!
वह भाग में जल मरती है मुर्दे के लिए,
यह गिर्द बुझी शमा के फिरता भी नहीं।’
अफ़सोस है, भारतवर्ष को एक बहुत बड़ी विशेषता, जिसे शत्रु भी मुक्तकंठ से सराहते थे, ज़माने के हाथों मिट रही है। ‘सिविल-मैरिज’ प्रचलित हो गया, तलाक़ की प्रथा के लिए प्रस्ताव हो रहे हैं! पाश्चात्य शिक्षा को आँधी ने सबकी धूल उड़ा दी!
‘ता सहर वह भभ न छोड़ी तूने ऐ बाद-ए-सबा;
यादगार-ए-रौनक़-ए-महफिल थी परवाने को ख़ाक।’
ख़ुसरो की कविता में चमत्कार के साथ हृदय पर अधिकार करने की अद्भुत शक्ति भी है। इसके दो-एक ऐतिहासिक उदाहरण देखिए—
एक लड़ाई में ख़ुसरो सुलतान मोहम्मद (ग़यासुद्दीन बलबन के बेटे) के साथ थे। ख़ुसरो तातारियों के हाथ क़ैद हो गए; और सुलतान मोहम्मद मारा गया। दो वर्ष के बाद किसी तरह छूटकर ख़ुसरो दिल्ली पहुँचे। ख़ान शहीद—(सुलतान मोहम्मद) की मृत्यु पर जो मर्सिया (करुण-कविता) इन्होंने लिखी थी, दरबार में बादशाह को सुनाई, जिसे सुनकर दरबार में हाहाकार मच गया, लोग रोते-रोते बेसुध हो गए। बादशाह (ग़यासुद्दीन बलबन) तो इतना रोया कि ज्वर चढ़ आया, और तीसरे दिन मर गया।
एक बार ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया यमुना के किनारे एक कोठे पर बैठकर हिंदुओं के स्नान-पूजा का तमाशा (!) देख रहे थे। ख़ुसरो भी पास बैठे थे। ख़्वाजा साहब ने कहा, देखते हो—
‘हर क़ौम रास्तराहे, दीने व क़िबलागाह।’
—अर्थात् प्रत्येक जाति अपने धर्म और ध्येय को ठीक समझकर चल रहा है, सबका मार्ग सीधा है।
उस समय ख़्वाजा साहब की टोपी ज़रा टेढ़ी थी। अमीर ख़ुसरो ने तिरछी टोपी की ओर इशारा करके फ़ौरन् कहा—
‘मा क़िबला रास्त करदेस् बरतरफ़ कज़-कुलाहें।’
जहाँगीर बादशाह ने ‘तुज़क-जहाँगीरी’ में लिखा है कि—‘मेरी मजलिस में क़व्वाल यह शेर गा रहे थे। मैंने इसका शान-ए-नज़ूल— (प्रकरण और प्रसंग, जिस पर इस कविता की रचना हुई थी) पूछा। मुल्ला अली अहमद मोहरकन ने उक्त घटना सुनाई। इस अंतिम पद के समाप्त होते-होते मुल्ला की हालत बदलनी शुरू हुई, बेहोश होकर गिर पड़े, देखा तो दम न था!—
भावुकता ने बेचारे मुल्ला की जान ले ली। ख़ुसरो की इस उक्ति में कौन-सा विपका बुझा बाण छिपा है, यह ज़रा सोचने की बात है।
