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पंडित अमृतलाल नागर

panDit amritlal nagar

रामविलास शर्मा

रामविलास शर्मा

पंडित अमृतलाल नागर

रामविलास शर्मा

और अधिकरामविलास शर्मा

    हिंदी के प्रसिद्ध लेखक पंडित अमृतलाल नागर बहुत दिलचस्प आदमी हैं, देखने में शरीफ़ भी मालूम होते हैं। जिस शहर, जिस मोहल्ले में रहते हैं, हर तरह के आदमियों, ख़ासकर साहित्य के नशेबाज़ो को उनको तलाश रहती हैं। हँसी-ठहाके, ऊँची आवाज़ में बहस, किसी की नक़ल, बच्चों में चहल, कभी ग़ुस्से में धारा प्रवाह भाषण और सुनने वाले सन्नाटे में, और कभी ख़ुद कुछ मिनटों को चुप, क्योंकि मुँह में नया पान जमाया है—सोने का समय छोड़कर नागरजी ज़्यादातर बातें ही किया करते हैं और जब दूसरे नहीं होते तब काग़ज़ पर क़लम चलाते हुए अपने पाठक से बात करते हैं। उनमें एक जन्मजात कला है कि वे हर तरह की मंडली में घुल-मिल जाते हैं— सिर्फ़ विद्या या धन के मद में भूले हुए, गंभीरता का ढोंग रचाने वाले से उनकी पटरी नहीं बैठती।

    पारिवारिक संस्कारों के कारण वे हैं बिगड़े हुए रईस। उनके पिता बैंक के उच्च अधिकारी थे और नागरजी ने बचपन में धन का वैभव देखा है। अब उनके रईसी ठाठ में एक क़दीमी हवेली है जिसमें किराया देकर वे रहते हैं, टेलीफ़ोन है, कुछ पुराने युगों की मूर्तियाँ और र्इंटें और कुछ बेत और छड़िया। उनकी एक ख़ूबसूरत छड़ी पंतजी ले गए, तब से वे अपने संग्रहालय के प्रति विशेष सतर्क रहते हैं। उनका पान का बटुआ और खद्दर का कुर्ता-पाजामा उनकी सज- धज का ज़रूरी हिस्सा है। लेकिन मैंने उन्हें चूड़ीदार पाजामा और शेरवानी में कभी नहीं देखा। जाड़े में बंद गले का कोट अलबत्ता पहन लेते हैं, कभी-कभी सर पर कनटोप भी लगाते हैं। इधर बरसों से उन्हें गाँधी टोपी पहनते नहीं देखा। यानी उनकी सजधज नेता-मार्का रईस से एकदम अलग है।

    चेहरे में आँखें ही आँखें हैं—एकदम घनी काली भौहें और बड़े पोटो में भौरे जैसी काली पुतलियाँ। इन आँखों में केवल एक ही भाव छलकता है, ढाई अच्छर वाला प्रेम का भाव। घृणा, क्रोध, उदासी आदि के भाव उनके ओठों पर खेलते हैं; आँखें तटस्थ रहती हैं। जब ओठों पर इन अस्थायी भावों की क्रीड़ा समाप्त हो जाती है, तब आँखें फिर मुखर हो उठती हैं।

    नागरजी का हाथ देखिए, तो एकदम दुबला-पतला, उनके गोल, भूरे चेहरे से एकदम उल्टा, विश्वास हो कि यह क़लम चलाने का परिश्रम भी करता होगा। नागरजी अपना बहुत-सा साहित्य बोलकर। लिखाते रहे हैं, फिर भी बलकम ख़ुद लिखे हुए सफ़ों की तादाद कम नहीं वैसे हाथ-पैर दोनों मज़बूत हैं, ख़ासतौर से पैर। आगरे में गोकुलपुरे मोहल्ले की अपनी ससुराल से चले। बातें करते हुए मथुरा वाली सड़क पर रेलवे क्रॉसिंग तक पहुँच गए। वहाँ अमरूद खाए, फिर बोले— चलो सिकंदरा देख लिया जाए। सिकंदरा में बंदरों की उछल-कूद देखने और प्रसंगवश सिनेमा के अनेक अभिनेताओं की आलोचना करने के बाद बोले—चलो कैलास भी हो लें, देखें बरसात में जमुना का क्या रंग है! वहाँ पहुँच कर मेरी जेब में जितने काग़ज़ थे, उनकी नावें बना कर जमुना में तराते रहे। उस दिन साथ में उदीयमान लेखक शाह नसीर फ़रीदी भी थे। काफ़ी तगड़े आदमी हैं। लौटने पर जब पूछा कि कल घूमने चलेंगे, तो फ़रीदी साहब ने कहा—ऐसा घूमना आपको ही मुबारक हो; हमने एक ही दिन में भर पाया। (यानी वे पंद्रह सोलह मील की सैर के लिए तैयार थे।)

    एक दूसरे उदीयमान नक्षत्र राजेंद्र यादव के साथ जब हम लोग दक्षिण-यात्रा के लिए निकले तब यह तय हुआ कि हर आदमी अपना सामान ख़ुद लादकर चलेगा, स्टेशनों पर क़ुली किया जाएगा। नागरजी का झोला सबसे भारी था, क्योंकि खद्दर के कपड़े जल्दी मैले होते थे; हम दोनों की अपेक्षा नागरजी ने ही ज़्यादा अदद रखे थे। कपड़ो के अलावा झोले में ओढ़ने-बिछाने का सामान भी था। यह सब सामान पीठ पर लादकर उन्होंने क़ुली की मदद के बिना ही सारा सफ़र तय किया।

