उस दिन ख़ूब लू चली थी। दिन भर बदन झुलसा था। शाम को हम लोग इक्के पर बैठकर कुछ सामान ख़रीदने और चाट खाने के लिए चौक चले गए। यूनिवर्सिटी बंद थी, इसलिए मनमानी कर सकते थे। सोचा, किसी तरह तो गर्मी और लू को भूल सके।
चौक गुलज़ार था। घंटाघर में साढ़े सात बजा रहा था। हवा हल्की पड़ गई थी, लेकिन फिर भी गरमाहट से झुलसे बदन को सेक जाती थी। दुकानों पर बत्तियाँ जगमगा उठी थी। चारों ओर खासी भीड़-भाड़ थी। सड़कों पर इक्के-ताँगों, साइकिलों और एकाध मोटरों का अविरत प्रवाह था। मानो कोई नदी पहाड़ से उतर कर मैदान की समतल भूमि में धीर, मन्थर गति से, किंतु अविराम बही जाती हो। यह भीड़ की सरिता बिना लक्ष्य के इधर-उधर मटकती थी और इसकी गति तीर की तरह सीधी न होकर मंडलाकार थी, और आगे न बढ़कर फिर-फिर अपने उद्गम की दिशा पकड़ती थी। नदी अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ती है। वन उपवनों को सींचकर, अपने दोनों किनारों के देश को धन-धान्य से परिपूर्ण कर सागर से जा मिलती है और एक बार फिर बादल बन कर खेत-खलिहानों पर अपने श्रम-बिंदु बरसाती है, और उन्हें सोने से लाद देती है। किंतु यह मानवी सरिता। लदय-भ्रष्ट होकर मरुभूमि में भटक रही थी। इस सरिता के एक किनारे खड़े होकर हम सोच रहे थे, इस प्रवाह पर लड़ाई, महँगी और अकाल का कोई असर नहीं। लेकिन असलियत यह न थी।
मेरे एक वकील दोस्त चीनी ख़रीद रहे थे। सेर-सेर भर चीनी उन्होंने दो दुकानों से ली। दूसरे मित्र बच्चों के लिए दवा ख़रीद रहे। थे। 'ग्राइप वॉटर' की दो शीशियाँ चाहते थे, लेकिन एक ही मिली। दाम काफ़ी बढ़ गए थे।
मैं चुपचाप इक्के पर बैठा दीन-दुनिया की बाते सोचने में लगा था। न जाने लड़ाई कब ख़त्म होगी! कब यूरोप में दूसरा मोर्चा खुलेगा! कब जापान के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू होगी। गेहूँ ढाई सेर हो गया था। कपड़ा ख़रीदना जान पर खेलना था। छुट्टी थी, मगर कहीं बाहर निकलना असंभव था। गाड़ियों में न मालूम कहाँ की भीड़ उमड़ पड़ी थी। आदमी के ऊपर आदमी टूटता था। एक हफ़्ते के लिए बंबई जाने में सब दुर्गति हो गई थी।
विचारों की लड़ी तोड़ते इक्केवाले ने पूछा : बाबूजी, चीनी किस भाव ली?
“साढ़े छै आना। और काफ़ी गंदी और मैली।
सभी चीज़ की मुसीबत है, बाबूजी।
हाँ भई, मुसीबत पूरी है। इस बार आटे-दाल का भाव मालूम हो रहा है।
मुसीबत हम ग़रीबों की है बाबूजी। खाना-पहनना मुश्किल है।
कितना कमा लेते हो?
कमा तो दो-ढाई लेता हूँ, लेकिन दो-डेड़ तो जानवर ही खा लेता है। दाना भी मँहगा, घास भी मँहगी। लेकिन इसे तो पालना ही है, चाहे आप भूखे रह लें!
क्यों जी, बाज़ार में सरकारी कपड़ा आया है। क्यों नहीं उसमें से कुछ ख़रीदते?
कहाँ मारे-मारे फिरें, बावूजी? पेट की चिंता-फ़िक्र करें या सरकारी दफ़्तरों में जूतियाँ चटकाते फिरें?
