सुंदरदास का परिचय
सुंदरदास प्रसिद्ध संत दादूदयाल के शिष्य थे। निर्गुण संत कवियों में ये सर्वाधिक शास्त्र-निष्णात, सुपठित और व्युत्पन्न व्यक्ति थे। इनका जन्म सन् 1596 ई. में राजस्थान राज्य के दौसा जिले में एक खंडेलवाल वैश्य परिवार में हुआ था। दादूदयाल ने ही इनके रूप से प्रभावित होकर इनका नाम 'सुंदर' रखा था। दादू के एक अन्य शिष्य का नाम भी सुंदर था, इसलिए इन्हें छोटे सुंदरदास कहा जाने लगा। कहते हैं कि छह वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था। ग्यारह वर्ष की अवस्था में ये अध्ययन के लिये काशी आये और अठारह वर्ष तक वेदांत, साहित्य और व्याकरण का अध्ययन करते रहे। अध्ययन के उपरांत फतेहपुर (शेखावटी) लौटकर इन्होंने बारह वर्ष तक निरंतर योगाभ्यास किया। फतेहपुर रहते हुए इनकी मैत्री वहाँ के नवाब अलिफ खाँ से हो गयी थी। अलिफ खाँ स्वयं भी काव्य प्रेमी था। इन्होंने देशाटन भी खूब किया था, विशेषतः पंजाब और राजस्थान के सभी स्थानों में ये रम चुके थे। इनकी मृत्यु सांगानेर में सन् 1689 ई. में हुई। राजस्थान सरकार ने इनकी स्मृति में दौसा शहर में इनका पैनोरमा बनवाया है, जहाँ पर्यटकों के लिए इस संत के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है।
सुंदरदास की छोटी-बड़ी कुल 42 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनमें 'ज्ञानसमुद्र', 'सुंदर विलास', 'सांगयोग प्रदीपिका', 'पंचेन्द्रिय-चरित्र', 'सुख समाधि', 'अद्भुत उपदेश', 'स्वप्नप्रबोध', 'वेद विचार', 'उक्त-अनूप', 'पंच प्रभाव' और 'ज्ञानझूलना' आदि प्रमुख हैं। इन कृतियों का एक अच्छा संस्करण पुरोहित हरिनारायण शर्मा द्वारा संपादित होकर 'सुंदर ग्रंथावली' नाम से दो भागों में राजस्थान रिसर्च सोसाइटी, कलकत्ता से सन् 1936 ई. में प्रकाशित हो चुका है।
सुंदरदास के मुख्य कार्यस्थल दौसा, सांगानेर, नरायणा और फतेहपुर शेखावटी रहे। इन्होंने दादू पंथ में 'नागा' साधु वर्ग प्रारंभ किया। सुंदरदास के कई शिष्य थे जिनमें दयालदास, श्यामदास, दामोदरदास, निर्मलदास और नारायणदास मुख्य थे।इन पाँचों के थांभों को बड़े थांभे कहते हैं। इनमें भी फतेहपुर का थांभा बड़ा माना जाता है। इसलिए ये सुंदरदास फतहपुरिया भी कहलाते हैं।
सुंदरदास ने भारतीय तत्त्वज्ञान के सभी रूपों को शास्त्रीय ढंग से हिंदी भाषा में प्रस्तुत कर दिया है किंतु यह समझना भूल होगी कि ये षट्-दर्शनों के शास्त्रनिर्णीत मतवादों में एक पंडित जैसी आस्था रखते थे। इन्होंने शास्त्रीय तत्त्वज्ञान से अधिक महत्त्व अनुभव-ज्ञान को देते हुए कहा है- ‘जाके अनुभव-ज्ञान वाद में न बह्यौ है।’ इनका जीवन के प्रति सामान्य दृष्टिकोण वही था, जो अन्य संतों का था। ये योग मार्ग के समर्थक और अद्वैत वेदांत पर पूर्ण आस्था रखने वाले थे।
व्युत्पन्न होने के कारण इनकी रचनाएँ छन्दतुक आदि की दृष्टि से निर्दोष अवश्य हैं किंतु उनका स्वतंत्र भावोन्मेष रीत्यधीनता के कारण दब-सा गया। हिंदी के अतिरिक्त इन्हें संस्कृत, पंजाबी, गुजराती, मारवाड़ी और फ़ारसी आदि भाषाओं की भी अच्छी जानकारी थी। इनकी भाषा व्याकरण-सम्मत है और इन्होंने अलंकारादि का प्रयोग भी सफलतापूर्वक किया है। रीति-कवियों का अनुसरण करते हुए इन्होंने चित्र-काव्य की रचना भी की है। वस्तुतः सुंदरदास की रचनाएँ संत-काव्य के शास्त्रीय संस्करण के रूप में मान्य हो सकती हैं।