वाजिद का परिचय
वाजिद के विषय में केवल इतना ही प्रसिद्ध है कि यह एक पठान थे। शिकार खेलने एक दिन निकले, और जंगल में एक हिरणी पर तीर चलाने ही वाले थे कि इनके हृदय से करुणा का निर्झर फूट पड़ा और तीर-कमान तोड़कर फेंक दिए। जीवन जीव-प्रेम की ओर गया। सद्गुरु पाने के लिए व्याकुल हो उठे। खोजते-खोजते दादूदयाल की अकुतोभय शरण पा ली, और उनके कृपापात्र शिष्य हो गये। दादूदयालजी के 152 शिष्यों में वाजिद की गणना की जाती है। स्वामी मंगलदास ने अपने 'पंचामृत' में वाजिद के विषय में रामदासजी का यह पद उद्धृत किया है—
पठान कुल राम नाम कीन्हो पाठ,
भजनप्रताप सू वाजिद बाजी जीत्यौ है।
हिरणी हतत उर डर भयो भयंकारि,
सीलभाव उपज्यो दुसीलभाव बीत्यौ है॥
तोरे हैं कंवाँण तीर चाणक दियो शरीर,
दादूजी दयाल गुरु अंतर उदीत्यौ है।
राघो रति रात दिन देह दिल मालिक सूँ,
ख़ालिक सूँ खेल्यो जैसे खेलण की रीत्यौ है॥
अरिल्ल छंद में अनेक अंगों पर वाजिद ने प्रसादगुणयुक्त सरल-सरस रचना की है। कहते हैं कि छोटे-छोटे चौदह ग्रंथों मे इनकी पूरी बानी है, पर सब उपलब्ध नहीं हैं। इनकी कुछ साखियों को संत रज्जब ने भी अपने संग्रह में संकलित किया है। इन्होंने दोहे-चौपाई में भी रचना की है। भाषा में ओज है, प्रवाह है। उर्दू-फ़ारसी शब्दों का कदाचित् ही प्रयोग किया है। दया और उदारता तथा देह की अनित्यता पर इनके बड़े ही भावपूर्ण 'अरिल्ल' हैं।