    उनके शरीर में भूख सहने और भूखे रहकर भी चलने और काम करने की जितनी ताक़त है उतनी विरलो में होगी। बंबई में उन्होंने चाय-स्लाइस पर बहुत दिन काटे हैं। ‘ये कोठेवालियाँ’— में उन दिनों की एक झलक है। बंबई में एक बार किसी कारणवश उन्होंने 28 दिन तक उपवास किया था। 20 जून, 1947 के अपने कार्ड में उन्होंने लिखा था “उपवास कल अट्ठाइस रोज़ बाद टेगा। पंतजी इलाहाबाद जाने से पहले मुझे अन्न खाते हुए देखना चाहते हैं। उनका प्रेमपूर्ण आग्रह मानकर मुझे अपने को सज़ा देने के लिए मालूम कौन-सा सख़्त तरीक़ा सोचना पड़ता। ख़ैर, ज़िद रही, ज़िद भी गई।” इस बयान से पाठक समझ लेंगे कि नागरजी ने उपवास स्वेच्छा से किया था।

    स्वभाव से वे काफ़ी ज़िद्दी हैं। पहले मैं बहस करके अपनी बातें— जो हमेशा सही होती थीं— मनवाने की कोशिश करता था। जब मैं समझता था नागरजी को मैंने तर्कों की ज़ंजीर से बाँध लिया है, तभी नागरजी ऐसी तर्कातीत बातें कहकर ज़ंजीर तोड़ देते कि मैं उनकी शक्ल देखता रह जाता। एक बार हिंसा-अहिंसा पर देर तक उनसे बहस हुई। नागरजी को ठेलता हुआ मैं उस कोने में ले गया, जहाँ उन्होने घोषित किया कि सभी हिंसा जीवनी-शक्ति का प्रयोग है, यही नहीं वे उसका स्वागत करते हैं, इससे भी बढ़कर यह कि हिंदु-मुस्लिम दंगों में प्रकट होने वाली हिंसा और शोषण का नाश करने के लिए की गई हिंसा में कोई अंतर नहीं है और दोनों ही स्वागत योग्य हैं।

    नागरजी की ये स्थापनाएँ इतनी विचित्र थीं और उनके स्वभाव, संस्कारों और विचारों के इतना प्रतिकूल कि मैंने उन्हें काग़ज़ पर लिखा लेना ही उचित समझा, ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रूरत काम आए। पहले मैंने दो प्रश्न लिखे (1) क्या दंगे जीवनी शक्ति का प्रयोग हैं और तुम उनका स्वागत करते हो? (2) क्या तुम शोषण को ख़त्म करने के लिए क्रांति और दंगों को जीवनी-शक्ति का प्रयोग समझकर दोनों का ही स्वागत करते हो?

    इनके उत्तर में नागरजी ने विशाल आकार मे लिखा—हाँ।

    इसके बाद ज़ंजीर तोड़ने के लिए अपने उस विराट ‘हाँ’ की सूक्ष्म व्याख्या इस प्रकार लिपिबंद्ध की: “दंगे जीवनी शक्ति का प्रयोग हैं। स्वागत इस दृष्टि से करूँगा कि मनुष्य रूप (रूप के लिए नागरजी ने अंग्रेज़ी में लिखा है फ़ार्म) में जीवन अपने विकास के क्रम से बंधा हुआ [आज प्रायः संपूर्ण जाति (यहाँ जाति की विशालता प्रकट करने के लिए उन्होंने एक अंडाकार चक्र बनाया है) जो सारी दुनिया पर छाई हुई है] आज इस दिन तक पहुँचा है, उसके संस्कारों ने उसे यह चेतना दी है कि इस प्रकार की अनैतिकता और अराजकता—यह चाहे एक घर में हो, एक जाति, एक देश वग़ैरा-वग़ैरा-किसी रूप में भी हो, सदा आनंद और शांति के लिए घातक होती है। आनंद और शांति ही जीवन का चरम और परम—जो शब्द भी हो (मेरा मतलब यह है कि जो ऊँची से ऊँची महत्त्वाकांक्षा होती है) के लिए वह जीवित रहती (अंग्रेज़ी मिश्रित क्रिया लिखी है—एक्ज़िस्ट करती) है।”

    यानी नागरजी आनंद और शांति को जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं। हर तरह की हिंसा इस लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक होती है। और हिंसा को जीवनी-शक्ति का प्रयोग मानकर नागरजी उसका स्वागत भी करते हैं!

    ‘निराला’ जी के बाद तर्क की इस भूमि पर बात करने वाला अब कोई है, तो नागरजी!

    नागरजी पढ़े-लिखे आदमी हैं। गुजराती उनकी मातृभाषा है। हिंदी मोहल्ले की भाषा है। बंबई में रहते हुए मराठी पढ़ने और बोलने का अच्छा अभ्यास किया। विष्णुभट गोडसे की पुस्तक “माझा प्रवास” का हिंदी मे अनुवाद भी किया है। बंगला बहुत अच्छी जानते हैं, प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतच्चंद्र चटर्जी की संगत कर चुके है। अंग्रेज़ी जानते ही हैं, संस्कृत के ढेरों श्लोक कंठस्थ हैं, तमिल से भी परिचय है। साहित्यिक जीवन के प्रारंभिक दिनों में तस्लीम लखनवी के नाम से लिखते थे, जिससे बहुत से लोग—नाम के अलावा ज़बान की रवानी देखकर उन्हें उर्दू का लेखक समझते थे।

    नागरजी की विद्वता भाषाएँ जानने तक सीमित नहीं है, वे अनेक भाषाओं के साहित्य से अच्छी तरह परिचित हैं। कथा-साहित्य तो वे पढ़ते ही हैं, उसके अलावा पुरातत्व और इतिहास से उन्हे ख़ास दिलचस्पी है। वे एक ख़ानाबदोश, ग़ैर-अध्यापक विद्वान् हैं जिनका दिमाग़ अद्भुत जानकारियों का पिटारा है।