‘क़िबला’-शब्द का अर्थ है—ध्येय-पदार्थ की प्रतीक, जिसे सामने रखकर ध्येय वस्तु का ध्यान करें। मुसलमान लोग काबे की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ते हैं, इसलिए वह ‘क़िबला’ कहलाता है। पूज्य व्यक्ति गुरु, पिता आदि को भी क़िबला कहते हैं। ख़्वाजा साहब (टेढ़ी टोपी वाले) ख़ुसरो के गुरु थे, अर्थात् क़िबले की टोपी टेढ़ी थी; ख़ुसरो ने विनोदे से कहा, हमने भी तो क़िबला सीधा ही किया था: हमारा क़िबला सीधा था, टोपी टेढ़ी क्यों है? टोपी टेढ़ी नहीं, गोया क़िबला ही टेढ़ा हो गया। इसे एक ओर करो, नहीं तो ऐसे टेढ़े क़िबले को सलाम है! टेढ़ा क़िबला दरकार नहीं।— यदि ख़ुसरो की इस उक्ति का यही भाव है— जैसा शब्दों से प्रकट होता है— तो इस मीठे मज़ाक़ में एक बाँकपन है, जिससे ख़ुसरो की सूझ, हाज़िर-जवाबी और ज़िंदा-दिली का सबूत मिलता है। पर इतनी-सी बात पर मुल्ला क्यों मर गया? बात कुछ गहरी और पते की है। मरने वाला मुल्ला सच्चा और सहृदय था। इस्लाम के एक बहुत बड़े प्रचारक हज़रत ख़्वाजा साहब के मुँह से यह सुनकर कि हर एक क़ौम का दीन-ईमान सीधा और सच्चा है, हर मज़हब अपने-अपने रास्ते पर ठीक हैं, मुल्ला के ध्यान में इस्लाम का ख़ूनी इतिहास फिर गया, जिसने कि दूसरे धर्म वालों को गुमराह कहकर दीन के नाम पर ख़ून की नदियाँ बहाई हैं,—‘या तो दीन-इस्लाम क़बूल करो, नहीं तो मरने को तैयार हो; सिर्फ़ एक दोन-इस्लाम ही सच्चा है, उसके सिवा सब कुफ़्र है; काफ़िरों को हक़ नहीं कि ज़िंदा रहें’—इस्लाम को इस मतांधता ने करोड़ों निरपराध प्राणियों की हत्या करा डाली। यदि ख़्वाजा की यह बात सच्ची है कि ‘हर क़ौम रास्तराहे दोने व क़िबलागाहे’—हर क़ौम सीधे रास्ते पर है, सबका दीन और क़िबला (तीर्थ-स्थान, प्रतीक) सच्चे हैं, तो, फिर दीन के नामपर इतनी लूट-मार और नृशंस हत्याएँ क्यों की गईं इसका पाप किसके सिर जाएगा? वे मतांध मुल्ला और बादशाह जिन्होंने धर्म के नामपर बड़े-बड़े अधर्म किए, किस नरक में ढकेले जाएँगे? सब दीन सच्चे हैं, तो फिर इस्लाम का विधर्मियों पर ख़िनी जिहाद क्यों जारी है?
हम समझते हैं, यही सोचते-सोचते सहृदय मुल्ला का हृदय फट गया! जो कुछ भी कारण रहा हो, मुल्ला के मरने में और ख़ुसरो के कलाम की तासीर में कलाम नहीं!
