कुलपति मिश्र का परिचय
जन्म :आगरा, उत्तर प्रदेश
ये आगरा निवासी परशुराम मिश्र के पुत्र थे। इनके मामा महाकवि बिहारी प्रसिद्ध हैं। ‘संग्रामसार’ में इन्होंने किन्हीं केशवराम को अपना नाना बताया है। ये पहले विष्णुसिंह नामक किसी सामन्त के आश्रय में रहे, बाद में बिहारी के आश्रयदाता कूर्मवंशीय महाराज जयसिंह के पुत्र महाराज रामसिंह के यहाँ रहे। ये भूषण के समकालीन थे।
‘मिश्रबंधु विनोद’ में इन्हें भूषण-काल के अंतर्गत ‘परमोत्तम’ कवियों में स्थान दिया गया है और सुखदेव मिश्र के साथ इन्हें ‘भारी आचार्य’ कहकर इनकी प्रशंसा की गयी है। अन्य विद्वान भी इनके आचार्यत्व तथा संस्कृतज्ञान की प्रशंसा करते हैं। इनका रचनाकाल सन् 1667 ई. से 1686 ई. तक ठहरता है। इनकी प्रमुख रचना ‘रस रहस्य’(1670 ई.) के अतिरिक्त अन्य रचनाएँ ‘द्रोणपर्व (1680 ई.), ‘युक्तितरंगिणी’ (1686 ई.), ‘नखसिख’ और ‘संग्रामसार’ हैं। भगवतीप्रसाद सिंह ‘दुर्गाभक्ति चंद्रिका’ को एवं रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ तथा भगीरथ मिश्र ‘गुण रस-रहस्य’ को भी इन्हीं की रचनाएँ मानते हैं। कुलपति ने ‘रस रहस्य’ में एक सीमा तक मम्मट का आधार ग्रहण किया है किंतु ‘काव्य प्रकाश’ की अपेक्षा विवेचन शिथिल और अपरिपक्व है। कुछ पुस्तकों में ‘संग्रामसार’ के स्थान पर ‘संग्रह-सार’ तथा ‘संग्राम-सागर’ और ‘युक्तितरंगिणी’ के स्थान पर ‘मुक्ति तरंगिणी’ भी छपा है। ‘गुण रस-रहस्य’ भी ‘रस- रहस्य’ ही प्रतीत होता है। ‘रस रहस्य’ सन् 1954 ई. में ‘इंडियन प्रेस’ प्रयाग से मुद्रित हो चुका है।
हिंदी रीतिकालीन आचार्यों में, जिनकी प्रवृत्ति काव्य-शास्त्र के गंभीर प्रसंगों के विवेचन की है, कुलपति भी परिगणनीय हैं। इनकी गिनती लक्ष्य तथा लक्षण दोनों को समान रूप से समुचित स्थान देनेवाले आचार्य चिंतामणि, मतिराम, देव, श्रीपति, सोमनाथ तथा भिखारीदास के साथ की जाती है। विवेचन की दृष्टि से ये कारिकावृत्ति शैली के आचार्यों की श्रेणी में और विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से समग्र-विषयों पर लिखकर भी रसवादी आचार्यों में गणनीय ठहरते हैं। मौलिक सिद्धांत प्रतिपादन-कर्ता आचार्यों की कोटि में तो इन्हें स्थान नहीं दिया जा सकता और न हिंदी के अधिकांश आचार्य इस कोटि में रखे ही जा सकते हैं, किंतु विषय को सरल और सुबोध बनाकर प्रस्तुत करने में तथा अधिक से अधिक सही रूप में उपस्थित करने में ये श्रेष्ठ आचार्यों में स्थान पाने योग्य हैं। विशेषता यह है कि अन्होंने गद्य-वार्त्तिक का भी सहारा लिया है। गद्य की भाषा परिमार्जित, प्रायः अस्पष्ट और वाक्य-रचना दुरूह सी जान पड़ती है। स्वयं रसवादी होते हुए भी इनकी रचना में रस-निर्वाह सम्यक रूप से नहीं हो सका है। इनका ध्यान विशेषतः आचार्यत्व पर ही केंद्रित रहा, कवित्व उपेक्षित-सा रह गया है। कल्पना, चित्रयोजना और सुकोमलता पद-विन्यास की दृष्टि से इनका काव्य द्वितीय श्रेणी का ही माना जा सकता है। आचार्यत्व में अवश्य ही इन्होंने सोमनाथ तथा प्रतापसाहि की कृतियों को प्रभावित किया है।