    एक कार्ड में परम उत्साहित होकर लिखते है “चोरी करो, डाका डालो, भीख माँगो, पर डी० डी० कोसाम्बी का ‘ऑरीजिन आव ब्रह्मन गोत्राज़’ अवश्य पढ़ो।” (बंबई 8 मार्च, ‘52)

    ब्राह्मण गोत्रों के संसार से वे अवध के नवाबों की दुनिया में पहुँच जाते हैं और इतिहास तथा जनश्रुतियों का तालमेल बिठाते हुए लिखते हैं “मछली के संबंध में गार्डन आव इंडिया नामक पुस्तक में पढ़ा कि प्रथम नवाब सआदत ख़ाँ यह निशान लाए थे, उन्होंने लखना, अहीर की गढ़ी को यह नाम दिया। एक यह किंवदंती पहले सुनी थी कि मच्छी भवन में 26 कमरों के दरवाज़ों पर 52 मछलिया बनी थीं, उसी से, यह नाम पड़ा। लेकिन एक बात है, सआदत ख़ाँ ईरानी शिया इसे कहाँ से लाए, मुग़लों के निशान से एक, ‘माही’ भी है, पर ये माही, सीधी होती है। मेरा विश्वास है ये अवध, से सआदत ख़ाँ से पुरानी है।” (लखनऊ, 9 अक्तूबर, ‘56)

    नागरजी को इतिहास से प्रेम है और इतिहास में भारत के इतिहास से, भारत के इतिहास में अवध के इतिहास से और अवध के इतिहास में, राजा बेनीमाधो और हज़रत महल के इतिहास से उन्हें विशेष प्रेम है। अवध के इतिहास की जितनी गहरी जानकारी नागरजी को है उतनी, मेरी परख के अनुसार, किसी इतिहासकार को नहीं है। जानकारी के अलावा उनकी मर्म-दृष्टि तथ्यों की तह के नीचे सत्य की भागीरथी का पता उस सहज बुद्धि से लगा लेती है, जो उनके कलाकार की विशेषता है।

    ‘शतरंज के मोहरे नाम का ऐतिहासिक उपन्यास लिखते हुए उन्होंने एक सदी पहले के इतिहास के बारे मे लिखा था ‘उपन्यास का पहला परिच्छेद मैंने सन् 1822 ई० में—ग़ाज़ी उद्दीन हैदर के काल में—देखा है। मुझे अपने देश की दशा देखने को मिल जाती है। गदर अंग्रेज़ों की सेना में हुआ, क्रांति अवध, बुंदेलखंड और बिहार के किसानों और स्त्रियों में उदय हुई। गदर में सामंतों की नेताशाही का अंत हुआ। उसे पूरे रंग में देखना मैंने आवश्यक समझा, इसलिए कथा का सूत्र उस काल में उठाया है जब शाह अवध के बेटे नसीरुद्दीन हैदर का बेटा हुआ है। दादा कहता है ये मेरा पोता नहीं। दादी पोता कहती है। बाप कभी कहता है, कि मेरा बेटा है, कभी इंकार करता है। इस राजनीति में वह औरत जो बच्चे की माँ है—समाज की फ़ब्तियों का शिकार है। भैयो, लक्ष्मीबाई और हज़रतमहल, कानपुर की तवायफ़ें, अवध, बुंदेलखंड और जगदीशपुर की स्त्रियाँ’—कुछ यूँ ही निकल पड़ी होंगी। जाने किन-किन अत्याचारों की घुटन विद्रोह का एक ज़बर्दस्त बहाना पाकर दुर्गा रणचंडी बन निकली है। देखो यार, मेहनत अपनी, आगे राम मालिक है।” (लखनऊ, 31 दिसंबर, ‘56)

    इतिहास में नागरजी को देश की त्रस्त जनता के दर्शन होते हैं। उनकी निगाह समाज के उन वर्गों पर जाती है, जिनमें विद्वान् लोग वीरता की कल्पना भी नहीं करते। स्त्रियों की समस्याओं, उनकी अपार शक्ति और वीरता, उनके रीति-रिवाज़ और विश्वासों के वे अनुपम चितेरे हैं। वर्तमान समाज की व्यापक जानकारी के बल पर वे इतिहास को परखते हैं और इतिहास की परख के बल पर वे वर्तमान का तानाबाना सजाते हैं। अवध से उनका प्रेम देखकर ईर्ष्या होती है। ‘गदर के फूल’ जैसी पुस्तक वही लिख सकते थे। अठारह सौ सत्तावन में जहाँ लड़ाइयाँ हुई थीं, वहाँ जाकर, बूढ़ों को खोजकर, उनसे किंवदन्तियाँ संग्रह करके, बोली-बानी की सजीव नक़ल करते हुए, जीवित पुरुषों के रेखाचित्रों से इतिहास की स्मृतियों का समन्वय करके नागरजी ने इतिहास-दर्शन के साथ ललित कला के आनंद की सृष्टि भी की है। जिस वर्ष वह पुस्तक लिखी थी, उन्होंने एक पत्र में अवध का यह मूल्यांकन किया था: “1857 ई० में अवध देश (की) सब नाड़ियाँ छूट जाने के बाद भी भारत का वन कठोर कोमल फूल-सा हृदय बन कर धड़कता रहा।” (लखनऊ, 25-26 अप्रैल, ‘57)

