सूरति मिश्र का परिचय
जन्म :आगरा, उत्तर प्रदेश
ये आगरा के रहने वाले थे। इनका जन्मकाल 1683 ई० माना जाता है। इनके पिता का नाम सिंहमनि और काव्य-गुरु का नाम 'गंगेस' था। ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह, जोधपुर के दीवान अमर सिंह, बीकानेर के राजा जोरावर सिंह तथा नसरुल्लाखाँ के आश्रय में रहे। इनके शिष्यों में जयपुर के शिवदास और अलीमुहिम खाँ 'प्रीतम' ('खटमल बाईसी' के लेखक) महत्त्वपूर्ण हैं।
सुरति मिश्र के निम्नलिखित ग्रंथ कहे जाते हैं- ‘काव्य सिद्धांत’, 'अलंकार-माला', 'रस माला', 'सरस रस', 'रस ग्राहक चंद्रिका', 'रस रत्नाकर', 'शृंगारसार', 'रसरत्न माल', 'नखशिख', 'प्रबोधचंद्रोदय नाटक', ‘भक्त-विनोद’, ‘बैताल पचीसी’, ‘रासलीला’ और ‘दानलीला’। इनमें 'काव्य सिद्धांत’ महत्त्वपूर्ण रचना है। इसकी हस्तलिखित प्रति सवाई महेंद्र पुस्तकालय ओरछा, टीकमगढ़ में उपलब्ध है। इसमें काव्य-शास्त्र के सभी अंगों पर विचार किया गया है। साथ ही कवि-शिक्षा का विषय भी इसमें आ गया है अन्य ग्रंथों में अलंकार, रस, शृंगार तथा नख-शिख आदि विविध रीतिकालीन विषयों का स्वतंत्र रूप से भी विवेचन किया गया है। कछ ग्रंथ भक्तिपरक हैं और इनके 'भक्तमाल' नामक ग्रंथ के आधार पर इन्हें वल्लभ संप्रदाय में भी माना जा सकता है।
ये टीकाकार के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने 'बिहारी सतसई की 'अमरचंद्रिका' नामक टीका और ‘कविप्रिया' तथा 'रसिक प्रिया' की टीकाएँ लिखी हैं। इन टीकाओं से इनके काव्यशास्त्र के व्यापक ज्ञान तथा इनकी मार्मिक दृष्टि का परिचय मिलता है। 'अलंकार माला' का रचनाकाल 1709 ई. तथा ‘अमरचंद्रिका' का 1737 ई. दिया गया है। इसके आधार पर इनका समय अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। पंडित विश्वनाथ मिश्र के अनुसार ये आगरा में एक कवि सम्मेलन के सभापति चुने गये जिसमें इन्होंने ब्रजभाषा काव्य-रचना संबंधी कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिये थे।