संत लालदास का परिचय
विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी में संत लालदास हुए। इन्होंने 'लालपंथ' की स्थापना की। इनके अनुयायी अलवर राज्य में और उसके आसपास पाए जाते हैं। संत लालदास का जन्म अलवर राज्य के ही एक गाँव मे सं. 1565 में हुआ था। इनके माता-पिता मेव जाति के साधारण गृहस्थ थे। मेव लोग मुसलमान होते हैं, परंतु उनका रहन-सहन और उनके रीति रिवाज हिंदुओं के से होते हैं। ये लोग प्राचीन काल से लूटपाट आदि अपराधमूलक कर्म करते रहे हैं। इसी जाति में जन्म लेकर इन्होंने अपनी बाल्यावस्था तो माता पिता के ही साथ व्यतीत की, परंतु बड़े होने पर ये एक लकड़हारे के रूप में अपना जीवन-निर्वाह करने लगे। बचपन से ही इन्हें साधु-संतों की संगति प्रिय थी और संत-संगति का उनके कोमल मन पर ऐसा दृढ़ संस्कार पड़ गया कि उनके जीवन का रूप ही बदल गया और वे लकड़हारा लालदास से संत लालदास हो गए।
संत समागम के प्रभाव से इनका हृदय निर्मल और आचरण पवित्र हो गया और इनमें दया और परोपकार के भाव भर गए। अन्य संतों की भाँति ये भी हिंदू मुसलमान, ऊँच-नीच सबको समान समझने लगे और परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का भय इनके मन में नहीं रह गया। इनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैलने लगी और गदन चिश्ती नामक एक फ़क़ीर के अनुरोध से ये लोगों को उपदेश भी देने लगे। अपने जन्म के गाँव धौलीधूप को छोड़कर ये अलवर से कुछ दूर एक गाँव मे जाकर रहने लगे और वहाँ अपना अतिरिक्त समय दीन-दुखियों की सेवा में बिताने लगे, परंतु अपनी जीविका के लिये ये भिक्षा या दान का सहारा न लेकर अपना लकड़हारे का ही काम करते रहे। इनके जीवन और उपदेशों का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ने लगा और बहुत से लोग इनके शिष्य हो गए।
सर्वव्यापक निराकार परमात्मा की भक्ति तथा हिंदू-मुसलमान सबकी समानता का उपदेश देने वाले संतों पर तत्कालीन शासकों का कोप समय-समय पर हुआ ही करता था। सो एक बार कुछ लोगों के यह शिकायत करने पर कि लालदास ईश्वर की प्रार्थना में मुसलमानों की भाँति इस्लाम धर्म के नियमों का पालन नहीं करते, तिजारा के शासनाधिकारी ने इन्हें शिष्यों सहित कारागार का दंड दिया। एक मुगल की हत्या के आरोप में भी इन्हें अर्थदंड भुगतना पड़ा। इन्हें विषैले कुएँ का पानी पीने का दंड दिया गया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया, परंतु कहते हैं कि कुएँ का पानी मीठा हो गया और वह कुआँ आज तक 'मीठा कुआँ’ के नाम से प्रसिद्ध है। इन्हें कई बार एक गाँव से दूसरे गाँव में अपना निवासस्थान बदलना पड़ा।
संत लालदास विवाहित थे और इनके दो संतानें थीं। संत लालदास की मृत्यु, 108 वर्ष की अवस्था में संवत् 1705 में हुई। भरतपुर राज्य के नगला नामक गाँव को इनका समाधि-स्थान होने के कारण लालदासी लोग, उसे बहुत पवित्र मानते हैं।
संत लालदास की रचनाओं का कोई संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। एक हस्तलिखित संग्रह स्वर्गीय पुरोहित हरिनारायण शर्मा के पुस्तकालय में सुरक्षित है जिसका नाम 'लालदास की चेतावणी' है। इनकी भाषा बहुत सरल है और उसमें खड़ीबोली की प्रधानता दिखाई पड़ती है। फ़ारसी के शब्दों का भी प्रयोग इन्होंने अपनी भाषा में किया है। संत का जीवन किस प्रकार का होना चाहिए, इसका उपदेश इन्होंने अपनी रचनाओं में किया है। जैसे, 'भक्त को जीविका के लिये घर-घर भिक्षा माँगना बड़े दुःख और लज्जा की बात है अतः उसे बादशाह से भी भिक्षा नहीं माँगनी चाहिए।' तथा 'साधु को भिक्षा या चाकरी के लिये दूसरों के घर कभी नहीं जाना चाहिए। अपने परिश्रम से जीविकोपार्जन करना चाहिए और हृदय में अपने को केवल हरि का ही चाकर या दास समझना चाहिए।'
"लाल जी भगत भीख न माँगिए, माँगत आवे शरम।
घर-घर टाँडत दुःख है, क्या बादशाह क्या हरम॥
लाल जी साधु ऐसा चाहिए, धन कमाके खाय।
हिरदे हरि की चाकरी पर घर क्यूँ न जाय॥"
कबीर, दादू आदि संतों की भाँति लालदास भी एक निराकार, सर्वव्यापक, सत्यस्वरूप हरि या राम की अनन्य भावभक्ति और सत्य आचरण तथा सरल व पवित्र जीवन पर बहुत ज़ोर देते हैं।