    नागरजी में सबसे बड़ा गुण यह है कि वे अपने पात्रों मे घुलमिल कर अपने को खो देते हैं। उनका कलाकार दूसरों के अस्तित्व में ही अपने को पहचानता है। वे पात्रों के नख-शिख, बोली-ठोली की विशेषताओं के अलावा उनके मन में बैठकर उनकी आशाओं-आकांक्षाओं के साथ-साथ लेते, दुख सहते और संघर्ष करते है। नागरजी की ससुराल और ननिहाल आगरे में हैं। ससुराल की बैठक की छजली पर जमने वाले गोकुलपुरे के ठठेरी की बातचीत सुनकर उन्होंने यहाँ की लोक संस्कृति को आत्मसात कर लिया है। यहीं की उपज है ‘सेठ बाकेमल’ जिसमें बास्सा साजहा ने अपनी मलिका मुमताज़ महल से कहा था—

    “रोवें मती ना मेरी जान, तेरी आँखों का सुरमा बहा जाए है।”

    जिस प्रतिभा से लोक-कथाएँ गढ़ी जाती हैं, नागरजी के पास उसका अक्षय भंडार है। वे सुनते हैं पढ़ते हैं, पात्रों की तरह बोलने लगते हैं, यथार्थ जीवन और कथा भेद मिट जाता है जीवन में इतना रस है, लोगों की बातें इतनी दिलचस्प हैं, उनका जीवन इतना रोचक है, नागरजी उसी में रम जाते हैं। गली-टोले मोहल्ले, नौजवान, बूढ़े, प्रौढ़ा, मुग्धा, स्वकीया, परकीया, बुद्धिजीवी, व्यवसायी— इनके ज़ख़ीरे हैं उनके कथा साहित्य में। ‘बूँद और समुद्र’—लखनऊ के सामाजिक जीवन का चंद्रकांता, ‘शतरंज के मोहरे’—इतिहास में नागरजी की ऐयारी का नमूना, ‘सुहाग के नूपुर’—दक्षिण प्रदेश के प्राचीन जीवन की भीनी सुगंध ‘महाकाल’—अकाल के भयावह दृश्य, नवाची मसनद’—लखनऊ के नीम सर्वहारा क़ादिर पीरू की दुनिया, सेठ बाकेमल’—आगरे की दालमोठ की तरह एकदम स्थानीय रंग लिए हुए पचीसों रेखाचित्र, कहानियाँ, व्यंग्यकथाएँ—दुर्भाग्य से नागरजी का समस्त साहित्य एक जगह प्रकाशित नहीं हुआ जिससे उनके अधिकांश पाठक उनकी कड़ी मेहनत, उनके साहित्य की विविधता, प्रसार और प्राणवत्ता का अंदाज़ नहीं लगा पाए। यद्यपि यह सर्वसम्मत सत्य है कि वे हास्यरस के लेखक हैं तथापि हास्य के अलावा उन्हें अन्य अनेक रस भी सिद्ध हैं। हास्य और शृंगार का घनिष्ठ संबंध तो भरत मुनि के ज़माने से प्रसिद्ध है। नागरजी मेरी मतिराम ग्रंथावली वापस नहीं करते, इस कारण कि उसमें वे नायिका भेद का अध्ययन कर रहे हैं। वात्स्यायन के कामसूत्र की प्रशंसा करना आरंभ करते हैं, तो मालूम होता है, आदिकाव्य की व्याख्या कर रहे हैं! अद्भुत, वीभत्स और करुण में वे प्रायः अद्वितीय है। ‘बूँद और समुद्र’ की ताई और उस शमा के चारों तरफ़ उड़ने वाले परवाने मेरी बात का प्रमाण हैं! ‘ये कोठेवालियाँ’ में बद्र-ए-मुनीर के गले हुए विकलांग तन का चित्र और लूलू तथा उसकी गृहस्थ वेश्या की कहानी मन को ऐसा झकझोरती हैं कि कला और रस की कल्पना ही हवा हो जाती है। इसमें संदेह नहीं, नागरजी जहाँ बड़े हैं, वहाँ वे विश्वसाहित्य के बड़ों-बड़ों में हैं।

    नागरजी को जब याद जाता है कि वे हाई स्कूल पास हैं, यह ज़माना विश्वविद्यालय के डिग्री प्राप्त कलाकारों का है, उन्हें कुछ मनोवैज्ञानिक या समाज शास्त्रीय गहराइयों में भी उतरना चाहिए तभी सज्जन, महिपाल आदि बुद्धिजीवियों के गवेषणापूर्ण व्याख्यान आरंभ हो जाते हैं और इन पात्रों के भाषण से संतुष्ट होकर नागरजी स्वयं भी मंच पर उतर आते हैं और अपनी तर्कपूर्ण (अर्थात् तर्कातीत) शैली में कला को मूक, निरुपाय, मर्माहत कर देते हैं, और चूँकि ज़िद्दी हैं। क्या मजाल, कोई ‘बूँद और समुद्र’ का एक वाक्य भी उनसे कटवा दे!

    जब उन्हें अपने अस्तित्व का बोध होता है और हाई स्कूल पास वाला भाव चला जाता है, तब वे ऐसे नैसर्गिक कलाकार की तरह व्यवहार करते हैं कि उनकी हर बात में, हर शब्द में रस रहता है। बंबई में पहली शाम जो मैंने उनके साथ बिताई, वहाँ के फ़ुटपाथों की ज़िंदगी के जो क़िस्से उन्होंने सुनाए, बंबई में भटकने, सिनेमा की दुनिया में सर उठाने के संघर्ष की जो कहानी सुनाई, वह सब जीवित साहित्य थी। रूस से लौटने पर कुछ मित्रों के बीच वे तीन घंटे तक अपने संस्मरण— हास्य रस के साथ विभिन्न व्यक्तियों के रेखाचित्र, बीच-बीच में नाटक का मज़ा उनके संवाद और अभिनय में—सुनाते रहे और श्रोता सब मंत्रमुग्ध हो गए उनकी स्मृति पर, अनुभव को सजीव करने की कला पर, उनकी सहज वर्णन शैली पर। हाँ, कहीं आपने हिंदी के मामले में नागरजी को अनजाने भी छेड़, दिया, तो दो-एक आप समझेंगे, हिंदी के परम शत्रु आप ही हैं।