मैं सोचने लगा, हमारे देश में नौकरशाही का कैसा रोब है। लोग भूखे मर जाएँगे लेकिन सरकारी दफ़्तर न जाएँगे। सदियों की दुर्व्यवस्था का आज यह विषैला फल निकल रहा है।
इक्केवाला—बाबूजी, सब चीज़ मँहगी हो गई, लेकिन एक चीज़ बहुत सस्ती है—आदमी की जान। उसकी कोई क़ीमत नहीं। जिधर देखो उधर ही आदमी मक्खियों की तरह पटापट मर रहे हैं।
हाँ भाई, हालत काफ़ी नाज़ुक हो गई है। भूख और रोग लड़ाई से भी बढ़कर आदमी के दुश्मन हो रहे हैं। बंगाल में लोग हज़ारों की संख्या में मर रहे है। कुछ दिन बाद हमारे यहाँ भी वही होगा, अगर हमने अपना फ़र्ज़ पूरा न किया!
इक्केवाला—यही चौक लीजिए, रात भर गुलज़ार रहता था। अब शाम से ही उजड़ जाता है... उसने शहर के चकलों का वीभत्स वर्णन करते हुए कहा: जहाँ पहले चवन्नी लगती थी, अब दोअन्नी से काम चल जाता है।
ठीक ही था। सब चीज़ा मँहगी हो रही थी; मनुष्य का मोल घट रहा था।
वकील दोस्त के आने पर मैंने उनसे कहा—This is an old sinner. He talks of women the whole timel'
वकील साहब—क्यों जी तुम कहाँ रहते हो?
कटरे में ही रहता हूँ, हुज़ूर।
कटरे में तो हम भी रहते हैं! तब तो हम लोग पड़ोसी हुए।... क्यों जी, आज-कल कौन-कौन बाज़ार जाता है?
इसके बाद बहुत-से रईसों की बात हुई। कौन संभले, कौन बिगड़े, 'इक्केवाले ने बताया। वह भी इसी मर्ज़ में बिगड़ा था। पहले ताँगा चलाता था तो अच्छी कमाई थी। किसी से इश्क़ हो गया, बस उसी में वह बर्बाद हुआ। और आज भी लड़ाई और मँहगी के बावजूद वही रंग उसके दिमाग़ पर चढ़ा था।
बड़ी दुनिया देख चुका था वह। बड़े घाटों का पानी पी चुका था। फ़्रांस घूम आया था। पिछली लड़ाई में 'सप्लाई कोर' में था, तीन चार साल पहले बंबई में था। गाँधी जी का आंदोलन देख चुका था।' दो-एक लाठियाँ भी खाई थीं।
हमने पूछा: क्या-सन् 30 में तुम बंबई थे?
जी, पंडित मोतीलाल की स्पेशल बंबई आई थी। मैं भी देखने गया था। बड़ी भीड़ थी। गोरों ने भीड़ पर ख़ूब लाठी चलाई। जिसे गाँधी टोपी पहने देखते थे, उसी को पीटते थे। मैंने अपनी गाँधी टोपी उतार कर छिपाई, तब कहीं जान बची।
कुछ देर बाद : गाँधी जी ने क्या किया? फ़िज़ूल में लोगों को कटवा दिया।
हम गाँधी जी के आंदोलन ने मुल्क को जगा दिया। पहले तो मानो सोता पड़ा था।
इक्केवाला : ग़रीबों का कुछ भला नहीं हुआ। ग़रीबों को कौन पूछता है। वह तो ठोकर ही खाएँगे। उनका कोई भला नहीं करेगा।
हम : ठीक कहते हो। ग़रीबों को अपने पैरों पर खड़ा होना है। अपनी ताक़त से दुनिया बदलनी है। दूसरों के मोहताज होकर कभी कुछ नहीं होता। आज भी अपनी एकता और, संगठित शक्ति से तुम सब संकट काट सकते हो। जनता की ताक़त के आगे बड़ी-से-बड़ी हुकूमत को झुकना पड़ता है।
लेकिन इक्केवाले को राजनीति से कोई ख़ास दिलचस्पी न थी। वह किसी पुराने युग का बिगड़ा, मनचला जवान रहा होगा। अब अधेड़ होकर 'ग़रीबी और मँहगाई से मजबूर अकाल की आशंका से वह चिंतित था। पुरानी स्मृतियों को एक बार फिर सहेजते हुए। उसने कहा—काँग्रेस के जुलूस में भी बड़ी औरतें जुड़ती थीं। हम तो मेला समझ कर वहाँ गए थे। किसे मालूम था कि लाठियाँ बरसेगी?
