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ठाकुर बुंदेलखंडी

1766 - 1823 | बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश

रीतिमुक्त काव्यधारा के महत्त्वपूर्ण कवि। लोकोक्तियों के मधुर प्रयोग के लिए विख्यात।

रीतिमुक्त काव्यधारा के महत्त्वपूर्ण कवि। लोकोक्तियों के मधुर प्रयोग के लिए विख्यात।

ठाकुर बुंदेलखंडी का परिचय

उपनाम : 'लाला ठाकुर दास'

जन्म :बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश

निधन : जैतपुर, उत्तर प्रदेश

ठाकुर रीतिकाल के अंतर्गत अपेक्षाकृत गौण, किंतु स्वतंत्र रीति से प्रवाहित, रीतिमुक्त प्रेमी कवियों की महत्त्वपूर्ण भावधारा के एक विशिष्ट कवि थे। उनका जन्म 1763 ई. तथा देहावसान 1824 ई. के लगभग माना जाता है । ठाकुर बुंदेलखंड के निवासी तथा उसी क्षेत्र में स्थित जैतपुर के राजा केसरीसिंह के दरबारी कवि थे। उनके पिता गुलाबराय ओरछा महाराजा के मुसाहिब थे और पितामह खगराय काकोरी के मनसबदार थे। इनके पुत्र दरियावसिंह चातुर और पौत्र शंकर प्रसाद भी कवि थे। नाम से ठाकुर होते हुए भी वे जाति के कायस्थ थे। बिजावर के राजा ने भी उनको एक गाँव देकर सम्मानित किया था। केसरीसिंह के पुत्र परीछत ने सिंहासनारूढ़ होने पर ठाकुर को अपनी सभा का एक रत्न बनाया। वे पद्माकर के समकालीन थे तथा बाँदा के राजा हिम्मतबहादुर गोसाईं के, जो पद्माकर के एक प्रमुख आश्रयदाता थे, दरबार में आमंत्रित किये जाने पर कभी-कभी उनकी और पद्माकर की पारस्परिक काव्य-स्पर्धा हो जाया करती थी। इस संबंध में ठाकुर की व्युत्पन्नमति को व्यक्त करने वाली अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। बाँदा के हिम्मत बहादुर गोसाईं के दरबार में कभी-कभी कवि पद्माकर के साथ ठाकुर की कुछ नोंक-झोंक की बातें हो जाया करती थीं। एक बार पद्माकर ने कहा-'ठाकुर कविता तो अच्छी करते हैं पर पद कुछ हलके पड़ते हैं।' इस पर ठाकुर बोले- 'तभी तो हमारी कविता उड़ी-उड़ी फिरती है।'

ठाकुर स्वभाव से स्पष्टवादी, विरोधियों के प्रति उग्र और सहयोगियों के प्रति सहृदय एवं भावुक थे। हिम्मतबहादुर द्वारा कटु वचन कहे जाने पर उन्होंने भरे दरबार में तलवार खींचकर जो कवित्त पढ़ा था, वह उनकी आतंरिक प्रकृति को पूर्णतया व्यक्त करता है :

‘सेवक सिपाही हम उन राजपूतन के,
दान जुद्ध जुरिबे में नेक जो न मुरके।
नीति देनवारे हैं मही के महिपालन को,
हिये के विसुद्ध हैं सनेही साँचे उर के।
'ठाकुर' कहत हम बैरी बेवकूफन के,
जालिम दमाद हैं अदानिया ससुर के।
चोजिन के चोजी, महा मौजिन के महाराज,
हम कविराज हैं पै चाकर चतुर के।‘

