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तुरसीदास निरंजनी

सांगीतिक मधुरिमा के साथ आत्मशुद्धि, विरह और प्रेम को कविता का वर्ण्य-विषय बनाने वाले संतकवि। 'निरंजनी संप्रदाय' से संबद्ध।

सांगीतिक मधुरिमा के साथ आत्मशुद्धि, विरह और प्रेम को कविता का वर्ण्य-विषय बनाने वाले संतकवि। 'निरंजनी संप्रदाय' से संबद्ध।

तुरसीदास निरंजनी का परिचय

तुरसीदास निरंजनी इस संप्रदाय के सबसे बड़े साधक, विचारक और कवि थे। डा. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल के शब्दों में तुरसीदास बड़े विद्वान् थे। इन्होंने अपनी साखियों के विभिन्न प्रकरणों मे ज्ञान, भक्ति और योग का विस्तृत तथा सुगठित वर्णन किया है। ये निरंजनपंथ के दार्शनिक सिद्धातों के प्रतिपादक, आध्यात्मिक जिज्ञासु तथा रहस्यवादी उपासक थे। निरजनपंथ के लिये तुरसीदास ने वही काम किया जो दादूपंथ के लिये सुंदरदास ने। राघोदास ने इनकी वाणियों के विषय मे कहा है 'तुरसी जु बाणी नीकी ल्याए हैं।‘ इसी प्रकार राघोदास ने अपने 'भक्तमाल' में तुरसीदास की बड़ी प्रशंसा की है।

तुरसीदास का निवास-स्थान शेरपुर था। डा. बड़थ्वाल के अनुसार ये गोस्वामी तुलसीदास जी के ही समकालीन थे। नागरीप्रचारिणी सभा की खोज में तुरसीदास की वाणी की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख हुआ है, जिसमें एक 'इतिहास समुच्चय' की प्रतिलिपि भी सम्मिलित है। 'इतिहास समुच्चय' के अंत मे लिखा है कि उसकी प्रतिलिपि वि. सं. 1745 (1688 ई.) में ऊधोदास के शिष्य लालदास के शिष्य किसी तुरसीदास ने की थी। यदि यह प्रति तुरसी ही के हाथ की लिखी है, और ऐसी कोई बात नहीं है जिससे उसका तुरसी का लिखा होना अप्रमाणित हो, तो हमें तुरसी का समय मिल जाता है। उनका संवत् 1745 वि. में 'महाभारत' के एक अंश की प्रतिलिपि करना असंभव नहीं। इस प्रकार ये तुरसी, प्रसिद्ध महात्मा तुलसीदास से छोटे, किंतु समसामयिक ठहरते हैं।

तुरसीदास बड़े समर्थ विचारक तथा कवि थे। उन्होंने विस्तृत रचना की है। डॉ. बड़थ्वाल के ज्ञान और संग्रह में आई हुई इनकी विपुल वाणियों का विस्तार इस प्रकार है :

1. साखी 4202
2. पद 461
3. लघु रचनाएँ 4
4. श्लोक और शब्दों का संग्रह
छोटे ग्रंथों की सूची यह है : (क) ग्रंथ चौक्षरी, (ख) करणी सारनोग (ग) साध सुलच्छिन ग्रंथ तथा (घ) ग्रंथ तत्व गुणभेद

मिश्रबंधुओं के अनुसार तुरसीदास ने सात ग्रंथों की रचना की थी : 'नयनाभक्ति', 'करनी सार जोग ग्रंथ', 'अष्टांगयोग', 'वेदांत ग्रंथ', 'साधु-सुलक्षण', 'तत्वगुन भेद ग्रंथ', 'चौअक्षरी'। निर्गुणियों की भाँति निरंजनी कवियों ने भी राम नाम की साधना का उपदेश दिया है। निरंजनियों के ब्रह्म कबीर के राम से साम्य रखते हैं।

निम्नलिखित उद्धरण से संत तुरसीदास की ब्रह्मविषयक धारणा स्पष्ट हो जाती है :

“संतो सो है राम हमारा रे।
नाद बिवरजित विंद बिवरजित, नहिं तस वार न पारा रे॥
सकल वियापी सब ते न्यारा, सबका सिरजन हारा रे।
सब दुष खंडन सब भव भंजन, तेज पुंज निरकारा रे॥
ब्रह्मा विष्णु, महादेव नारद, सबही करहि विचारा रे।
पार न पावै अगम बतावै, नावे लेह एक तारा रे॥
आ न जाय मरे नहि जनमै, अविगति अलष अपारा रे।
जन तुरसी जैसा राम हमारा, ताहि सुमरे बारंबारा रे॥“

तुरसीदास वर्णाश्रम व्यवस्था को कर्म के आधार पर स्वीकारते हैं। संन्यासी या योगी का इससे कोई संबंध नहीं, वह इन सबसे ऊपर है। तुरसीदास ने भी कबीर तथा अन्य संतो की भाँति पाखंडों की निंदा की है। उनके अनुसार साधना की प्रारंभिक अवस्था में जप, माला, तिलकादि भले ही शोभा दें पर सिद्धावस्था में नहीं शोभते हैं। तुरसीदास का मत है कि यथा संसार में सर्वत्र ब्रह्म रम रहा है वैसे ही मूर्ति में भी उसका वास है। अतः तुरसी उदार हृदय से कहते हैं :

"मूर्ति में अमूरति बसै, अमल आत्माराम।
तुरसी भरम बिसारि कै, ताही को लै नाम॥"

तुरसीदास भी प्रेमाभक्ति के उपदेशक हैं। कबीर की भाँति वे कोरे ज्ञान को निःसार मानते हैं। ज्ञान वही है जो ब्रह्म के रंग मे अनुरंजित हो। तुरसीदास ने बड़े सुंदर तर्कों के आधार पर निर्गुन ब्रह्मोपासना और अंत:साधना को महत्व प्रदान किया है।

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