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ख़ुसरो के कलाम की तासीर के ये दो उदाहरण-मारने के हुए। एक उदाहरण जिलाने का भी सुनिए—
कहते हैं कि नादिरशाह ने क्रुद्ध होकर जब दिल्ली में क़त्ल-ए-आम का हुक्म दिया और ख़ुद तमाशा देखने के लिए सुनहरी मस्जिद में डटकर बैठ गया- हज़ारों आदमी गाजर-मूली की तरह काट डाले गए, दिल्ली के गली-कूचे आदमियों की लाशों से भर गए, ख़ून की नदी बह निकली6, क़त्ल बराबर जारी था, नादिरशाह की रुद्र मूर्ति देखकर किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि कुछ प्रार्थना करे, तब मोहम्मद शाह (दिल्ली के बादशाह) का एक बूढ़ा वज़ीर डरता काँपता, जान पर खेलकर, नादिरशाह के सामने पहुँचा, और अमीर ख़ुसरो का यह शेर पढ़कर सिर झुकाए हाथ जोड़े हुए खड़ा हो गया—
‘कसे न माँद कि दीगर ब तेग-नाज़ कुशी;
मगर कि ज़िंदा कुनी खल्क़रा व वाज़ कुशी।’
—अर्थात् कोई आदमी नहीं बचा, सब तुम्हारी क़हर की निगाह के शिकार हो गए,—निगाह-ए-नाज़ की तलवार से सबको मार डाला, अब लोगों को लुत्फ़ की निगाह से ज़िंदा करो और फिर मारो।7
जब शिकारगाह के वध्य पशु समाप्त हो जाते हैं, तो नए जानवर पाले जाते हैं, और तब तक शिकार खेलना बंद रहता है।
यह अन्योक्ति काम कर गई; नादिरशाह सुनकर तड़प गया, और फ़ौरन क़त्ल-ए-आम बंद करने का हुक्म दे दिया। उसी दम हत्या बंद हो गई।
इस तरह ख़ुसरो के इस एक शेर ने लाखों आदमियों की जान बचा दी।
ख़ुसरो की कविता के कुछ नमूने
प्रेम-पंथ के पचड़ों के चमत्कृत वर्णन को फ़ारसी में ‘वक़ूअ गोई’ कहते हैं। उर्दू वालों ने इसका नाम ‘मामलाबंदी’ रखा है। संस्कृत कवियों ने तो शृंगार-रस में इसका बहुत ही चमत्कृत वर्णन किया है, पर फ़ारसी में इस रीति के प्रवर्तक अमीर ख़ुसरो ही हुए हैं; मौलाना ग़ुलामनबी आज़ाद ने अपने एक ग्रंथ में इस बात का उल्लेख किया है, और मौ० शिबली ने इस मत की पुष्टि की है तथा ख़ुसरो की फ़ारसी कविता से इस विषय के कुछ उदाहरण भी उद्धृत किए हैं—
‘चूँ रफ़्तम् वर दरश बिसियार दरबाँ गुफ़्त ईं मिसकीं,
गिरफ़्तारस्त शायद, कीं तरफ़ बिसियार मी आयद्।’
—मुझे उसके (प्रेमपात्र के) दरवाज़े पर बार-बार जाता देखकर दरबान ने कहा, शायद यह भी कोई गिरफ़्तार है; क्योंकि अक्सर इधर आता है।
‘मस्त आँ ज़ौक़म् कि शब दर कूए-वेशम् दीदो-गुफ़्त।
कीस्त ईं? गुफ़्तन्द मसकीने गाई मीकुनद्।’
—मैं उस घटना को याद करके मस्त हूँ। रात जब उसने मुझे गली में देखकर कहा कि यह कौन है? किसी ने कहा कि कोई ग़रीब है, भीख माँगता है।
‘वादा सी ख़्वाहमो दरबंद वफ़ा नोज़ नीयम्;
ग़रज़ आनस्त कि बारे ब तक़ाज़ा बाशम्।’
—मैं वादा चाहता हूँ, वफ़ा की शर्त नहीं कराता—वादा पूरा हो, इस पर ज़ोर नहीं देता— इस बहाने से तक़ाज़ा करने का तो मौक़ा मिलता रहेगा।
‘अज़ कुजा आमदी ऐ बाद! कि दीवाना शुदम्।
वृए-गुल नेस्त कि मी आयदम् ई बूए-कसेस्त।’
—ऐ हवा! तू कहाँ से आ रही है? जो ख़ुश्बू तू ला रही है, यह किसी फूल की तो है नहीं। इसे सूँघकर मैं दीवाना (मस्त) हो गया। सच बता, यह सुगंध किसकी है?
