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बहुत वर्षों के बाद अबकी बार मैं भारत से इंगलैंड आया हूँ और इस बार मुझे माँ की जितनी याद आई है, उतनी पहले कभी नहीं आई थी।

आज इस बात को लगभग पच्चीस वर्ष बीत गए। फ़रवरी सन् 1904 में जाड़े के दिन थे। बर्फ़ पड़ रही थी। आकाश में भयंकर अंधकार था। सर्दी का क्या पूछना! इसके अगले दिन संध्या के समय मैंने माँ से भारतवर्ष आने के लिए आज्ञा माँगी थी। घुटने टेककर में उसके सम्मुख प्रार्थना करने के लिए उसी तरह बैठ गया, जैसे उस समय बैठा करता था, जब मैं छोटा-सा बच्चा था। प्रतिदिन प्रातः और सायंकाल उसके सामने ऐसे ही प्रणाम किया करता था। वह बीमार-सी थीं। दुर्बल भी। उसे घर पर छोड़कर हज़ारों मील दूर भारत को जाना था। उसका वियोग मेरे हृदय को अत्यंत दुखित कर रहा था। थोड़ी देर के लिए मेरे जी में बड़ा पछतावा रहा कि मैं उसको छोड़ कर कहाँ इतनी लंबी यात्रा पर जा रहा हूँ! उसका स्वास्थ्य ठीक था और मेरे मन में रह-रह कर संशय उठता था कि अब अपनी माँ के दर्शन फिर कर सकेंगा। यह उसके अंतिम दर्शन हैं। रेल में शीत के मारे ठिठुरा हुआ बैठा, चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न कर रहा था। जीवन में यात्राएँ तो बहुत की थीं, पर इतना दुःख कभी हुआ था। बार-बार यही बात मन में आती थी कि कहीं माँ को वृद्धावस्था में घर छोड़कर भारतवर्ष जाने में भूल तो नहीं की!

उस समय मुझे दो बातों से धीरज बंधा था। एक तो यह कि मैं समझता था कि मैं परमात्मा के आदेश से, जो मुझे अपने अंतःकरण में सुनाई पड़ता था और जिसकी मैं उपेक्षा नहीं कर सकता था, भारत जा रहा हूँ। दूसरी बात यह कि स्वयं मेरी माँ ‘कर्तव्य’ को सबसे बढ़कर समझती थीं। वह सदा हम सबको सिखाया करती थी कि बेटा, पहले अपना कर्तव्य-पालन करो, पीछे कुछ और। जिस संध्या को में अंतिम प्रणाम करके माँ से विदा हुआ, उस समय चुपचाप उसने आँसू बहाए। किंतु प्रकट में वह मुझे निरंतर उत्साहित ही करती रही। जिस दिन मैंने उससे कहा था, “माँ! मैं प्रभु ईसा के धर्म-प्रचार करने के लिए भारतवर्ष जाऊँगा।” तो उसने यही कहा, “बेटा, अवश्य जाना। मैं आशीर्वाद दूँगी।” मेरी माँ की अपने धर्म में प्रबल श्रद्धा थी और धर्म के लिए वह प्रेम-पूर्वक अपना सर्वस्व अर्पित कर सकती थी।

इसके बाद वह बहुत दिनों तक जीवित रही और मैंने उसे अंतिम प्रणाम सन् 1912 में किया।

इस बार इंगलैंड आकर मैंने उन सब स्थानों को, जहाँ मैं अपनी बाल्यावस्था में रहा था और जहाँ मैंने अपने बचपन के खेल खेले थे, एक-एक करके देखा।

मेरी समझ में यह बात अब पहले की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट हो उठी है कि वास्तव में कैसे निर्धन कुटुंब में मेरा लालन-पालन हुआ था। मेरे पिताजी बकिंघम के दो मकानों में रहे थे। पहले एक में, फिर उसके बाद दूसरे में। ये दो मकान दो भिन्न-भिन्न गलियों में थे और बहुत छोटे थे। मेरे बहुत-से भाई-बहन थे। इतने बाल-बच्चों को लेकर छोटे-से घर में रहना, वस्तुतः मेरे माता-पिता के लिए बड़ा कष्टदायक रहा होगा। मेरी समझ में आता ही नहीं कि तेरह बाल बच्चों वाला परिवार इन छोटे घरों में कैसे रहा होगा?

