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संत पीपा

1359 - 1420 | झालावाड़, राजस्थान

संत पीपा का परिचय

ये गागरोनगढ़ के राजा प्रसिद्ध हैं। कहा गया है कि पहले इन्होंने बारह वर्ष तक देवी की भक्ति की, पर एक दिन देवी से प्रार्थना की कि मुझे माया का सुख नहीं चाहिए, मुझे मुक्ति दो। देवी ने असमर्थता प्रकट कर कहा कि काशी में रामानंद रहते हैं, उन्हें गुरु बनाओ तो वे भक्ति का उपदेश करेंगे जिससे निश्चय तुम्हें मुक्ति मिलेगी। तब ये सौ सवार और पाँच सौ पैदल साथ लेकर काशी में रामानंद से दीक्षा लेने गए। मठ के द्वार पर चौकीदारों ने रोका कि यह रामानंद जी का स्थान है, यहाँ राजाओं का कोई काम नहीं। यहाँ रात-दिन केवल राम-नाम का सुमिरन होता है। पर ये अड़े रहे, तब रामानंद ने इनकी कड़ी परीक्षा लेकर इन्हें माला तिलक दिया और यह कहकर विदा किया कि एक वर्ष पश्चात् मैं तुम्हारे देश आऊँगा। कहते हैं, एक वर्ष बीतने पर कबीर, रैदास आदि चालीस संतों के साथ रामानंद पीपा के देश गए और दस दिन वहाँ रहकर पीपा के साथ मंडली द्वारका तक गई, जहाँ से मंडली तो फिर लौट आई पर पीपा ने बहुत देशाटन किया।

पीपा की एक रानी सीता भी भक्त हो गई थी। इसके अतिरिक्त बहुत सी चमत्कारपूर्ण बातें इनके विषय में जोड़ दी गई है। जैसी प्रायः प्रसिद्ध भक्तों के चरित्र में जोड़ दी जाती है। इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि ये एक सच्चे संत थे और इनकी ख्याति राजस्थान और गुजरात में बहुत फैल गई थी। इनकी रानी सीता ने उसी भक्तिभाव से इनके साथ अनेक कष्ट सहकर संतचर्या का निर्वाह किया। इनके विषय में कहा गया है कि पूरब में कबीर, रैदास, दक्षिण में नामदेव, उत्तर में धन्ना और बाँधोगढ़ में सेन ने जैसे भक्ति की मर्यादा रखी, उसी प्रकार पीपा ने पश्चिम में भक्ति का प्रचार किया।

इनके समय के विषय में निश्चित रूप से कुछ ज्ञात नहीं। फर्कुहर ने इनका जन्म सं. 1482 में माना है तथा कनिंघम ने 1417 और 1442 के बीच इनका समय निर्धारित किया है। इन दोनों मतों पर विचार करते हुए श्री परशुराम चतुर्वेदी ने इनका जन्म वर्ष 1465 और 1475 वि. के बीच माना है। जो ठीक जान पड़ता है।

पीपा के नाम से एक पद बहुत प्रसिद्ध है, जिसमें वे कहते हैं कि 'यदि कलिकाल में कबीर न होते तो लोकवेद और कलियुग मिलकर भक्ति को रसातल पहुँचा देते। पडितों ने तरह-तरह से सगुण भक्ति की बातें कह-कहकर जगत् को भरमाया और कायारोग बढ़ाया। गुरुमुख से निर्गुण-भक्ति का उपदेश न पाने से भ्रम में पड़े। इसमें हम जैसे पतित तो मार्गों की भूल-भुलैया में भटकते ही रह जाते। त्रिगुणातीत भगवद्भक्त विरला ही कोई पाता है। भक्ति का प्रताप रखने के लिये निज जन समझ उन्होंने स्वयं उपदेश दिया, जिससे पीपा को कुछ मिल गया।' इससे प्रकट होता है कि पीपा के गुरु रामानंद नहीं, कबीर थे। यदि ऐसा है तो मानना पड़ेगा कि रामानंद के जो बारह या तेरह शिष्य प्रसिद्ध हैं, वे सभी उनके शिष्य नहीं, उनमें प्रशिष्य भी होंगे। नाभादास ने तो शिष्यों के नाम गिनाकर कहा भी है कि 'औरौ शिष्य प्रशिष्य एक से एक उजागर', जिसका अर्थ हो सकता है कि गिनाए गए व्यक्तियों में भी सभी शिष्य नहीं, उनमें प्रशिष्य भी हैं। यह भी संभव है कि रामानंद की मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ शिष्य कबीर का अन्य शिष्यों पर बहुत प्रभाव था और वे उन्हें गुरुवत् मानते थे।

'ग्रंथ साहब' में इनका एक पद है, जिसके अनुसार 'काया ही देवल, देव, धूप, दीप, नैवेद्य सब कुछ है। इसी के भीतर खोजने से नवनिधि मिल गई और कहीं आने-जाने की आवश्यकता नहीं है। जो ब्रह्मांड में है वही पिंड में भी। इससे इनकी भक्ति स्पष्टतः कबीर की ही भाँति अंतर्मुखी भावभक्ति है।

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