—‘गुफ़्ती अंदर ख़्वाब गह गहरूए-ख़द बिनुमायमत्;
ई सुख़न बेगानारा गो काशनारा ख़्वाब नेस्त।’
—तू जो कहता है कि मैं तुझे सपने में कभी-कभी सूरत दिखा दिया करूँगा, यह बात किसी ग़ैर से कह, दोस्त को नींद कहाँ! जो सपने में तुझे देखेगा!
‘मन कुजा ख़सपम् कि अज़ फ़रयाद-ए-मन;
शब न मी ख़ुलपद कसे दर कूए-तो।’
—मुझे तो भला नींद क्यों आती! मेरे रोने के रौले से तो मेरे मुहल्ले में भी रात कोई न सो सका!
‘ऐ आशना कि गिरयाकुनाँ पंद सीदिही;
आब अज़ बिल मरेज़ कि आतिश बजाँ गिरफ़्त।’
—ऐ दोस्त, तुम आँसू बहाते हो और मुझे समझाते हो; यह पानी बाहर मत गिराओ; आग तो अंदर लगी हुई है, बुझ सके तो उसे बुझाओ।
‘गुफ़्तम् असीर गर्दी ऐ दिल!
दीदो कि वआकबत् हमाँ शुद।’
—ऐ दिल, मैं कहता न था कि पकड़े जाओगे; देखा, आख़िर वही हुआ न?
‘ब-लबम् रसीदा जानम् तो बिया कि ज़िंदा मानम्;
पस अजाँ कि मन न मानम् ब-चेकार ख़्वाही आमद्।’
—जान, होठों पर आई हुई है, तू आ कि मैं ज़िंदा-बचा रहूँ। उसके बाद जब कि मैं न रहूँगा, तो तेरा आना फिर किस काम का होगा!
‘मी रवी वो गिरिया मी आयद मरा;
साअते बिनशीं कि बाराँ बुगजरद।’
—तुम जा रहे हो और मुझे रोना आ रहा है। इतने तो ठहरे रहो कि यह आँसुओं की झड़ी बंद हो जाए। बारिश बंद होने पर चले जाना।
अच्छा चकमा है! जाना ही तो रोने का कारण है, जब जाएगा तभी रोना आएगा। न कभी यह झड़ी बंद होगी, न वह कभी जा सकेगा।
‘गुफ़्तम् ऐ दिल मरौ आँजा कि गिरफ़्तार शवी;
आक़बत रफ़्तो हमा गुफ़्तए-मन पैश आमदा।’
—‘ऐ दिल, मैंने कहा था कि वहाँ मत जा, नहीं तो गिरफ़्तार हो जाएगा। आख़िर तू न माना, वहाँ गया, और जो मैंने कहा था, वह सामने आया।
‘जाँ ज नज़्ज़ारा ख़रावो नाज़े ऊ ज अंदाजा चेश;
मा बबूए मस्तो साकी मी दिहद पैमानारा।’
—मैं तो दर्शन मात्र से ही मस्त हूँ और उसके नाज़ व अदा, अंदाज़े से बड़े हुए हैं, मैं तो मद्य की गंध से ही मस्त हो रहा हूँ और साक़ी प्याले-पर-प्याला दिए जाता है। यह कृपा मार डालेगी।
‘ख़्वाही ए जाँ विरो वाह बमन बाश कि मन;
मुर्दनी नेस्तम् इम रोज कि जानाँ ई जास्त।’
—ऐ जान (प्राण), चाहे तो तु चली जा, चाहे मेरे पास रह। तू चली जाएगी तो भी मैं आज मरूँगा नहीं, क्योंकि जाना (प्याग) पास है।
अत्युक्ति
‘बख़ानए तो हमा-रोज़ बामदाद बुवद्;8
—तुम्हारे घर में तो तमाम दिन प्रातःकाल ही का समय रहता है, क्योंकि वहाँ सूर्य (तेरे मुखसे डरकर) ऊँचा नहीं हो सकता। फ़ारसी-कवि मुखकी सूर्य से उपमा देते हैं।
‘रवम् ज़ ज़ोफ़ बहर जानिबे कि आह रवद्;
चू अनकबूत कि बर तारे ख़्वेश राह रवद्।’
—कृशता के कारण उधर ही चल देता हूँ, जिधर आह (दुःखोच्छास) जाती है, जैसे कि मकड़ी अपने तारपर उड़ी फिरती है। शरीर इतना कृश हो गया है कि वह आह के साथ उड़ा फिरता है।
श्लेष
‘ज़बाने-शोख़े-मन तुर्की व मन तुर्की न मोदानम्;
च ख़ुश्बूदे अगर बूदे ज़बानश दर दहाने-मन।’
—उस चंचल की ज़बान (भाषा) तुर्की है, और मैं तुर्की नहीं जानता। क्या अच्छा होता कि उसकी ज़बान मेरे मुँह में होती।
ज़बान शब्द श्लिष्ट है, भाषा और जिह्वा। इसीका इस शेर में मज़ा है!