जब मेरे पिताजी मुझे अपने साथ लेकर गाँवों को जाते थे तो उस समय मैं ख़ुशी के मारे पागल हो जाता था। माँ तो शायद ही कभी साथ चलती, क्योंकि उसे घर के काम-काज से ही फ़ुरसत नहीं मिलती थी और उन कामों को अधूरा छोड़कर घर से बाहर निकलना उसे पसंद नहीं था। इन घर-गृहस्थी के कामों के बोझ से वह पिसी जाती थी; पर आत्म-त्याग की मात्रा उसमें इतनी अधिक थी कि अपने सुख और आनंद का तो उसे कभी विवार भी नहीं आता था।

आज पचास वर्ष पहले की कई घटनाएँ ज्यों-की-त्यों मेरी आँखों के सामने ऐसी स्पष्ट दीख पड़ती हैं, मानो किसी ने चित्र खींच दिया हो।

पुराने मकान को छोड़कर मेरे पिताजी जिस घर में आए, वह कुछ बड़ा था और उसमें बड़ा सुभीता था। हम बच्चों के लिए तो ईश्वरीय देन थी उस मकान के पीछे की छोटी-सी वाटिका।

उस नए घर की एक घटना मुझे भली प्रकार स्मरण है। वह यह कि हमारे घर से सात मील की दूरी पर एक बाग़ था, जिसका नाम था ‘सट्टन पार्क’। उसमें कई छोटे-छोटे तालाब थे। वहाँ कितने ही पेड़ तथा झाड़ियाँ थीं और प्रकृति वहाँ स्वतंत्र रूप से अपना रंग दिखला रही थी। एक दिन मैं अपने बड़े भाई के साथ इसी उपवन की सैर के लिए घर से निकल पड़ा। उस समय मैं बारह वर्ष का था; पर दुर्बल होने के कारण सात मील की यात्रा मेरे लिए लंबी थी। एक दलदल के ऊपर होकर हम लोग निकले। बालक तो थे ही, इसी तरह आपदाओं में पड़कर आनंद लेना हमें अत्यंत रुचिकर था। बड़ी देर तक हम इस बग़ीचे में ऊधम मचाते रहे। फिर मुझे एक पेड़ पर किसी जंगली चिड़िया के घोंसले में तीन अंडे दिखाई पड़े। वे अंडे कुछ-कुछ नीले रंग के थे और उनपर छोटे-छोटे काले धब्बे थे। मैंने ऐसे अंडे पहले कभी नहीं देखे थे। आश्चर्य के साथ मैंने उन अंडों को उठाकर अपनी टोपी में रख लिया और भाई के साथ घर को वापस चल दिया। सात मील चलते-चलते थक गया। जब थकावट कुछ दूर हुई तो मैंने वे तीनों अंडे माँ को दिखलाए और कहा, “देखो माँ, कैसे बढ़िया रंग के अंडे हैं!” मुझे आशा थी कि माँ उसकी प्रशंसा करेंगी; पर उसने तो दूसरी ही बात कही—

“अरे चार्ली, तून यह क्या किया? सोच तो सही—वह बेचारी चिड़िया अपने घोंसले को लौटकर आई होगी और जब उसे मालूम हुआ होगा कि कोई उसके सभी अंडे चुरा ले गया तो उसे कितना दुःख हुआ होगा। कल्पना करो! वह इसी समय अपने नन्हें-से नीड़ के चारों ओर कैसे मंडरा रही होगी और दुःख भरे स्वर में चिल्ला रही होगी। वैसे तो इन्हें लाने की आवश्यकता ही नहीं थी; और यदि लाना ही था तो एक अंडा ले आते! कम-से-कम दो तो उस बेचारी के लिए छोड़ आते। तुम तो तीनों ही उठा लाए। प्यारे बच्चे, तूने यह क्या किया?”

