स्वयंभू का परिचय
स्वयंभू जैन परंपरा के पहले कवि हैं। इनका समूचा साहित्य उपलब्ध है। कला और भाव-संवेदना की दृष्टि से भी ये एक प्रौढ कवि सिद्ध हुए हैं। इनकी रचनाएँ प्राकृत काव्य-धारा और मध्यकालीन हिन्दी काव्य-धारा के बीच एक अनिवार्य पीठिका है। स्वयंभू ने दक्षिण भारत और उत्तर भारत की सीमा भूमि में रहकर काव्यसाधना की। यह अंतिम तथ्य, उनके साहित्य को केवल उत्तर भारत की आर्य भाषाओं के साहित्य से जोड़ता ही नहीं, बल्कि अनार्य भाषाओं के साहित्य से भी समानता बतलाता है!
स्वयंभू कर्नाटक के एक साहित्यिक घराने के पिता मारुत देव और माँ पद्मिनी की संतान थे। इस घराने में तीन पीढ़ियों से साहित्य-साधना की परंपरा चली आ रही थो। कवि स्वयंभू ने दो विवाह किये। 'पउमचरिउ' के अयोध्याकांड और विद्याधर कांड के अंत में इन दोनों पत्नियों का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि उनकी पत्नियाँ साहित्य-साधना में अपने कवि पति की सहायिका थीं। उनके कई पुत्रों और शिष्यों में से त्रिभुवन ने उत्तराधिकार के रूप में पिता से साहित्य-परम्परा पायी थी। प्रवाद यह भी है कि ‘पउमचरिउ’ को त्रिभुवन ने ही पूरा किया था।
कवि ने अपने जन्म और स्थान के संबंध में कुछ नहीं लिखा। उनके पुत्र ने भी नहीं। फिर भी ‘पउमचरिउ’ में आचार्य रविषेण का उल्लेख है। इनका समय ई. 677 है। स्वयंभू का उल्लेख अपभ्रंश कवि पुष्पदंत ने किया है, उनका समय 959 ई. के लगभग है। फिर अपनी रचना 'रिट्ठनेमि चरिउ' में कवि ने आचार्य जिनसेन का उल्लेख किया है। उनका समय 783 ई. है। ऐसा जान पड़ता है कि जिनसेन स्वयंभू से कुछ ही समय पहले हुए; अतः कवि का समय ई. 677 से 783 ई. के बीच कहीं समझना चाहिए। इस तथ्य के आधार पर उन्हें हम आठवीं सदी के प्रथम चरण का मान सकते हैं। जन्म और जीवन की तरह उनकी मृत्यु के विषय में भी कोई उल्लेख नहीं मिलता।
कवि स्वयंभू ने अपने प्रदेश और संरक्षकों के संबंध में जानकारी नहीं दी है। पर जिन नामों की उनके साहित्य में चर्चा हुई है, ये सब दक्षिणवासी प्रतीत होते हैं। सारांशतः कवि को कर्नाटक का होना चाहिए। इस संबंध में 'पउमचरिउ' की भूमिका में डॉ. भायाणी ने कुछ तर्क दिये हैं। उनका कहना है कि कवि ने पाँच पाण्डवों, द्रौपदी और कुंती की उपमा गोदावरी के सात मुखों से दी है। यह दक्षिणवासी के लिए ही सम्भव है। राहुल सांकृत्यायन ने 'हिन्दी काव्य-धारा' में कल्पना की है कि स्वयंभू कन्नौज के थे। पर ठोस प्रमाण के अभाव में उन्हें उत्तर भारतीय मानना ठीक नहीं। दक्षिण भारत के इतिहास से सिद्ध है कि वहाँ के लेखक आर्य भाषाओं में साहित्य रचना करते रहे हैं। अधिकांश संस्कृत-प्राकृत साहित्य दक्षिण-वासी जैन आचार्यों द्वारा लिखा गया है, कवि ने ससुर के अर्थ में 'माम्' शब्द का प्रयोग किया है। मामा का ससुर होना दक्षिण भारत में ही संभव है, उत्तर भारत में नहीं। इन आधारों पर कहा जा सकता है कि स्वयंभू का संबंध दक्षिण भारत से ही था।