    वैसे नागरजी को क्रोध कम आता है। क्रोध आना चाहिए, इस बात को वे जानते हैं। क्रोध जब आता है तब वे विवश हो जाते हैं, लेकिन थोड़ी देर के लिए। ज़्यादा समय तक क्रोध आता है उन्हें अपने ऊपर, यह सोचकर कि क्रोध आया क्यों था। दरअसल क्रोध ही नहीं, अन्य भाव भी गड़ी गहराई से घुमड़ते हुए उठते हैं और धमाके के साथ फूटते हैं। कहना चाहिए, उन्हें जब-तब भावात्मक विस्फोट होता है, और मेरी समझ में उनके सहज, सरस विनोदी स्वभाव को स्थायी भाव का रूप देने में ये विस्फोट बड़े उपयोगी सिद्ध होते है। अस्थायी भावों की गैस निकल जाने के बाद उनका चित्त फिर पहले की तरह शांत और निर्मल हो जाता है।

    नागरजी हिंदी के उन थोड़े-से कलाकारों में हैं, जो साहित्यिक जीवन के प्रारंभ में दो-एक अच्छे उपन्यास लिखकर बुझ नहीं गए। उनकी कला बराबर निखरती रही है, उनके अनुभवों का पिटारा बराबर भरता रहा है, उनकी समझ बराबर पकती रही है। वैसे तो कला उनके समस्त परिवार में व्याप्त है—एक भाई प्रसिद्ध चित्रकार है, दूसरे भाई फ़ोटोकार। दोनो लड़के लेखक-फ़ोटोकार-अभिनेता सब कुछ हैं। बड़ी लड़की सुंदर रेखाचित्रों में मोहल्ले की कहानियाँ लिख चुकी है, छोटी लड़की अभी विद्या प्राप्ति की सीढ़ियों पर है। नागरजी के घर का वातावरण पंचायती है। यद्यपि वे भाइयों में सबसे बड़े हैं, कुलपति हैं, फिर भी उनका रोब-दाब जितना मित्रों पर है, उतना घर वालों पर नही। मातृ सत्ताक समाज व्यवस्था में अनेक गुण हैं और श्रीमति प्रतिभा नागर ख़ानाबदोश विद्वान् पंडित अमृतलाल नागर के जीवन में अडिग शिला के समान हैं। अत्यंत प्राचीनता प्रेमी परिवार में पलकर भी उन्होंने अदम्य साहस से लखनऊ में वैश्या जीवन बिताने वाली बहनो के उद्धार के लिए अथक परिश्रम किया है। अब यदि यह परिश्रम बंद हो गया है, तो इसका श्रेय नागर जी को है, प्रतिभाजी को नहीं। गृहस्थी में जो हारी-बीमारी आती है, उसका सामना प्रतिभाजी को ही अधिक करना पड़ता है, नागर जी का ज़्यादा समय चिंता करने में बीतता है। वे जब कभी-कभी नागर जी को मेरे सामने डाँटती हैं या मुस्कुराते हुए उनकी शिकायत करती हैं, तब नागर जी की मुद्रा देखते ही बनती है और मुझे तो इसी जीवन में स्वर्गिक आनंद की प्राप्ति हो जाती है।

    नागर जी सैलानी जीव हैं। खुले हवादार कमरों में भी बंद रहना उन्हें पसंद नहीं। वे अधिकांश भारत का भ्रमण कर चुके हैं और एक बार विदेश यात्रा भी कर आए हैं। भांग का समुचित प्रबंध होने से जल्दी ही लौट आए थे। लोगों में मिलने में उन्हें सहज आनंद मिलता है। इस मिलने-जुलने के साथ ये हवा में सूँघते रहते हैं कि कहीं से पुरातत्व की गंध तो नहीं रही। लखनऊ में लक्ष्मण टीले को लेकर उन्होंने इतना हल्ला मचाया कि कुछ लोगों ने उनका नाम ही टीलाखोद नागर रख दिया। कठपुतलियों में लेकर नैमिषारण्य के कथा-वाचकों तक उनकी जिज्ञासा अपार है। पुराणों के बारे में उनकी जानकारी असाधारण है। उनके साथ थोड़ी देर बात करने पर भी आपको लगेगा कि आप भारत की लोक-सांस्कृतिक परंपरा के सजीव संपर्क में गए हैं। इस परंपरा में देवकी नंदन खत्री का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नौटंकी से लेकर तिलस्माती-ऐयारी-जासूसी उपन्यासों और कथा-पुराण तक उत्तर प्रदेश की जनता ने जो कुछ पढ़ा या सुना है, वह सब नागर जी ने पढ़ा और गुना है। उनके सोचने विचारने के ढंग पर, उनकी गद्य-शैली पर इस सब पढ़े-गुने की छाप है। अठारह सौ सत्तावन पर मेरी पुस्तक से प्रसन्न होकर उन्होंने लिखा था: “तुम सचमुच गदर तिलस्म के देवकी नंदन खत्री हो।” (लखनऊ; 23 मार्च, ‘58)

    साहित्य के कल्पना-लोक और आस-पास के सजीव संसार के बीच नागर जी के लिए कोई मैकमोहन रेखा नहीं है। वे आसानी से इस पार से उस पार आते-जाते रहते हैं। वे अक्सर अपने पात्रों के लहज़े में भी बातें करते हैं। नवाबी मसनद के नवाब साहब के लहज़े में : “इस समय रात के सवा नौ बजे हैं और हम उसके बिना तड़प रहे हैं।” लिख देना आवश्यक है कि नागर जी की तड़प महज़ एक किताब के लिए है जिसे उनके एक मित्र उठा ले गए थे!