माँ की बात सुनते ही मेरे मस्तिष्क में उस चिड़िया का चित्र खिंच गया। कैसे वह अपने घोंसले के चारों ओर चक्कर काट रही होगी! यद्यपि मैं थका हुआ था, पर उस रात मुझे नींद नहीं आई। बाद में क्या हुआ, इसकी मुझे ठीक-ठीक याद नहीं; पर मेरा विश्वास है कि मैं अवश्य ही दूसरे दिन प्रातःकाल उन अंडों को लेकर उस उपवन में गया होऊँगा। पर संभवतः मुझे वह घोंसला नहीं मिला और इसलिए मेरी आत्मा अपने अपराध के बोझ से मुक्त हो सकी। उस घटना की स्मृति मेरे चेतन मस्तिष्क पर से मिट जाने पर भी वह भीतर जमकर बैठ गई। वह मर्मांतक पीड़ा जो अपनी माता के वचन सुनकर मुझे हुई थी, मैं अबतक नहीं भूला।

वह दृश्य आज भी मेरी आँखों के सामने है। मानो माँ ने मुझे अपने पास बिठला लिया है और बड़े कोमल स्वर में तथा मधुर डाँट के साथ, जो मेरे लिए सबसे बड़ी सज़ा थी, कह रही हैं, “अरे, चार्ली, तूने यह क्या किया?”

****

अपनी बाल्यावस्था में एक सबसे सुंदर बात जो मुझे जान पड़ती थी वह यह थी कि मेरे पिताजी माँ को अत्यंत श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। वैवाहिक जीवन में प्रायः स्त्री-पुरुष के स्वभाव तथा प्रकृति में अंतर हुआ करते हैं। स्त्री की प्रकृति कुछ और होती है, पुरुष की कुछ और। मेरे पिताजी सदा से भावुक, जोशीले और बड़े प्रेमी व्यक्ति थे। उदार तो इतने कि उनकी उदारता फ़िज़ूलख़र्ची की सीमा तक पहुँच जाती थी। जब कभी कोई दुःख-भरी कहानी लेकर उनके पास पहुँचता था तो वे उसपर विश्वास करने के लिए सदा तैयार-से बैठे रहते थे। शिष्टता तथा मान-मर्यादा के लिए भी उनके दिल में पर्याप्त स्थान था। अत्याचार-पीड़ित दीन-दुखियों का पक्ष-समर्थन करने के लिए वे सदा इच्छुक रहते थे।

मेरी माँ पिताजी के इन भावों को समझती थीं और उसके हृदय में भी ऐसे ही भाव थे। पर माँ में पिताजी की अपेक्षा विवेक-बुद्धि अधिक थी। चौदह बाल-बच्चों की माता होने के कारण सर्वप्रथम उसे अपनी संतान की आवश्यकताओं का ध्यान रखना पड़ता था। यद्यपि वह बड़ी उदार थी और जब उसे इस बात का पता लग जाता कि कोई व्यक्ति वास्तव में दुखी और पीड़ित है तो वह बड़े मन से उसकी सहायता करती थी। फिर भी वह पिताजी की भाँति भोली-भाली थी, कि कोई भी उसे धोखा दे सके।

पिताजी तो प्रायः धूर्त व्यक्तियों से धोखा खा जाते थे, पर माँ सतर्क थी। इस प्रकार वर्ष बीतते गए। मेरे पिताजी माँ की बुद्धि पर अधिकाधिक निर्भर रहने लगे। वैसे इस बड़ी गृहस्थी के शासन की बागडोर पिताजी के हाथ में थी; पर वह कठिन प्रश्नों का निर्णय माँ को ही सौंप देते थे और उसके विवेक और बुद्धि के अनुसार ही कार्य करते थे।

यदि पूज्य पिताजी की स्मृति का अपमान समझा जाए तो मैं कहूँगा कि वृद्धावस्था में तो मेरी माँ पिताजी की पति-परायण पत्नी से माता बन गई थी।

अबकी बार विलायत आकर मुझे अपने पिताजी की कितनी ही चिट्ठियाँ, जो उन्होंने माँ की मृत्यु के बाद लिखी थीं, मिली हैं। ये पत्र अत्यंत करुणाजनक हैं। 85 वर्ष की आयु में उन्होंने एकांत में समय व्यतीत करते हुए जो कविताएँ लिखी हैं और जो उद्गार इनमें भर दिए हैं, वे वास्तव में बड़े कोमल, हृदय-द्रावक और ऐसे भाव-पूर्ण हृदय से निकले हैं, जिन्हें पढ़कर में अपने आँसू नहीं रोक सकता। कैसे इनका प्रत्येक शब्द पिताजी ने आँसू भरकर लिखा होगा और उन आँसुओं से उनके हृदय की वेदना कुछ कम हुई होगी।

