शंख घोष की संपूर्ण रचनाएँ
कविता 10
उद्धरण 31
अदृश्य किंतु श्रुतिगोचर छंद के प्रवाह के मध्य ही शब्द बहते चले आते हैं, फलस्वरूप छंद का नक़्शा अत्यंत सुनियमित हो उठने के साथ-साथ शब्द मानों नेत्रहीनों की तरह आकर एक-दूसरे की देह से सट जाते हैं, वे अनिवार्य रूप आ जाते हैं, इसके द्वारा निपुण और सुगठित एक पद्य-पंक्ति पाई जा सकती है, किंतु उसमें उस समय अकसर सजीव व्यक्तित्व का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता।
शब्दों की क्या कोई अपनी पवित्रता होती है? जड़ निष्चल अकेला एक शब्द, उसकी कोई शक्ति नहीं, जनन नहीं, किसी दूसरे शब्द के समवाय संघर्षण से वह जल उठता है। जिस तरह अग्निदेवता समस्त पापहर्ता हैं, कविता भी वैसी ही होती है। उसकी अग्नि में जो कुछ भी समिधा के रूप में आ पाता है, वही अंत में पवित्रता अर्जित करता है।