    यह सुनकर कि मैंने अंग्रेज़ी में कोई किताब लिखी है, नागर जी बतर्ज़ सेठ बाकेमल फ़रमाते हैं “भैयो, तैने रंगरेज़ी में पोथी लिख मारी। तैने तो कमाल किया मेरे यार! मैं तुझे बड़ी-बड़ी स्याबासी दू हूँ। मैं तेरे को तमिल का भौत भड़िया ख़िताब दे रहा हूँ मुट्टाड। वैसे मुट्टाड तो तू सदाका है ही।” (मद्रास, 10 जून, ‘46)।

    कभी चलते-चलते देहाती लटका मार जाते हैं ‘गोहू डेढ़ सेर का हुइगा भैयन। सियाबिल राम चंद्र की जै।” (6 जुलाई, ‘48)

    नागर जी संपादक भी रह चुके हैं, ‘चकल्लस’ के, ‘नया साहित्य’ के। बंबई जैसे शहर में रहते हुए भी नया साहित्य की तरफ़ से संपादकीय तक़ाज़े में वे अपनी देहाती बान नहीं भूले ‘चिट्ठी को तार मानना, थोड़ा लिखा बहुत समझना।” (बंबई, 18 जून, ‘45)

    नागर जी बहुत अच्छे दोस्त हैं। मेरा उनका साथ तीस साल का है। बहुत सी बातों में मतभेद रहा है, अब भी है। इससे दोस्ती में फ़र्क़ नहीं आया। मित्र के रूप में उनकी एक विशेषता यह है कि कटु आलोचना करने में वे कभी नहीं झिझकते। पूछे बिना भी राय देते हैं और हमेशा दिल की बात कहते हैं। श्री भगवतीचरण वर्मा के एक उपन्यास की मेरी ध्वसात्मक आलोचना पर नागर जी ने यह टिप्पणी की थी ‘जनवाणी’ में ‘टेढ़े मेढ़े रास्ते’ की रिव्यू देखो। एक ज़बर्दस्त शिकायत भी हुई। जब तुम्हारे पास ठोस तर्कों की कमी नहीं, तब गंदी कीचड़ उछाल की टेकनीक क्यों अपनाते हो? बंबई टाकीज़ के असफल लेखक या लीडर प्रेस का इतिहास दर्शन टेढ़े-मेढ़े रास्ते से कोई संबंध नहीं रखता। तुम्हें क्यों इस क़िस्म की बहस की ज़रूरत महसूस हो? इससे कोई ख़ास मक़सद भी नहीं हासिल किया। आलोचना व्यर्थ ही अपनी तेज़ी खो बैठती है। तुम्हारे ऐसे गंभीर और विचारवान मालोचक से यह छिछोरापन पाना किसी तरह भी न्याययुक्त सिद्ध नहीं किया जा सकता। (लखनऊ, 22-29 अगस्त, ‘48)

    नागर जी जो बात कहते हैं, यह बेलौस होती है और उसे वे मुँह पर कहते हैं। मुझसे ही नहीं, बरसों से बहुतों से उनकी दोस्ती है, शायद उसका रहस्य यही है। वे अपनी पीढ़ी के तमाम लेखकों को जोड़ने वाले, और नई और पुरानी पीढ़ी के बीच की कड़ी हैं। बहुत पहले ‘चकल्लस’ के दिनों में उनका घर—‘चकल्लस’ का दफ़्तर—निराला जी, बलभद्र दीक्षित पढ़ीस, नरोत्तम नागर, ज्ञानचंद्र जैन आदि नए-पुराने साहित्यिकों के जमघट के लिए अड्डा बन गया था। तब से उनकी वह चुंबक-शक्ति बराबर बढ़ती गई है।

    और व्यवसाय बुद्धि उनमें पहले कभी रही, अब है। फ़िल्मों की दुनिया में रहे, आकाशवाणी में काम किया। हर जगह पंडितजी की आवभगत रही। लेकिन पंडितजी महास्वाभिमानी, नाक पर मक्खी बैठी नहीं कि छड़ी उठाकर फाटक के बाहर हुए। इसलिए हिंदी पर और हिंदी लेखक पर जो बीतती है, उसे नागर जी आप बीती के रूप में महसूस करते हैं। निरालाजी का, देहांत होने पर उन्होंने जो खीझकर लिखा था कि हिंदी के समस्त लेखक एक साथ, दिवंगत हो जाएँ, उसका रहस्य यही है। लेखक बनकर स्वाभिमान के साथ जीवित रहना हिंदी साहित्य संसार में ज़रा मुश्किल काम है। नागर जी सब कुछ झेलते जाते हैं। उनकी अदम्य सृजन-चेतना विघ्न-बाधाओं को पार कर जाती है, उनको क्रीड़ा-कुतूहल-वृत्ति उदासी के बादलों को बिखेर देती है, फिर भी काफ़ी दिनों से, बीच-बीच में, थकान के, पस्ती के, गिरकर चूर होने के स्वर भी सुनाई देते हैं। नागरजी पाठकों को जितना सुख देते हैं, उसके पीछे काफ़ी थकान, और उनके ख़िलाफ़ उनका अनवरत संघर्ष है।

    जिस पत्र में उन्होंने मुझे डाँट बताई है (टेढ़े मेढ़े रास्ते की आलोचना के लिए), उसमें उनकी परेशानियों और संघर्ष की झलक देखते ही बनती है। पत्नी बीमार है : “प्रतिभा को आराम करने पर मजबूर किया गया है। एक्सरे स्टूल-ब्लड परीक्षा हो गई। यूँ तो पूरी तौर पर सुरक्षित हैं, मगर कमज़ोरी से निगाह नहीं चुराई जा सकती। एक्सरे से भी यही ज़ाहिर है। घर में कामकाज की नई व्यवस्था— अंतरिम सरवार की तरह भूकंप क्षेत्र से गुज़र रही है। मगर हम बगिया लगाने पर डटे हैं भैया।”