****

हम सब, अर्थात् मैं और मेरे भाई-बहन, अपनी माँ को वैसे ही श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखते थे, जैसे मेरे पिताजी। जब कभी हम घर छोड़कर विदेश जाते थे तो वहाँ से अपनी माँ को ही लंबी-लंबी चिट्ठियाँ भेजा करते थे और माँ उन्हें दूसरे भाई-बहनों को सुनाया करती थी।

जब मैं हिंदुस्तान गया तो प्रति सप्ताह बंबई से एक लंबा पत्र उसको अवश्य भेजा करता था। पिताजी को भी मैं प्रायः पत्र लिखा करता था, किंतु मेरी लंबी चिट्ठियाँ सब माँ के लिए ही लिखी जाती थीं।

एक बार मुझे संदेह हो गया कि मैंने विलायती डाक से माँ को पत्र भेजा या नहीं, इसलिए एक तार भेजा कि जिससे उसे वृद्धावस्था में चिंता हो। जब मैं माँ को चिट्ठी भेजा करता था तो प्रायः लिख दिया करता था, “देखो माँ! यदि किसी डाक से मेरा पत्र मिले तो चिंता मत करना, क्योंकि डाक सदा समय पर थोड़े ही पहुँचती है। उसमें कभी भूल भी हो जाती है।” यह सावधानी मेरे लिए उचित थी, क्योंकि ‘ख़ुफ़िया पुलिस’ वालों की कृपा-दृष्टि मेरे लेखों पत्रों पर पड़ ही जाती थी। इससे बचने का कोई उपाय था। तो भी बराबर बिना चूके, प्रति सप्ताह अपनी माँ को भारत से पत्र लिखकर भेजता रहा।

****

जब मैं लगभग नौ वर्ष का था तब एक ऐसी घटना घटी, जो मेरे जीवन के लिए अत्यंत सौभाग्य-पूर्ण सिद्ध हुई और जिसका मेरे भावी जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, अथवा यूँ कहिए कि जिसने मेरे जीवन निर्माण में बड़ी सहायता की।

मेरी माँ के पास काफ़ी रुपया पैतृक संपत्ति से जमा था, जिसके ब्याज़ से पर्याप्त आय होती थी और हम लोग अपने घर में बड़े आराम के साथ जीवन व्यतीत करते थे।

मेरे पिताजी पादरी थे। घर की आर्थिक दशा अच्छी होने से वे मिशन से कुछ पारिश्रमिक आदि लेते थे। माँ का रुपया एक ट्रस्टी के हाथों सौंप दिया गया था और वे माँ के नाम से हस्ताक्षर करके रुपया जमा-ख़र्च कर सकते थे। सब काम मेरे जन्म के समय से ही इस ढंग से चल रहा था। किसी प्रकार की चिंता थी। एक दिन प्रातःकाल पिताजी के नाम कहीं से एक पत्र आया। उसमें सूचना थी कि जो व्यक्ति मेरी माँ की संपत्ति का ट्रस्टी बनाया गया था, वह उस धन को सट्टेबाज़ी में लगा रहा है। पिताजी ने लंदन तार भेजकर पूछताछ की कि मेरी माँ के नाम का रुपया ठीक से जमा है या नहीं? एक के बाद दूसरा तार यही आया कि रुपया तो ट्रस्टी महोदय ने कभी का निकाल लिया और वे कहीं लापता हो गए। जाने कब से वे ‘शेयर बाज़ार’ में सट्टेबाज़ी कर रहे थे! इस धूर्तता का पता पीछे चला।

उस दिन दोपहरी में मेरे पिताजी अत्यंत चिंतित रहे और माँ उन्हें धीरज बंधाने का प्रयत्न करती रही। आज भी मैं माता-पिता के उन चिंता-ग्रस्त चेहरों की कल्पना कर सकता हूँ।