हमने उसे समझाया : इन बातों को छोड़ो। जब तक सब मिल-जुल कर संगठन नहीं करते, हालत बिगड़ती ही जाएगी।
उसने सिर हिला कर सम्मति ज़ाहिर की: ठीक है, बाबूजी। फिर मानो इन बातों का अंत करने के लिए घोड़ा बढ़ाया और स्वर खोलकर गाना शुरू किया, हॉ-ऑ, पिया मिलन को जाना।
us din khoob lu chali thi din bhar badan jhulsa tha sham ko hum log ikke par baithkar kuch saman kharidne aur chat khane ke liye chauk chale gaye uniwersity band thi, isliye manmani kar sakte the socha, kisi tarah to garmi aur lu ko bhool sake
chauk gulzar tha ghantaghar mein saDhe sat baja raha tha hawa halki paD gai thi, lekin phir bhi garmahat se jhulse badan ko sek jati thi dukanon par battiyan jagmaga uthi thi charon or khasi bheeD bhaD thi saDkon par ikke tangon, saikilon aur ekadh motron ka awirat prawah tha mano koi nadi pahaD se utar kar maidan ki samtal bhumi mein dheer, manthar gati se, kintu awiram bahi jati ho ye bheeD ki sarita bina lakshya ke idhar udhar matakti thi aur iski gati teer ki tarah sidhi na hokar manDlakar thi, aur aage na baDhkar phir phir apne udgam ki disha pakaDti thi nadi apne lakshya ki or nirantar baDhti hai wan upawnon ko sinchkar, apne donon kinaron ke desh ko dhan dhany se paripurn kar sagar se ja milti hai aur ek bar phir badal ban kar khet khalihanon par apne shram bindu barsati hai, aur unhen sone se lad deti hai kintu ye manawi sarita laday bhrasht hokar marubhumi mein bhatak rahi thi is sarita ke ek kinare khaDe hokar hum soch rahe the, is prawah par laDai, mahngi aur akal ka koi asar nahin lekin asliyat ye na thi
mere ek wakil dost chini kharid rahe the ser ser bhar chini unhonne do dukanon se li dusre mitr bachchon ke liye dawa kharid rahe the graip wautar ki do shishiyan chahte the, lekin ek hi mili dam kafi baDh gaye the
main chupchap ikke par baitha deen duniya ki bate sochne mein laga tha na jane laDai kab khatm hogi! kab europe mein dusra morcha khulega! kab japan ke khilaf karrwai shuru hogi gehun Dhai ser ho gaya tha kapDa kharidna jaan par khelna tha chhutti thi, magar kahin bahar nikalna asambhaw tha gaDiyon mein na malum kahan ki bheeD umaD paDi thi adami ke upar adami tutta tha ek hafte ke liye bambai jane mein sab durgati ho gai thi
wicharon ki laDi toDte ikkewale ne puchha ha babuji, chini kis bhaw lee?
“saDhe chhai aana aur kafi gandi aur maili
sabhi cheez ki musibat hai, babuji
han bhai, musibat puri hai is bar aate dal ka bhaw malum ho raha hai
musibat hum gharibon ki hai babuji khana pahanna mushkil hai
kitna kama lete ho?
kama to do Dhai leta hoon, lekin do DeD to janwar hi kha leta hai dana bhi manhaga, ghas bhi manhagi lekin ise to palna hi hai, chahe aap bhukhe rah len!
kyon ji, bazar mein sarkari kapDa aaya hai kyon nahin usmen se kuch kharidte?