इनकी अभी तक कुल तीन रचनाएँ मिली हैं, 'पउमचरिउ', 'रिट्ठनेमि चरिउ' और ‘स्वयंभू छंद'। 'पउमचरिउ' में राम का चरित्र विस्तार से वर्णित है, जिसमें राम को अंत में मुनींद्र से उपदेश के बाद जैन आदर्शों के अनुकूल निर्वाण प्राप्त करते दिखाया गया है। यह ग्रंथ 5 कांड तथा 83 संधियों वाला विशाल महाकाव्य है जिसे अपभ्रंश का आदिकाव्य माना जाता है। तुलसी कृत ‘रामचरितमानस’ पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। 'रिट्ठनेमि चरिउ' में कृष्णकथा का और ‘स्वयंभू छंद’ में प्राकृत और अपभ्रंश छंदों पर विचार किया गया है। स्वयंभू को अपभ्रंश भाषा का ‘वाल्मीकि’ कहा जाता है।
स्वयंभू के वैयक्तिक जीवन का विवरण बिलकुल ही उपलब्ध नहीं है, फिर भी कुछ उक्तियों से उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की झलक मिल ही जाती है। वह अपने बारे में 'पउमचरिउ' की भूमिका में यह कहते हैं, 'मेरा शरीर दुबला पतला और लंबा है। नाक चिपटी और दांत विरल हैं।' वे शारीरिक सौन्दर्य की जगह आत्मसौन्दर्य के प्रशंसक थे। कवि की व्यवहार और नीति-सम्बन्धी उक्तियों से यह स्पष्ट है कि वह भावुक होते हुए भी उदार और विचारशील थे। जैसी उनकी ऊँची प्रतिभा थी वैसा ही गहरा उनका अध्ययन भी था। भारतीय साहित्य में उनका मूल्यांकन और सम्मान करने के लिए इतना ही कह देना पर्याप्त है कि वह प्रथम उदार और लोकभाषा के कवि हैं। यद्यपि उनके कोई 4-5 सौ वर्ष पहले विमलसूरि प्राकृत में रामचरित का गान कर चुके थे, पर स्वयंभू में उदारता और साहित्यिकता अधिक है।
तुलसी रामकथा के समर्थ भाषाकवि हुए। यद्यपि इन दोनों कवियों की विषय-वस्तु, भाषा और दार्शनिक मान्यता में बहुत अंतर है, फिर भी कई बातों में वे समान भी हैं। दोनों अपने युग की भाषाओं में लिखते हैं, पौराणिकता दोनों में है, अपनी-अपनी विशेष दार्शनिक परिधि में दोनों की दृष्टि उदार है, एक में राम जिन-भक्त हैं, दूसरे में शिवभक्त। एक उन्हें मोक्षगामी मानता है, दूसरा विशिष्टाद्वैत का प्रतीक। एक राम साधारण मानवता से पूर्ण विकास की ओर बढ़ते हैं, दूसरे में परमात्मा राम मनुष्य का अवतार ग्रहण करते हैं। स्वयंभू ने जिन और शिव की अभिन्नता दिखायी है और तुलसी राम और शिव की अभिन्नता दिखाते हैं। कवि स्वयम्भू एक ओर काव्य और आगम में पारंगत थे तो दूसरी ओर लोक का अनुभव भी उन्हें था, अतः उनमें प्रौढ़ता, भक्ति की तन्मयता और सरसता तीनों हैं। प्रबंध कौशल और प्रकृति चित्रण में वह सिद्धहस्त हैं। उनकी उक्तियाँ रसभरी हैं और संवाद व्यंग्यपूर्ण। उनकी कथा अलंकारो के बीच चलती है। कवि स्वयंभू भारत के उन भाग्यशाली साहित्यिकों में से हैं, जिन्हें अपने जीवनकाल में ही प्रसिद्धि मिल गयी थी। परवर्ती अपभ्रंश कवियों ने उनका सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है।