मेरे पिताजी सारा दोष अपने ऊपर ले रहे थे। वे कहते थे कि ‘ट्रस्टी’ तो मेरे घनिष्ट मित्र थे, मेरे कहने पर ही चुने गए थे। उन्हें दो बातों का दुःख था—एक तो इस बात का कि ऐसे व्यक्ति को ट्रस्टी बनाया, दूसरी यह कि उनके मित्र ने यह भयंकर विश्वासघात किया। उस समय मेरे पिताजी को जो मानसिक क्लेश हो रहा था उसका वर्णन करना कठिन है। एक के बाद दूसरा तार खोलते थे और उसमें संपत्ति-नाश का समाचार पढ़ते थे।

मैं बालक तो था ही। इस दुःख को देखकर अपनी माता के पास सट कर बैठ गया। विषाद निरंतर बढ़ रहा था; पर में इतना छोटा था कि रहस्य समझने की बुद्धि मुझ में थी; किंतु इतनी बात मुझे पता चल गई कि मेरे पिताजी के एक मित्र ने माँ का सब रुपया छीन लिया है। मैं मन-ही-मन सोचकर डरता था कि अब पिताजी क्या करेंगे।

फिर संध्याकालीन प्रार्थना का समय आया। यह प्रार्थना हम सबके लिए अत्यंत पवित्र थी। माँ अत्यंत धैर्य से दुःख को सहन कर गई और चुपचाप बैठी रही। मैं भी उसके निकट ही बैठा था। पिताजी ने बाइबिल खोली और उसमें से एक गीत पढ़ा। गीत में दाऊद ने एक विश्वासघातक मित्र के विषय में लिखा था—

“मैं विश्वासघात को सहन कर लेता, यदि यह मेरे किसी शत्रु द्वारा किया गया होता, पर यह तो तूने—ओ मेरे मित्र—तूने ही किया!

पिताजी इस गीत को पढ़कर थोड़ी देर के लिए रुके। बाइबिल में इस पद्य के बाद विश्वासघातक मित्र को शाप देने वाले कई पद्य आए हैं। पर पिताजी ने उन पदों को जान-बूझकर छोड़ दिया। वे अपने आँसुओं को किसी प्रकार रोकने की चेष्टा कर रहे थे।

पुनः उन्होंने प्रार्थना करनी आरंभ की— “हे परमात्मन्, तू क्षमा कर मेरे उस मित्र को! उसे बुद्धि दे, जिससे वह अपने किए पर पश्चात्ताप करे।”

प्रार्थना करते समय ऐसा प्रतीत होता था कि पिताजी के हृदय में अपने मित्र के प्रति दया का भाव इतना अधिक उमड़ आया है कि वे अपनी भारी हानि को भी भूल गए हैं। प्रार्थना कर चुकने के बाद उनके मुख-मंडल पर एक प्रकार की शांति तथा तेज़ झलक रहा था मानो उन्हें कोई आध्यात्मिक आनंद प्राप्त हुआ हो। माँ भी आनंदित थी और उसके इस आनंद को संपत्ति की भयंकर हानि भी नहीं छीन सकती थी।

जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, यह घटना मेरे जीवन के लिए अत्यंत सौभाग्यपूर्ण थी। सबसे प्रथम तो यह कि इस घटना के कारण मेरा प्रेम अपने माता-पिता के प्रति बहुत बढ़ गया। दूसरी बात यह हई कि विपरीत इसके कि मेरी पढ़ाई-लिखाई का सारा काम मौज से चलता रहे; मुझे स्वयं परिश्रम करके अपनी पढ़ाई का ख़र्च निकालाना पड़ा।

जब मैं आठ या नौ वर्ष का था तब से ही बकिंघम हाईस्कूल से लेकर पच्चीस वर्ष की आयु तक, जब मैंने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से एम. ए. पास किया, मैं अपनी पढ़ाई का सारा ख़र्च अपने परिश्रम ही से चलाता रहा और उच्च कक्षाओं में पहुँच जाने पर तो मैं कुछ बचा कर अपने भाई-बहनों की सहायता भी करने लगा था।

कितने वर्ष बाद पता चला कि उस विश्वासघातक व्यक्ति ने पश्चात्ताप का पत्र लिख कर मेरे माता-पिता से क्षमा याचना की और उन्होंने तुरंत उसे क्षमा कर दिया।

