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इक्केवाला

ikkewala

प्रकाशचंद्र गुप्त

और अधिकप्रकाशचंद्र गुप्त

    उस दिन ख़ूब लू चली थी। दिन भर बदन झुलसा था। शाम को हम लोग इक्के पर बैठकर कुछ सामान ख़रीदने और चाट खाने के लिए चौक चले गए। यूनिवर्सिटी बंद थी, इसलिए मनमानी कर सकते थे। सोचा, किसी तरह तो गर्मी और लू को भूल सके।

    चौक गुलज़ार था। घंटाघर में साढ़े सात बजा रहा था। हवा हल्की पड़ गई थी, लेकिन फिर भी गरमाहट से झुलसे बदन को सेक जाती थी। दुकानों पर बत्तियाँ जगमगा उठी थी। चारों ओर खासी भीड़-भाड़ थी। सड़कों पर इक्के-ताँगों, साइकिलों और एकाध मोटरों का अविरत प्रवाह था। मानो कोई नदी पहाड़ से उतर कर मैदान की समतल भूमि में धीर, मन्थर गति से, किंतु अविराम बही जाती हो। यह भीड़ की सरिता बिना लक्ष्य के इधर-उधर मटकती थी और इसकी गति तीर की तरह सीधी होकर मंडलाकार थी, और आगे बढ़कर फिर-फिर अपने उद्गम की दिशा पकड़ती थी। नदी अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ती है। वन उपवनों को सींचकर, अपने दोनों किनारों के देश को धन-धान्य से परिपूर्ण कर सागर से जा मिलती है और एक बार फिर बादल बन कर खेत-खलिहानों पर अपने श्रम-बिंदु बरसाती है, और उन्हें सोने से लाद देती है। किंतु यह मानवी सरिता। लदय-भ्रष्ट होकर मरुभूमि में भटक रही थी। इस सरिता के एक किनारे खड़े होकर हम सोच रहे थे, इस प्रवाह पर लड़ाई, महँगी और अकाल का कोई असर नहीं। लेकिन असलियत यह थी।

    मेरे एक वकील दोस्त चीनी ख़रीद रहे थे। सेर-सेर भर चीनी उन्होंने दो दुकानों से ली। दूसरे मित्र बच्चों के लिए दवा ख़रीद रहे। थे। 'ग्राइप वॉटर' की दो शीशियाँ चाहते थे, लेकिन एक ही मिली। दाम काफ़ी बढ़ गए थे।

    मैं चुपचाप इक्के पर बैठा दीन-दुनिया की बाते सोचने में लगा था। जाने लड़ाई कब ख़त्म होगी! कब यूरोप में दूसरा मोर्चा खुलेगा! कब जापान के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू होगी। गेहूँ ढाई सेर हो गया था। कपड़ा ख़रीदना जान पर खेलना था। छुट्टी थी, मगर कहीं बाहर निकलना असंभव था। गाड़ियों में मालूम कहाँ की भीड़ उमड़ पड़ी थी। आदमी के ऊपर आदमी टूटता था। एक हफ़्ते के लिए बंबई जाने में सब दुर्गति हो गई थी।

    विचारों की लड़ी तोड़ते इक्केवाले ने पूछा : बाबूजी, चीनी किस भाव ली?

    “साढ़े छै आना। और काफ़ी गंदी और मैली।

    सभी चीज़ की मुसीबत है, बाबूजी।

    हाँ भई, मुसीबत पूरी है। इस बार आटे-दाल का भाव मालूम हो रहा है।

    मुसीबत हम ग़रीबों की है बाबूजी। खाना-पहनना मुश्किल है।

    कितना कमा लेते हो?

    कमा तो दो-ढाई लेता हूँ, लेकिन दो-डेड़ तो जानवर ही खा लेता है। दाना भी मँहगा, घास भी मँहगी। लेकिन इसे तो पालना ही है, चाहे आप भूखे रह लें!

    क्यों जी, बाज़ार में सरकारी कपड़ा आया है। क्यों नहीं उसमें से कुछ ख़रीदते?

    कहाँ मारे-मारे फिरें, बावूजी? पेट की चिंता-फ़िक्र करें या सरकारी दफ़्तरों में जूतियाँ चटकाते फिरें?