    और नागर जी परेशानियों से लड़ते हुए खिड़की से बाहर देखते है : “बरसात में पानी चमक और साँवली सी सजी हुई हरियाली मीलों तक से अंतरिक्ष को खींचे हुए बाँध रही है। हमारे सामने कंपनी बाग़ है जो अब महात्मा गाँधी की स्मृति में ढिंढोरों के भोपुओं से महात्मा गाँधी पार्क कहलाता है।”

    फिर उन्हें चुहल सूझती है, और कुछ-कुछ नवाबी मसनद के लहज़े में बोलने लगते हैं “मलका टूरिया की मूरत उसी तरह डटी है निस्तब्ध शांत। आज भी एक बुड्डा हर गुरुवार को फूल का दोना चढ़ाने आता है। मच्छी भवन और इमामबाड़े की बुर्जियों और मस्जिद के दिखलाई पड़ने वाले हिस्से भी अपने पुरानेपन के साथ क़ुदरत से हिलमिल गए हैं। एक तरफ़ घंटाघर है—एक बड़े ही अच्छे व्यू में मूसरचंद की तरह लगता है—फिर भी अपना एक व्यक्तित्व रखता है। उसकी अपनी विशेषता है।”

    इसके बाद अचानक थकान की आवाज़ “हमारे सामने की सड़क अब थक गई है भैयो। बेहद थक गई है। गो तमाम पुरानेपन में ज़िंदगी का पुराना ढाँचा अब भी क़ायम है, मगर ज़माना बदल चुका है। सलवार, ढीले पजामे, सिंधी पंजाबी पड़ोसी, और लड़ाई मंहगाई—आज़ादी की छाप स्पष्ट है। हमारे क़ादिर पीरू अब उतने निश्चिंत और मस्त नहीं रहे। हालाँकि अब भी बर्फ़ और तंबाकू उसी तरह बिकती है, मगर चर्चे अब नहीं होते। लड़ाई का दौर दौरा हर तरफ़ है। फिर भी पुरानी फ़िज़ा कभी-कभी भूलकर बहार दिखा जाती है। एक दिन ख़याल चौबोले हो गए, एक दिन तीतरों की लड़ाई हो गई, शहज़ादी कबडिन हज करने गई तो हिना के इत्र और हारों का ज़ोर हो गया—यह सब हुआ मगर मेरी नवाबी मसनद सूनी ही रही।’

    फिर थकान की बात ‘शायद अपने में भी अब मज़ाक़ का हौसला कम पाता हूँ। मन के किसी कोने में थकान जड़ जमा चुकी है। जी चाहता है, मर जाऊँ। काम, फ़र्ज़ सब भार लगता है—हौसला बुझ गया है। फिर भी ज़िंदगी अपनी मान पर डट जाती है। बात बिगड़ने पर बनाने की इच्छा हज़ार अड़चनों से घिरी रहने पर उसे तोड़ने के लिए ज़िद के साथ आगे बढ़ती है। मगर यह चिड़-चिड़ कर हौसला बढ़ाना सच्ची स्फूर्ति और शांति नहीं देता। हर बार मन पर उस खीझ का स्थायी प्रभाव पड़ता है—बात या काम बन जाने की सफलता ऊपरी और खोखली हो जाती है, फिर भी बढ़ तो रहा ही हूँ।”

    घर की बात सोचते हैं। अपने हौसले पस्त होते देखते हैं, क़ादिर पोर, मलका टूरिया और थकी हुई सड़क देखते हैं, और नागरजी फिर आगे बढ़ चलते हैं। ये बातें सन् 1948 की हैं।

    दो साल बाद : “पैसे की समस्या मैंने समझा था कि हल हो गई, परंतु विधिना के विधान में अभी मेरे लिए बोनस छोड़कर सरी मेहनत के पूरे पैसे भी नहीं पास हुए। ख़ैर, अब इस मुस्तक़ित फ़िक्र को लेकर कहाँ तक बुख़ार चढ़ाऊँ। यह ज़रूर है कि अब इस अनिश्चित जीवन को लेकर कहीं थक गया हूँ। काम उतना नहीं कर पाता जितना कि करना चाहता हूँ। बहुत खींचना पड़ता है।” (लखनऊ, 11 अक्टूबर, ‘50)

    इस देश में वह दिन कब आएगा जव नागरजी जैसे लेखकों को खींचना पड़ेगा, जब अनिश्चित जीवन को चिंताओं से उन्हें असामयिक थकान का अनुभव होगा?

    छह साल बाद आकाशवाणी में काम करना छोड़ दिया और अपनी नई अनिश्चित ज़िंदगी पर हँसते हुए लिखा : “तुम्हारे कार्ड का उत्तर देने में आवश्यकता से अधिक विलंब हो गया। मन मकड़ी के जाल में फंसा हुआ था। चाकरी के टूटे तार को जोड़कर नया सूत कातने के लिए बंधुवर नरेंद्रजी ने बड़ा प्रयत्न किया, दोनों तरफ़ संभाला, पर गल्ल बणी नई जी। किसी डगर-चलते महाकवि ने क्या ख़ूब कहा है कि ‘दिल-फटे मिल जाएँगे हिरदै-फटे मिलते नहीं।’ दिल शब्द में रोमानियत ‘हृदय’ शब्द में असलियत। ख़ैर, थोड़ा लिखा बहुत जानना। सो, इस फेर और नए जमाव के लिए तैयारी करने में ही मन को फ़ुरसत मिली। क्षमा करना।”