स्वर्गीय सैयद अकबर हुसैन ने भी इस भाव को अच्छे ढंग से अपनाया है—
दिल! उस बुत-ए-फिरंग से मिलने की शक्ल क्या;
मेरा तरीक़.और है, उसकी है शान और।
क्योंकर ज़बाँ मिलाने को हसरत बयाँ करूँ;
उसकी ज़बान और है, मेरी ज़बान और!’
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‘शामा-अज़ दिले उश्शाक़, निशाँ मीआरद;
जाँ अज़ सरे-सोज़ दरम्याँ मीआरद।
ख़ुश मी सोज़ दो लेक ऐबशू ईनस्त;
कि सोज़िशे-ख़ेश बर ज़बाँ मीआरद;’
—शमा ने आशिक़ों के दिल से जलना सीखा है। यह भी अच्छी जलती है; पर इसमें एक ऐब (दोष) है कि अपने जलने को ज़बान पर लाती है। ख़ुद ज़ाहिर करती है आशिक़ के दिल की तरह चुपचाप बेमालूम नहीं जलती!
ज़बान पर लाना, ज़ू मानी (द्वयर्थक) है। इसी ने शेर में जान डाल दी है, शमा की लौ को भी ज़बान कहते हैं।
मरने के बाद भी किसी का एहसान नहीं चाहता—
‘न ख़्वाहम् बाद-ए-मुर्दन हेच कस बरमन कफ़न पोशद्;
कि आतिश चूँ वमीरद ख़्वेशरा अज़ ख़्वेश-तन पोशद।’
—मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद कोई मुझे कफ़न उढ़ावे, कफ़न से ढंके। आग जब मरती (बुझती) है तो ख़ुद अपने आपे को छिपा लेती है।
बुझने पर जो राख रह जाती है, वही आग कफ़न है।
कविता का महत्त्व
“आँके नाम-ए-शेर ग़ालिब मोशवद वर नाम-ए-इल्म;
हुज्जत-ए-अक़्ली दरीं गोयम् अगर फ़रमाँ बुवद।
हर चे तकरारश कुनी आदम् बुवद् उस्तादे आँ;
आँचे तसनीफ़ेस्त उस्ताद; एज़दे सुबहाँ बुवद्।
पस चरा बर दानशे कज़ आदमी आमोख़्ते;
ना यदाँ ग़ालिब कि तालीमे वे अज़ यज़दाँ बुवद्।
इल्म कज़तकरार हासिल शुद चू आवेदर ख़ु मस्त;
कज़ वे अर दह दल्व बाला वर कशी नुक्साँ बुवद।
लेक तब-ए-शाइराँ चश्मास्त ज़ाइंदा कज़ो;
गरकशी सद दल्व बेरू आब सद चदाँ बुबद।”
—कविता सब विद्याओं से श्रेष्ठ है, आज्ञा हो, तो इसपर कुछ युक्तियाँ सुनाऊँ। कविता का आदिगुरु, जिसने इसकी चर्चा की, आदम9 हुआ है, और जिसने सबसे प्रथम कविता में ग्रंथ लिखाया, वह स्वयं ईश्वर है (इलहामी किताबें एक प्रकार की कविता ही तो हैं)। फिर उन विद्याओं पर जो आदमी की बनाई हुई हैं, —मनुाने मनुष्यों से सीखी हैं, यह ईश्वर-प्रदत्त विद्या (कविता) क्यों न अधिकार जमावे!