    मैं सोचने लगा, हमारे देश में नौकरशाही का कैसा रोब है। लोग भूखे मर जाएँगे लेकिन सरकारी दफ़्तर जाएँगे। सदियों की दुर्व्यवस्था का आज यह विषैला फल निकल रहा है।

    इक्केवाला—बाबूजी, सब चीज़ मँहगी हो गई, लेकिन एक चीज़ बहुत सस्ती है—आदमी की जान। उसकी कोई क़ीमत नहीं। जिधर देखो उधर ही आदमी मक्खियों की तरह पटापट मर रहे हैं।

    हाँ भाई, हालत काफ़ी नाज़ुक हो गई है। भूख और रोग लड़ाई से भी बढ़कर आदमी के दुश्मन हो रहे हैं। बंगाल में लोग हज़ारों की संख्या में मर रहे है। कुछ दिन बाद हमारे यहाँ भी वही होगा, अगर हमने अपना फ़र्ज़ पूरा किया!

    इक्केवाला—यही चौक लीजिए, रात भर गुलज़ार रहता था। अब शाम से ही उजड़ जाता है... उसने शहर के चकलों का वीभत्स वर्णन करते हुए कहा: जहाँ पहले चवन्नी लगती थी, अब दोअन्नी से काम चल जाता है।

    ठीक ही था। सब चीज़ा मँहगी हो रही थी; मनुष्य का मोल घट रहा था।

    वकील दोस्त के आने पर मैंने उनसे कहा—This is an old sinner. He talks of women the whole timel'

    वकील साहब—क्यों जी तुम कहाँ रहते हो?

    कटरे में ही रहता हूँ, हुज़ूर।

    कटरे में तो हम भी रहते हैं! तब तो हम लोग पड़ोसी हुए।... क्यों जी, आज-कल कौन-कौन बाज़ार जाता है?

    इसके बाद बहुत-से रईसों की बात हुई। कौन संभले, कौन बिगड़े, 'इक्केवाले ने बताया। वह भी इसी मर्ज़ में बिगड़ा था। पहले ताँगा चलाता था तो अच्छी कमाई थी। किसी से इश्क़ हो गया, बस उसी में वह बर्बाद हुआ। और आज भी लड़ाई और मँहगी के बावजूद वही रंग उसके दिमाग़ पर चढ़ा था।

    बड़ी दुनिया देख चुका था वह। बड़े घाटों का पानी पी चुका था। फ़्रांस घूम आया था। पिछली लड़ाई में 'सप्लाई कोर' में था, तीन चार साल पहले बंबई में था। गाँधी जी का आंदोलन देख चुका था।' दो-एक लाठियाँ भी खाई थीं।

    हमने पूछा: क्या-सन् 30 में तुम बंबई थे?

    जी, पंडित मोतीलाल की स्पेशल बंबई आई थी। मैं भी देखने गया था। बड़ी भीड़ थी। गोरों ने भीड़ पर ख़ूब लाठी चलाई। जिसे गाँधी टोपी पहने देखते थे, उसी को पीटते थे। मैंने अपनी गाँधी टोपी उतार कर छिपाई, तब कहीं जान बची।

    कुछ देर बाद : गाँधी जी ने क्या किया? फ़िज़ूल में लोगों को कटवा दिया।

    हम गाँधी जी के आंदोलन ने मुल्क को जगा दिया। पहले तो मानो सोता पड़ा था।

    इक्केवाला : ग़रीबों का कुछ भला नहीं हुआ। ग़रीबों को कौन पूछता है। वह तो ठोकर ही खाएँगे। उनका कोई भला नहीं करेगा।

    हम : ठीक कहते हो। ग़रीबों को अपने पैरों पर खड़ा होना है। अपनी ताक़त से दुनिया बदलनी है। दूसरों के मोहताज होकर कभी कुछ नहीं होता। आज भी अपनी एकता और, संगठित शक्ति से तुम सब संकट काट सकते हो। जनता की ताक़त के आगे बड़ी-से-बड़ी हुकूमत को झुकना पड़ता है।

    लेकिन इक्केवाले को राजनीति से कोई ख़ास दिलचस्पी थी। वह किसी पुराने युग का बिगड़ा, मनचला जवान रहा होगा। अब अधेड़ होकर 'ग़रीबी और मँहगाई से मजबूर अकाल की आशंका से वह चिंतित था। पुरानी स्मृतियों को एक बार फिर सहेजते हुए। उसने कहा—काँग्रेस के जुलूस में भी बड़ी औरतें जुड़ती थीं। हम तो मेला समझ कर वहाँ गए थे। किसे मालूम था कि लाठियाँ बरसेगी?

    हमने उसे समझाया : इन बातों को छोड़ो। जब तक सब मिल-जुल कर संगठन नहीं करते, हालत बिगड़ती ही जाएगी।

    उसने सिर हिला कर सम्मति ज़ाहिर की: ठीक है, बाबूजी। फिर मानो इन बातों का अंत करने के लिए घोड़ा बढ़ाया और स्वर खोलकर गाना शुरू किया, हॉ-ऑ, पिया मिलन को जाना।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग

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