kahan mare mare phiren, bawuji? pet ki chinta fir karen ya sarkari daftron mein jutiyan chatkate phiren?
main sochne laga, hamare desh mein naukarshahi ka kaisa rob hai log bhukhe mar jayenge lekin sarkari daftar na jayenge sadiyon ki durwyawastha ka aaj ye wipaila phal nikal raha hai
ikkebala—babuji, sab cheez manhagi ho gai, lekin ek cheez bahut sasti hai—adami ki jaan uski koi qimat nahin jidhar dekho udhar hi adami makkhiyon ki tarah patapat mar rahe hain
han bhai, haalat kafi nazuk ho gai hai bhookh aur rog laDai se bhi baDhkar adami ke dushman ho rahe hain bangal mein log hazaron ki sankhya mein mar rahe hai kuch din baad hamare yahan bhi wahi hoga, agar hamne apna farz pura na kiya!
ikke—“yahin chauk lijiye, raat bhar gulzar rahta tha ab sham se hi ujaD jata hai usne shahr ke chaklon ka bibhats warnan karte hue kahah jahan pahle chawanni lagti thi, ab doanni se kaam chal jata hai
theek hi tha sab chiza manhagi ho rahi thee; manushya ka mol ghat raha tha
wakil dost ke aane par mainne unse kaha—this is an old sinner he talks of women the whole timel
wakil sahaw—kyon ji tum kahan rahte ho?
katre mein hi rahta hoon, huzur
katre main to hum bhi rahte hain! tab to hum log paDosi hue kyon ji, aaj kal kaun kaun bazar jata hai?
iske baad bahut se raison ki baat hui kaun sambhle, kaun bigDe, ikkewale ne bataya wo bhi isi marz mein bigaD tha pahle tanga chalata tha to achchhi kamai thi kisi se ishq ho gaya, bus usi mein wo barwad hua aur aaj bhi laDai aur manhagi ke bawjud wahi rang uske dimagh par chaDha tha
baDi duniya dekh chuka tha wo baDe ghaton ka pani pi chuka tha phas ghoom aaya tha pichhli laDai mein supply kor mein tha, teen chaar sal pahle bambai mein tha gandhi ji ka andolan dekh chuka tha do ek lathiyan bhi khai theen
hamne puchhah kya san 30 mein tum bambai the?
ji, panDit motilal ki special bambai i thi main bhi dekhne gaya tha baDi bheeD thi goron ne bheeD par khoob lathi chalai jise gandhi topi pahne dekhte the, usi ko pitte the mainne apni gandhi topi utar kar chhipai, tab kahin jaan bachi
kuch der baad ha gandhi ji ne kya kiya? fizul mein logon ko katwa diya
hum gandhi ji ke andolan ne mulk ko jaga diya pahle to mano sota paDa tha
ikke० ha gharibon ka kuch bhala nahin hua gharibon ko kaun puchhta hai wo to thokar hi khayenge unka koi bhala nahin karega
hum ha theek kahte ho gharibon ko apne pairon par khaDa hona hai apni taqat se duniya badalni hai dusron ke mohtaj hokar kabhi kuch nahin hota aaj bhi apni ekta aur, sangthit shakti se tum sab sankat kat sakte ho janta ki taqat ke aage baDi se baDi hukumat ko jhukna paDta hai
lekin ikkewale ko rajaniti se koi khas dilchaspi na thi wo kisi purane yug ka bigDa, manchala jawan raha hoga ab adheD hokar gharib aur manhgai se majbur akal ki ashanka se wo chintit tha purani smritiyon ko ek bar phir sahejte hue usne kaha—kangres ke julus mein bhi baDi aurten juDti theen hum to mela samajh kar wahan gaye the kise malum tha ki lathiyan barsegi?
hamne use samjhaya ha in baton ko chhoDo jab tak sab mil jul kar sangthan nahin karte, haalat bigaDti hi jayegi
usne sir hila kar sammati jahir keeh theek hai, babuji phir mano in baton ka ant karne ke liye ghoDa baDhaya aur swar kholkar gana shuru kiya, hau au, piya milan ko jana
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।