और विद्याएँ ऐसी हैं, जैसा मटके में भरा हुआ पानी। यदि उसमें से दस डोल पानी निकालोगे, तो मटका ख़ाली हो जाएगा; पर कवि की प्रतिभा एक ऐसा चश्मा (स्रोत) है कि उसमें से सौ डोल पानी खींचो, तो पानी कम होने की जगह और सौगुना बढ़ जाएगा।
उपदेश और नीति
ख़ुसरो ने एक क़सीदे में नीति और ज्ञान का उपदेश दिया है, हर एक वाक्य को दृष्टांत से दृढ़ किया है। दावा और दलील साथ-साथ मौजूद हैं। इसके कुछ नमूने लीजिए—
‘मर्द पिनहाँ दरगली में बादशाह-ए-आलमस्त;
तेग़े-ख़ुफ़िया दरनियामे पासबाने किंशवरस्त।’
—मर्द आदमी कंबल में छिपा हुआ भो संसार का राजा है, तलवार म्यान में बंद हो, तो भी (अपने आतंक से) राज्य की रक्षक है।
“राहरौ चूँदर रिया कोशद मुरीदे-शहवतस्त;
वेवा ज़न चूरुख़ बिआरायद् बबंदे-शौहरस्त।”
—भक्ति-मार्ग का पथिक यदि दंभ का आचरण करता है, तो वह विषय-वासना का दास है! विधवा स्त्री, यदि शृंगार करती है, तो समझो पति करना चाहती है।
‘नफ़्स खाके तुस्त हरगह नूर-ए-बाला बरतो ताफ़्त;
साया ज़ेरे पा शवदू हरगह कि वर तारक ख़ुरस्त।’
—जिस समय तेरे ऊपर परम ज्योति का प्रकाश होगा, तो मन ख़ुद ख़ाक होकर रह जाएगा; जब सूर्य का प्रकाश सिर पर होता है, तो छाया पैरों पर आ जाती है।
‘नाकसो-कस हर कि हिरसे-माल दारद दोज़ख़ीस्त;
ऊदो सरगीं हरचे दर-आतिश फितद् ख़ाकिस्तरस्त।’
—मूर्ख हो या विद्वान, जो माया के मोह में फँसा है, नरक का अधिकारी है। अगर और गोबर, जो भी आग में गिरेगा, जलकर राख हो जाएगा।
‘ऐ बिरादर मादर-ए-दहर अर ख़ुरद् ख़ूनत मरंज;
चूँ तुरा ख़ून-ए-बिरादर बिह ज़ शीर-ए-मादरस्त।’
—ऐ भाई! पृथिवी माता तेरा ख़ून पी जाए, तो रंज क्यों करता है, जब कि तू भाई के ख़ून को माता के दूध से मीठा समझता है।
‘अश्क़म बिरूँ मी अफ़गनद् राज़े-दरूने पर्दारा;
आरे शिकायत हा बुवद मिहमान-ए-बेरू कर्दारा।’
—आँसुओं ने भीतर का भेद बाहर ज़ाहिर कर दिया। घर बाहर किया हुआ मेहमान (पाहुना, अभ्यागत) बाहर जाकर शिकायत करता ही है।10
- पुस्तक : पद्म पराग (पृष्ठ 185)
- संपादक : पारस नाथ सिंह
- रचनाकार : पद्मसिंह शर्मा
- प्रकाशन : भारती पब्लिशर्स लिमिटेड पटना
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