मोरियं राज प्रथीराज वग्गं।
उठ्ठियं रोस आयास लग्गं।
पथ्थ भारथ्थि भरि होम जग्गं।
षुल्लियं षग्ग षंडु वन लग्गं॥
उठ्ठियं सूर सामंत तज्जे।
षोलियं सिंघ साहथ्थ लज्जे।
वाजने वीर रा पंग वज्जे।
मनउ आगमे मेह आषाढ गज्जे॥
मिले योध वथ्थे न हथ्थे हकारे।
उठे गयन लग्गे समं सार झारे।
कटे कंघ काबंध संधे ननारे।
परे जंग रंगं मनउ मत्तवारे॥
झरे संभरे रायरे सं सार सारे।
जुरे मल्ल हल्लइ नही जे अषारे।
जबे हारि हल्लइ नही को पचारे।
तबे कोपियं कन्ह मयमत्त भारे॥
जबे अप्पियं मारु हथ्थे दुधारे।
फूटे कुंभ झुम्मं नीसान मारे।
गये सुंड दंतीनु दंता उभारे।
मनउ कंदला कंद भिल्ली उघारे॥
परे पंडुरे वेस ते मीरु सीसं।
मनउ जोगिनी जोग लागति रीसं।
वहइ वान कम्मान दीसै न भानं।
भमइ ग्रिध्धनी गिध्ध पावै न जानं॥
रुलि षेत रत्त चरंतं करारं।
बोलि कंठ कंठी न लग्गी उभारं।
सरं श्रोणि रंगं पलं पारि पंकं।
वजइ मंस षंचि गंधि वासि करंकं॥
दुमं ढाल लोलंति हालंति देसं।
गये हंस नंसीय गेहे सुवेसं।
परे पानि जंघं धरंगं निनारे।
मनउ मछ्छ कछ्छ तरे तीर भारे॥
सिरं सा सरोजं कचे सा सिवाली।
गहे अंत ग्रध्धी सु सोहै मराली।
तटं रंभ रत्तं भरंतं विचीर।
कतं स्याम स्वेतं कतं नीर पीरं॥
सुरे अंग अंगे सुरंगे सुभट्टं।
जिते स्वामि कज्जे समर्पे सुघट्टं।
काल जम जाल हथ्थी समानं।
इत्तने जुध्ध अस्तमित भानं॥
राजा पृथ्वीराज को रोष आया। राजा ने लगाम मोड़ी, और आकाश से जा लगा। जैसे अर्जुन महाभारत के युद्ध में अहं भाव से भरकर जाग पड़े थे और उनका खड्ग खांडव वन को दग्ध करने लगा था। शूर-सामंत तर्जित होकर उठ पड़े, और सिंह के समान लजित होकर उन्होंने हाथ खोले। पंगराज के बाजे उठे, मानो आषाढ़ में मेघ आकर गज उठे हों। योद्धा आपस में भिड़े और उन्होंने हाथों को पीछे नहीं खिंचा, उठे हुए हाथ आकाश से जा लगे। उन्होंने एक दूसरे पर शस्त्र चलाए। कंधे, कबंध संध—शरीर के जोड़ कट-कट कर गिरे और घायल योद्धा रण-स्थल में ऐसे पड़े जैसे मतवाले पड़े हों। सांभर राज ने सब शस्त्रों की वर्षा कर दी किंतु जयचंद पक्ष के योद्धा नहीं हिले जैसे अखाड़े में जुटे हुए मल्ल नहीं हिलते हैं। जब इस प्रकार हारने की स्थिति में होने पर भी वे पीछे नहीं हट रहे थे, और किसी ने कन्ह को ललकारा, तब अति मदमत्त हो कर कन्ह कुपित हुआ। उसने हाथों से दुधारी तलवार का वार करना शुरू किया, तो हाथियों के कुंभ फूट कर झूलने लगे। भारी निशान बजा। हाथियों के सूंड कट गए और उनके दाँत उखाड़ लिए गए, मानो भिल्लनी ने कंद उखाड़े हों। मीरों के सिर पांडुर वेष में पड़े हुए थे मानो किसी योगिनी का योग-पात्र दिखाई पड़ रहे हों। धनुष बाण बरसा रहे थे। जिसके कारण सूर्य नहीं दिखाई पड़ रहा था। योद्धाओं के गिरने के कारण गिद्धिनी और गिद्ध चक्कर काट रहे थे, वहाँ शवों के पास जाने नहीं पा रहे थे। उस रक्त क्षेत्र में रोर करते हुए काग विचरण कर रहे थे, जिसके कारण कोकिल कंठ नहीं खोल रहे थे। वह रण-स्थल रक्त का तालाब था, जिसमें मांस का पंक पड़ा हुआ था। उसमें और भी रक्त-मांस भर रहा था, दुर्गंध खिंच रही था और हड्डियाँ बिखरी थीं। ढाल ख़ून से लाल और दमकती दिख रही थीं। छूटते हंस (प्राण) हँस रहे थे। वे अपने सुंदर घरों को जा रहे थे। हाथ, जंघाएँ, धड़ शरीर से अलग पड़े हुए थे; वे ऐसे लगते थे मानो उस सरोवर के मगरमच्छ हों जो उसके तट पर तैर रहे हों। कटे हुए सिर सरोज थे, और कच शैवाल थे। अंतड़ी लिए हुए जो गिद्धनी थी, वह उस सरोवर पर शोभित मराली थी। उस सरोवर का तट कोलाहल से भरा था। वहाँ बहुत प्रकार के वस्त्र पड़े थे। कितने ही श्याम और श्वेत कितने ही नील और पौत थे। उन सुभट गणों के इन्हीं सुंदर अंगों ने कभी विलास किया था, इन्होंने अपने शरीर को स्वामी-भक्ति में समर्पित कर दिया था। वहाँ हाथी काल के यम जाल के समान थे। इतने युद्ध के बाद सूर्य अस्त हुआ।
- पुस्तक : पृथ्वीराज रासउ (पृष्ठ 191)
- रचनाकार : चंदबरदाई
- प्रकाशन : साहित्य-सदन चिरगाँव (झाँसी)
- संस्करण : 1963
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