मुनि रामसिंह का परिचय
ये एक जैन मुनि थे और सुप्रसिद्ध प्राकृत-वैयाकरण हेमचंद्राचार्य के पूर्ववर्ती थे। अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी में विद्यमान थे। डॉ. हीरालाल मुनि रामसिंह का आविर्भाव सं. 1057 वि. के आसपास मानते हैं। ‘करहा' अर्थात् ऊँट शब्द का अनेक बार प्रयोग इनके दोहों में मिला है, इससे अनुमान कर लिया गया है कि मुनि रामसिंह कदाचित् राजपूताने के निवासी रहे होंगे; पर इस अनुमान के पीछे कोई और पुष्ट प्रमाण नहीं है।
'पाहुड़-दोहा’ की एक हस्तलिखित प्रति के अंत में योगींद्रदेव नाम भी आया है, जिससे यह भी अनुमान किया गया था कि 'योगसार' के रचयिता योगींद्रदेव का नाम ही रामसिंह रहा हो; पर इसका भी कोई प्रबल प्रमाण नहीं। अनुमान है कि मुनि रामसिंह 'सिंह' नामक संघ के अनुयायी रहे होंगे, जिसे आचार्य अर्हद बलि ने स्थापित किया था। 'पाहुड़-दोहा' से पता चलता है कि मुनि रामसिंह स्वतंत्र प्रकृति के एक ऊँचे रहस्यवेत्ता संत थे।
इनकी एक कृति ‘पाहुड़ दोहा’ मिली है। 'पाहुड़' का संस्कृत रुपान्तर 'प्राभृत' किया गया है, जिसका अर्थ 'उपहार’ होता है, अतः पाहुड़-दोहा' का अर्थ हुआ दोहों का उपहार। कुंद कुंदाचार्य के भी अधिकांश ग्रंथ ‘पाहुड़’ कहे जाते हैं।
इनकी भाषा अपभ्रंश है। हिन्दी का यह एक पूर्व-रूप है। मुनि रामसिंह की पाहुड़-बानी में उच्चकोटि का अनुभवगम्य अध्यात्म मिलता है। इनके दोहों को पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है मानो उपनिषदों की सूक्तियाँ पढ़ रहे हैं। स्वानुभवशून्य कोरे ज्ञानवाद और निस्सार क्रिया-कांड को पाहुड़-बानी में कुछ भी महत्त्व नहीं दिया गया है। धर्म के नाम पर जो अनेक बाह्याचार और पाखंड प्रचलित हुए हैं, उन सबका इस जैन संत ने प्रबल खंडन किया है। उनका कहना है—"घट के अंतर में बसनेवाले देव के दर्शन करो। क्यों व्यर्थ तीर्थों में भटकते हो? क्यों पत्थर के बड़े-बड़े मंदिर बनवाते हो? और 'यह देह ही देवालय है। इसमें वह परमदेव अधिष्ठित है, जिसकी अनेक शक्तियाँ है उसी की आराधना करो।'
पाहुड़-बानी में योग-साधना की निर्मल झाँकी मिलती है, लगभग वैसी ही जैसी ब्राह्मण एवं बौद्ध-काव्यों में मिलती हैं। इनकी उपमाएँ अनूठी हैं। शैली सरल और सरस है। काव्य-रस अनुभव-गम्य है और कोरा शब्द-पांडित्य भी कहीं खोजने पर भी नहीं मिलता। सांप्रदायिकता तथा भेद-भावना को मुनि रामसिंह ने अपनी बानी में कहीं भी स्थान नहीं दिया। तभी तो यह स्वानुभवी संत इस निर्मल पद को गा सका—
"कासु समाहि करउ को अचउ।
छोपु अछोपु भणिवि को वंचउं॥
हल सहि कलह केण सम्माणउ।
जहि-जहि जोवउं तहि अपाणउं॥"
अर्थात् समाधि किसकी लगाऊँ? पूजूँ किसे? छूत-अछूत कहकर किसे छोडूँ? भला, किसके साथ कलह करूँ? जहाँ भी देखता हूँ, सर्वत्र अपनी ही आत्मा दिखाई देती है।