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क़ुली

Kuli

हमारे चारों ओर विशाल गगन-चुंबी पर्वत चुपचाप खड़े थे। तलहटी में एक नीरव सौंदर्य बिखरा था। तीव्रगामी जल-धारा, घने वन, एकाध नर-नारी किसी धुन में मस्त इधर-उधर आते-जाते। हमारा हृदय शांति से भर गया।

एक क़ुली पहाड़ी का सहारा लिए एक पल विश्राम कर रहा था। उसकी पीठ कोयलों से भरी एक भारी टोकरी के बोझ से ढक रही थी। उसका मुँह कोयले की धूल से ढका उसके रूप को छिपा रहा था, किंतु उसका शरीर फिर भी लौह-शलाका के समान कठिन लोचपूर्ण दिख रहा था। उसने एक हाथ से मुँह का पसीना पोंछ डाला, फिर लंबी साँस खींच बोझ सँभाला और फुर्ती से आगे बढ़ा।

इसके पीछे क़ुलियों की एक लंबी क़तार रही थी। कुछ बूढ़े, श्रम-व्यस्त, कुछ सूखे कंकाल मात्र; दो-एक निरे बच्चे। वे पहाड़ के सहारे क्षण भर विश्राम करते, फिर लंबी साँस भर आगे बढ़ जाते।

वे मुँह-अँधेरे ही अपने मटमैले पहाड़ी गाँव से निकलते, पहाड़ की गोद से कोयला खोदते और धूप चढ़ते-पढ़ते नगर का रास्ता पकड़ते। मार्ग में चुंगी का कर देते और जल्दी छूट जाने के लिए घूस; और दोपहर तक नगर में पहुँच कोयला किसी व्यापारी के हाथ औने-पौने दाम लेकर बेच डालते। फिर खाने का कुछ सामान ख़रीद शाम को मंद थके पैर और शरीर लेकर लौटते। यह उनकी दिनचर्या थी।

हमने सोचा वह, कोयला-मंडित देव-स्वरूप क़ुली कोई बड़ा उल्लास मन में ले घर पहुँचता होगा। कमल-सी पखुड़ियों से बड़ी पलक वाली कोई रूपवती नवयौवना उसके स्वागत को आकुल हो बैठी होगी। धूल-धूसरित तन लिए पुलकित बालक उसको उमंग से घेर लेते होंगे!

हमारे एक पहाड़ी मित्र कल्पना का धागा तोड़ते बोले— 'तुमने उस क़ुली को देखा था न। कितना ख़ूबसूरत शरीर है। लेकिन चार दिन का चाँद है यह। शराब पीकर नशे में चूर वह अपनी औरत को मारता है; लड़के भूखों मरते हैं। यह नीच जाति होती है ऐसी ही!'

इतने में पहाड़ के वन में आग लगी। शरीर गर्मी से झुलसा जा रहा था। हमको लगा वह आग ही यह गर्मी बरसा रही थी।

हमारे मित्र ने कहा—कोयलेवाले क़ुली यह आग लगा रहे है। इस मौसम में कोयला अच्छा बनता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : रेखाचित्र
  • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
  • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग

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