सरहपा का परिचय
सिद्धों में ये सबसे पुराने हैं। वज्रयानी चौरासी सिद्धों में सरहपा को आदिम सिद्ध माना गया है। इन्हें सरहपा भी कहते हैं। इनके दूसरे नाम राहुलभद्र और सरोज-वज्र हैं। पूर्वी प्रदेश के ये किसी 'राज्ञी' नगरी के निवासी थे। वर्तमान में यह स्पष्ट नहीं है कि इस नाम की नगरी कहाँ पर थी। सरहपा पाल वंशीय राजा धर्मपाल के समकालीन थे। धर्मपाल का समय ई. 768-809 माना जाता है। डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने सरहपा का समय 633 ई. माना है किंतु किसी परिपुष्ट प्रमाण से सरहपा का काल यह सिद्ध नहीं होता। राहुल सांकृत्यायन ने सरहपा का समय 769 ई. स्थिर किया है जो अब हिंदी अकेडमिया में सर्वमान्य है।
सिद्ध सरहपाद अच्छे विद्वान थे। अपने समय के ज्ञान के प्रसिद्ध केंद्र नालंदा से भी इनका जुड़ाव रहा था। आगे के वर्षों में ये बौद्ध धर्म की तंत्र-मंत्र प्रधान वज्रयान शाखा से जुड़ गए। लोक-मान्यता है कि श्रीपर्वत (आंध्र प्रदेश) पर भी सरहपाद ने वज्रयान तंत्र की कठिन साधना की थी।
सिद्ध सरहपा के 32 ग्रन्थों की चर्चा की जाती रही है। डॉ. प्रबोधचंद्र बागची ने इनकी रचनाओं को ‘दोहाकोश’ नामक ग्रंथ में संकलन किया है। ‘दोहाकोश’ में तिल्लोपा और कान्हपा की रचनाएँ भी संकलित हैं। सरहपाद के दोहा-कोष पर श्री अद्वयवज्र की संस्कृत-पंजिका भी खोज में मिली है, जो कलकत्ता यूनिवर्सिटी के ‘जर्नल ऑफ दि डिपार्टमेंट ऑफ लेटर्स’ में प्रकाशित हुई है।
सरहपा के साहित्य से जो इनकी जीवन-दृष्टि परिलक्षित होती है, उसके मुख्य आधार सहज संयम, पाखंड-विनाश, गुरु सेवा, सहज मार्ग और महासुख की प्राप्ति है। वज्रयान के परवर्ती सिद्धों की बानी में जो स्वच्छन्दाचार दिखाई देता है, वह सरहपा की बानी में लगभग नहीं के बराबर है। सहज शून्यावस्था से प्राप्त महासुख का, सहज में स्थित महारस का इनकी बानी में बडा सुंदर वर्णन मिलता है। सरहपा के मतानुसार समरस सहज अवस्था में स्थित हो जाना ही साधक का परम पुरुषार्थ है। उस अवस्था में कुछ भी भेद-भाव शेष नहीं रह जाता। वर्ण-व्यवस्था का, ऊँच-नीच भाव का तथा धर्म के नाम पर चलने वाले बाह्याचारों का सरहपा ने बडा ज़ोरदार खंडन किया है। इन्होंने ब्राह्मणों की ही नहीं, जैन मुनियों की भी ख़बर ली है, उनके लोमोत्पाटन और पिच्छी-ग्रहण जैसे संस्कारों की हँसी उड़ाई है।
इनकी भाषा का नाम विद्वानों ने ‘संधाभाषा’ या ‘संध्याभाषा’ दिया है और इसका अर्थ यह बताया है कि यह एक ऐसी भाषा है जिसमें संध्या के समान प्रकाश तथा अंधकार का मिश्रण है। ज्ञान के आलोक से उस भाषा में निहित भाव स्पष्ट हो जाते हैं। सरहपा की भाषा मगही अपभ्रंश है, जो निश्चय ही हिन्दी का पूर्व रूप है। डॉ. बी. भट्टाचार्य ने इसे बंगला का पूर्वरूप सिद्ध करने की असफल चेष्टा की है। बच्चनसिंह ने इनकी भाषा पर विचार करते हुए लिखा है कि ‘आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।’