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शमशेर बहादुर सिंह

1911 - 1993 | देहरादून, उत्तराखंड

समादृत कवि-गद्यकार और अनुवादक। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

समादृत कवि-गद्यकार और अनुवादक। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

शमशेर बहादुर सिंह का परिचय

जन्म : 13/01/1911 | देहरादून, उत्तराखंड

निधन : 12/05/1993 | अहमदाबाद, गुजरात

शमशेर बहादुर सिंह आधुनिक हिंदी कविता के प्रमुख कवियों में से एक हैं। उन्हें नागार्जुन और त्रिलोचन के साथ हिंदी कविता की ‘प्रगतिशील त्रयी’ में शामिल किया जाता है। वह नई कविता के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। नई कविता का आरंभ अज्ञेय के ‘दूसरा सप्तक’ से माना जाता है जहाँ शमशेर एक प्रमुख कवि के रूप में शामिल हैं। 

शमशेर का जन्म 13 जनवरी 1911 को देहरादून में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा देहरादून में ही हुई, फिर वह उच्च शिक्षा के लिए गोंडा और इलाहबाद विश्वविद्यालय गए। 18 वर्ष की आयु में उनका विवाह धर्मवती से हुआ। छह वर्षों के सहजीवन के बाद 1935 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। अल्पायु में माता की मृत्यु और युवपन में पत्नी की मृत्यु से उनके जीवन में उत्पन्न हुआ यह अभाव सदैव उनके अंदर बना रहा। 

नई कविता के कवियों में शमशेर अपनी अनुभूतिपरक अभिव्यक्ति, जटिल बिंब-विधान और प्रयोगधर्मिता के लिए विशिष्ट माने जाते हैं और इससे उनकी एक अलग पहचान बनती है। निराला को अपना काव्य-गुरु मानने वाले शमशेर ने प्रकृति और प्रयोग की प्रेरणा निराला से प्राप्त की। उन्होंने छायावादी, प्रगतिवादी और प्रयोगवादी—सभी धाराओं की कविताएँ लिखी, पर अपनी अभिव्यक्ति और शिल्प की विशिष्टता के कारण वह किसी भी वाद में फँसते नज़र नहीं आते और इसलिए समकालीन काव्य आंदोलनों से प्रभावित होकर भी विलग बने रहते हैं।  

शमशेर की संवेदनशीलता उन्हें एक बड़ा और विशिष्ट कवि बनाती है। प्रतिगातिवादी चेतना और प्रयोगवादी चेतना के परस्पर अंतर्विरोध उनकी कविताओं में घुल जाते हैं और एक आकर्षक सामंजन का सृजन करते हैं। उनकी रचनात्मकता का एक विशेष दृष्टिकोण यह है कि वह अनुभूति की सच्चाई पर बल देते हैं। यह सच्चाई ही उन्हें फिर यथार्थपरक अभिव्यक्ति और मानवीय भावनाओं का कवि बनाती है। 

शमशेर की अनुभूतियाँ इतनी विविध और जटिल रही हैं कि वह किसी पारंपरिक ढाँचे में अभिव्यक्त नहीं हो सकती थीं। यही कारण है कि वह अपना स्वयं का शिल्प विकसित करते हैं। उनकी कविताओं का शिल्प अनूठा है जिसे उन्होंने किसी कुशल शिल्पकार की तरह प्रयोग किया है। इसके साथ ही कविता में वह शब्दों की मितव्ययिता पर बल देते हैं। कई कविताएँ महज संकेतों में ही अपना पाठ दे पाती है। इससे पाठक को पाठ की व्यापक छूट प्राप्त होती है और उनके ‘अपने अपने शमशेर’ तैयार होते हैं। भाषा को लेकर भी वह अत्यंत सजग रहे और इसकी अवहेलना के ख़तरे से आगाह किया। उन्होंने अपनी कविताओं में उर्दू के शब्दों का भी खुलकर इस्तेमाल किया और हिंदी-उर्दू की दूरी पाटने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।  

हिंदी में चित्र और संगीत पर कविताओं का विधिवत आरंभ शमशेर से ही माना जाता है। मुक्तिबोध ने कहा था कि शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार की है। उनकी कविताओं में रंग अपनी संपूर्ण आभा के साथ बिखरे नज़र आते हैं। उन्हें चित्रकला और काव्यकला के बीच के सेतु के रूप में देखा जाता है।   

कुछ कविताएँ (1956), कुछ और कविताएँ (1961), चुका भी नहीं हूँ मैं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता-अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981), काल तुझसे होड़ है मेरी (1988) उनके कविता-संग्रह हैं जबकि उनका एकमात्र कहानी-संग्रह ‘प्लाट का मोर्चा’ शीर्षक से संकलित है। ‘दोआब’ उनकी आलोचनात्मक कृति है। शमशेर का समग्र गद्य ‘कु्छ गद्य रचनाएँ’ तथा ‘कुछ और गद्य रचनाएँ’ नामक पुस्तकों में संगृहीत हैं। 

उन्हें ‘चुका भी नहीं हूँ मैं’ कविता-संग्रह के लिए वर्ष 1977 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

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