इस घटना की पवित्र स्मृति आरंभ ही से मेरे हृदय में रही है। माता-पिता के पारस्परिक प्रेम और उज्ज्वल दृष्टांत ने मेरे जीवन-पथ को सदा आलोकित किया है और में प्रभु का धन्यवाद करता हूँ कि उसने ऐसी माँ की कोख से मुझे जन्म दिया और ऐसे पिता का पुत्र बनाया।

एक बार जब मैं शायद पाँच वर्ष का ही था, खेलते-खेलते अकस्मात् मेरा शरीर गर्म हो आया, हाथ-पैर जलने लगे। भाई बहनों ने मुझे उठाना चाहा, किंतु मुझसे उठा नहीं गया।

इसी समय माँ आई। यह शब्द लिखते हुए मेरे सम्मुख वह सुंदर, प्यारी, कोमल मुखाकृति झलक उठती है। तुरंत वह फ़र्श पर मेरे पास आकर झुक गई, मेरा माथा चूम लिया और मेरी दोनों टाँगों की ओर देखा, जिनकी ओर मैंने आँसू भरकर संकेत किया था। तब उसने मेरे दोनों घुटनों को गर्म पट्टी से बाँध दिया। उस रात में ज्वर के प्रकोप में बड़बड़ाता रहा।

उस लंबी बीमारी के दिनों की बात बाद में माँ बहुधा सुनाया करतीं कि कैसे क्रमशः रोग बढ़ता गया, यहाँ तक कि मेरा शरीर ढाँचा मात्र रह गया। किंतु मुझे तो केवल उस बीमारी की एक स्मृति अर्थात् प्रार्थना करते हुए माँ का प्रेम-भरा चेहरा ही रह गई है। भगवान् ने मानो उसकी विनती सुन ली और मुझे पुनः उसकी गोद में भेज दिया।

उस कष्ट को मैं बहुत-कुछ भूल चुका हूँ। संभवत: कई महीने, सप्ताह सर्वथा अचेतन रूप से मृत्यु और जीवन के बीच झूलता रहा। बीमारी बहुत बढ़ गई और सबने मेरा मरण निश्चित रूप से निकट समझ लिया। तब एक दिन सहसा दीर्घकाल की मूर्छा के अनंतर मेरी आँखें खुलीं। देखा, शैया के पास ही छोटी मेज़ पर एक ताज़ा श्वेत फूल पड़ा है। वह फूल मुझे इतना सुंदर प्रतीत हुआ, मानो जीवन की कामनाओं और पुनर्जीवन का प्रतीक बनकर आया हो।

माँ के हाथों रखे हुए उस श्वेत पुष्प ने वास्तव में मेरे अंदर नवीन जीवन और शक्ति ला दी। उस दिन से मैं तेज़ी से स्वास्थ्य-लाभ करने लगा; किंतु कहते हैं कि विपत्ति तथा दुःख अकेले नहीं आया करते।

एक दिन में बैठक के बाहर खड़ा पिताजी का संगीत सुन रहा था। माँ पियानो बजा रही थी। मैंने अपनी उंगलियाँ ज्योंही दरवाज़े की चौखट पर रखी कि एकाएक वह बंद हो गया और उंगलियाँ बीच में दब जाने से मैं धड़ाम से गिर पड़ा।

पहली दुर्बलता अभी दूर नहीं हुई थी कि यह चोट जाने से छ: मास के लिए और पड़ गया। कहने का तात्पर्य यह कि बीमारियों और कष्टों में मेरी माँ मुझे अधिक-से-अधिक हृदय के निकट प्रतीत होती गई। संभवतः वह भी अपने अन्य स्वस्थ बच्चों की अपेक्षा मुझे अधिक चाहने लगी थी।

आगे चलकर मेरे कई अनन्य मित्र बने, जिन्हें मैं अपने सगे भाइयों से भी अधिक समीप मानता था, किंतु उस स्नेह और मेरी माताजी के अक्षय प्रेम की तुलना नहीं हो सकती।