स्फुट रूप से ठाकुर के मुक्तक अनेक प्राचीन-अर्वाचीन काव्य-संग्रह में स्थान पाते रहे हैं, परंतु उनके पद्यों के संग्रह दो ही सामने आये हैं। प्रथम संग्रह 'ठाकर शतक' नाम से रामकृष्ण वर्मा की देखरेख में काशी से 1904 ई. में मुद्रित हुआ था। इसके संग्रहकर्ता चरखारी निवासी काशीप्रसाद थे। परिचय के रूप में प्रारंभ में इस पर एक पंक्ति छपी है : ‘जिसमें ठाकुर कवि रचित एक सौ उत्तम सवैया और कवित्त हैं।‘ दूसरा संग्रह जो वास्तव में इसी का संशोधित एवं परिवर्द्धित संस्करण कहा जा सकता है, 'साहित्य-सेवक' कार्यालय, काशी से 1926 ई. में प्रकाशित किया गया इसका संपादन लाला भगवानदीन ने किया है । इसमें 'ठाकुर शतक' के 107 छंदों में से केवल तीन को छोड़कर शेष सभी ‘ठाकुर ठसक' में समाविष्ट कर लिये गये हैं, यद्यपि संपादक ने 'शतक' को ठाकुरों की कविता की 'खिचड़ी' कहा है। दीनजी ने इतना श्रेयस्कर कार्य अवश्य किया है कि शतक में प्राप्त छंदों के अतिरिक्त 88 छंद और खोजकर प्रकाशित कर दिये हैं। किसी पांडुलिपि के अभाव में उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध ही कही जायगी। अपने संग्रह में दीनजी ने उन चार छंदों को भी सम्मिलित कर लिया है, जिन्हें आरंभ में उन्होंने स्वयं असनीवाले ठाकुरों की रचना बताया है। 'ठाकुर ठसक' दीनजी द्वारा संपादित ठाकुर की स्फुट कृतियों का प्रसिद्ध संग्रह है। उसकी भूमिका में उनके संबंध मे स्पष्ट लिखा है कि ‘हमारे हिंदी साहित्य में तीन व्यक्ति ठाकुर नाम के कवि हो गये हैं, दो तो असनी (फतेहपुर) के थे। और एक जैतपुर (बुंदेलखंड) के। असनीवाले भट्ट थे और जैतपुर वाले कायस्थ, जिनकी कविता प्रायः लोगों के मुख से सुनी जाती है और जिनका लोगों में अधिक मान है, वे जैतपुर वाले ठाकुर थे। दीनजी के अनुसार असनीवाले ठाकुरों की कविता ठेठ रीतिबद्ध परंपरा की कविता थी और उनकी भाषा रीतिकाव्य में प्रचलित परिनिष्ठित ब्रजभाषा। जैतपुरी ठाकुर की भाषा में बुंदेलीपन और काव्य-वस्तु में प्रेम-तत्त्व की प्रधानता के साथ रीति परंपरा के विषयों का प्रायः अभाव मिलता है।

भारतेंदु हरीशचंद्र के ‘सखा प्यारे कृष्ण के गुलाम राधारानी के’ से अंत होने वाले आत्मपरिचयपरक कवित्त पर ठाकुर के ऊपर उद्धृत छंद की छाया प्रतीत होती है। भारतेंदु के और छंदों, विशेषकर सवैयों पर ठाकुर की भाव-भंगिमा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। सवैया छंद में ठाकुर की सहज गति थी। भाषा शैली अकृत्रिम और ओजस्वितापूर्ण होते हुए भी कोमल भावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। लोकोक्तियों और लोक-प्रचलित शब्दों का प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में स्थान-स्थान पर पर्याप्त उपयुक्त ढंग से किया है।

ठाकुर द्वारा अपने समय में प्रतिष्ठित एवं प्रचलित काव्य को लक्ष्य में रखकर दी गयी कविता की परिभाषा अत्यंत मार्मिक है :

‘मोतिन की-सी मनोहर माल गहै तुक अक्षर जोरि बनावै।
प्रेम को पंथ कथा हरि नाम की उक्ति अनूठी बनाइ सुनावै।
'ठाकुर' सो कवि भावत मोहिं जो राजसभा में बड़प्पन पावै।
पंडित और प्रबीनन को जोइ चित्त हरे सो कवित्त कहावै।‘

इसके अतिरिक्त ‘डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच, लोगन कवित्त कीवो खेलि करि जानो है’ लिखकर उन्होंने अपने काल की ह्रासोन्मुखी कविता पर तीखा व्यंग्य भी किया है।

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