    सूत, फिर सूत्रधार, फिर कठपुतली। नागरजी उसी पत्र में उमंग से कठपुतलियों की चर्चा छेड़ देते हैं। भरत के नाट्य शास्त्र, वात्स्यायन के कामसूत्र, मिस्र, यूनान और जावा की कठपुतलियों का हवाला देने के बाद वे राजपूत काल से चलते हुए शिवजी के प्रागैतिहासिक युग में पहुँच जाते हैं “एक किंवदंती मिली सुनते हैं शिवजी—योग और कलाओं के ख़ुदा—एक कठपुतली पर रीझ गए थे, उन्होंने सारे देवताओं को उसमें उतार दिया। इस तरह कठपुतली बनकर पहले देवता नाचे बाद में राजस्थान के राजा। हमारे यहाँ ‘ओढरी’ गुलाबो और ‘ब्याहता’ शिताबो का नाच भी प्रचलित है। यो आज का ज़माना ‘कठपुतलियों के नाच की भर जवानी का है। मानते हैं?” (लखनऊ, 14 सितम्बर, ‘56)

    फिर भी अनिश्चित जीवन की थकान उन्हें समय-समय पर सताती रही।

    दो साल बाद जब कुछ मित्र आगरे से ‘समालोचक’ पत्र निकाल रहे थे—नागरजी ने बराबर लिखने का वादा किया था, लेकिन वादा पूरा कर पा रहे थे। मेरे एक शिकायती पत्र के बाद उन्होंने शिष्टता का अग्निबाण फेंकते हुए लिखा था ‘डॉक्टर साहब, आपने मनो बोरियो लदा ठेला खींचने वाले बैल को देखा है कभी? चलते-चलते घूपभरी तपती सड़क पर टाग पसार कर लेट जाए तो, आप क्या कर लीजिएगा? संदेह कीजिए, मारिए, गालियाँ दीजिए, भीड़ लगाकर सबके सामने उसे टुकराइए—वह उठ नहीं सकता, हाफ़-हाफ़ जाता है, आराम चाहता है। इस समय तुम्हारी जैसी अनेक शिकायतों भरी चिट्ठियाँ मेरे पास हैं। बंबई से चि० रतन का अचरज भरा, प्रश्न भरा पत्र आया है। कलकत्ता के एक संपादक मित्र ने लिखा है, ‘क्या आप किसी के बहकावे में आकर हम को पत्र का उत्तर नहीं देते, रचना नहीं देते।”

    इसके बाद एकदम हैमलेट की आवाज़ में “तुम्हारी क़सम, हम इस समय हाफ़-हाफ़ कर जी रहे हैं। उसे ही बटोरकर एनर्जी बनाते हैं लिखते अवश्य हैं पहले उपन्यास फिर रफ़्ता-रफ़्ता एकाध फ़रमाइश।”

    और पत्र के अंत में : “बड़ी महंगाई है रामविलास, हमें ‘महाकाल’ याद रहा है, उसके चित्र चारों ओर डोल रहे हैं। महंगाई एक प्रश्न बन गई है।” ( लखनऊ, 9 सितम्बर, 258)

    यह सब तो आपसी पत्र व्यवहार में ‘सारिका’ ( सितंबर 1962) के एक लेख में उन्होंने सरेआम क़बूल किया: “अब तो यह जानता कि आत्महत्या कर नहीं सकता, इसलिए नियत आयु तक जीना है। काम करूँ तो जीऊ कैसे?”

    नागर जी अभी सिर्फ़ अड़तालीस साल के हैं। थकान और हंफनी की बातें असामयिक हैं, लेकिन निराधार नहीं हैं। थकान मानसिक है, शारीरिक भी, लेकिन उनकी रचनात्मक प्रतिभा पर उसकी छाया भी नही पड़ती। उनके साहित्य की ताज़गी बढ़ रही है, घटने का सवाल नहीं है। उन्होंने जितना, जो कुछ लिखा है, उससे अधिक और अच्छा अभी और लिख सकते हैं और यूरोप की भाषा में जिन्होंने गद्य में जो कुछ अच्छे से अच्छा लिखा है, उससे स्पर्धा करने की ताक़त नागर जी में है। इसीलिए मुझे उनके जीवन में ऐसा निजी और गोपनीय कुछ नही दिखाई देता जिसका संबंध कहीं कहीं हिंदी भाषा और साहित्य की प्रगति से हो।

    उनकी कुछ परेशानियाँ तो ऐसी हैं, जो हमारे समाज के प्रायः सभी आदमियों के हिस्से में आती हैं। किंतु इनसे अधिक झकझोरती हैं, उन्हें उनके अनिश्चित जीवन की परिस्थितियाँ— स्वाधीन भारत में एक स्वाभिमानी, नाविक सकने वाले, समझौता कर सकने वाले हिंदी लेखक के अनिश्चित जीवन की परिस्थितियाँ। यहाँ उनका जीवन बहुत से हिंदी लेखकों की ज़िंदगी का प्रतीक बन जाता है। शायद यहाँ हम उनका भार हल्का करने के लिए कुछ कर भी सकते हैं। हिंदी लेखक बोनस नहीं चाहता, महज़ अपनी मेहनत की मज़दूरी चाहता है, इंसाफ़ और ईमान से दी हुई मज़दूरी क्या ही अच्छा हो, बड़े-बड़े प्रकाशक हर साल यह भी प्रकाशित कर दिया करें कि अपने लेखकों को रायल्टी के हिसाब में उन्होंने क्या दिया। शायद हिंदी का विशाल बाज़ार देखते हुए उन्हें कुछ धर्म आए, शायद लेखक ही ख़ुद सहकारिता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पंचतंत्र
    • रचनाकार : रामविलास शर्मा
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 1980
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