माताजी का नाम आते ही जीवन की कितनी ही घटनाएँ सहसा उभर आती हैं।

मेरी माँ उन माताओं में से थी, जो जहाँ तक हो सके, बिना किसी बाहरी सहायता के, बच्चों का पालन-पोषण करती हैं। वह बड़े तड़के उठती और हम लोगों के उठने के पूर्व ही दैनिक कर्तव्यों में लग जाती।

हम एक दिन भी बिना भूले, प्रातः-सायं आँखें मूँदे, उसके साथ प्रार्थना में सम्मिलित होते। वह पास ही कुर्सी पर बैठी होती और प्रत्येक से प्रार्थना को दोहरा कर सुनती।

माँ के जन्म-दिन के अवसर पर जो पच्चीस मई को पड़ता है, हम सवेरे ही उठते और उसके कमरे के बाहर खड़े होकर एक साथ गाने लगते। वह प्रायः इसकी प्रतीक्षा में होती, क्योंकि उसे इसका पता होता था। वह पुनः बाहर आती और मुस्कुराते हुए हमारा स्वागत करती। हम उसे उपहार देते, सारे दिन प्रसन्नता की लहरें उसके मुख पर खेलती रहती। कैसी सुंदर ऋतु में उसका जन्मोत्सव आया करता, जब बसंत के सारे फूल यौवन में होते! हम फूलों से उसका कमरा भर देते। एक बार का मुझे स्मरण है, जब सूर्य के निर्मल प्रकाश में उसका मुखमंडल एक अलौकिक प्रसन्नता से रक्त-वर्ण एवं दीप्तिमान हो रहा था, जिससे हमारा घर-भर आलोकित हो उठा था। उसकी आँखों में आनंद के आँसू छलक आते थे।

वह सदैव हमारे लिए कुछ-न-कुछ तैयार किया करती। हम लोग भी इसी प्रतीक्षा में रहते कि माँ चुपके-चुपके क्या बना रही होगी।

कभी-कभी एक-दो बच्चों वाले परिवार पर मैं आश्चर्य करता हूँ। हमारा इतना बड़ा कुटुंब था और हमने एक साथ रहने-सहने का सुंदर ढंग सीख लिया था। हमारी माँ ही वास्तव में हमारी सच्ची शिक्षक थी। हमारे लिए परिश्रम करते-करते वह थकती थी। उसकी इस निस्वार्थता को देखकर हमें साहस होता था कि हम किसी प्रकार के भोग-विलास में पड़ें। ऐसा होते हमें लज्जा आती थी। उसी से हमने प्रेम और उदारता की प्रेरणा ली।

जोहान्सबर्ग से डरबन को आते हुए मैं ज्वर-पीड़ित था। पुराने मलेरिया का प्रकोप होने से बुरी तरह थक गया था।

डरबन उतरकर कुछ भारतीय महिलाओं से, जो तभी जेल से लौटी थीं, मिला। इसी समय प्रथम बार मैंने श्रीमती कस्तूरबा गाँधी को देखा; किंतु साथ ही निम्न आशय का तार भी मिला—“मेरी माँ के जीने की आशा नहीं है!”

अगले दिन मुझे स्त्रियों की सभा में भाषण देना था। बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हो गई। मन में यही दुराशा उठती थी कि माँ की मृत्यु का ही समाचार आएगा।

वही हुआ। संध्या समय मृत्यु का तार गया। वह तार मैंने गाँधी जी के पास भेज दिया। तत्क्षण श्रीमती गाँधी कुछ अन्य भारतीय स्त्रियों के साथ पहुँचीं। उस अपार दु:ख के समय आकर उनका सांत्वना देना मेरे लिए अत्यंत शांतिदायक हुआ।

ऐसा लगा, मानो वे सब मेरी माताएँ हों। कौन जानता था कि भविष्य में यही भारतीय महिलाएँ मेरी माँ का साक्षात्-स्वरूप होंगी। आजन्म जहाँ-जहाँ भी मुझे वे इस रूप में मिली, मैंने भारत के प्रति अपनी माताजी के उत्कट प्रेम को सत्य सिद्ध होते देखा।

स्रोत :
  • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 26)
  • संपादक : सत्यवती मलिक
  • रचनाकार : दीनबंधु एंड्रयूज
  • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
  • संस्करण : 1952

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