कृष्णदास का परिचय
जन्म :गुजरात
अष्टछाप के प्रथम चार कवियों में सबसे छोटे कृष्णदास थे। उनका जन्म सन् 1495 ई. के आसपास गुजरात प्रदेश के एक ग्रामीण कुनबी परिवार में हुआ था। सन् 1509 ई. में वे पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए और सन् 1575 और 1581 ई. के बीच उनका देहावसान हुआ। बाल्यकाल से ही कृष्णदास में असाधारण धार्मिक प्रवृत्ति थी। 12-13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपने पिता के एक चोरी के अपराध को पकड़कर उन्हें मुखिया के पद से हटवा दिया था। इसके फलस्वरूप पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया और वे भ्रमण करते हुए ब्रज में आ गये। उसी समय श्रीनाथजी का स्वरूप नवीन मंदिर में प्रतिष्ठित किया जाने वाला था। श्रीनाथजी के दर्शन कर वे बहुत प्रभावित हुए। वल्लभाचार्य से भेंट कर उन्होंने संप्रदाय की दीक्षा ग्रहण की। कृष्णदास में असाधारण बुद्धिमत्ता, व्यवहार-कुशलता और संगठन की योग्यता थी। पहले उन्हें वल्लभाचार्य ने भेंटिया (भेंट उगाहनेवाला) के पद पर रखा और फिर उन्हें श्रीनाथजी के मंदिर के अधिकारी का पद सौंप दिया। अपने इस उत्तरदायित्व का कृष्णदास ने बड़ी योग्यता से निर्वाह किया। मंदिर पर गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के बंगाली ब्राह्मणों का प्रभाव बढ़ता देखकर कृष्णदास ने छल और बल का प्रयोग कर उन्हें निकाल दिया। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कृष्णदास को बंगालियों की झोपड़ियों में आग लगानी पड़ी तथा उन्हें बाँसो से पिटवाना पड़ा।
उनके चरित्र के बारे में कुछ किंवदंतियाँ भी प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि श्रीनाथजी के मंदिर में कृष्णदास अधिकारी का ऐसा एकाधिपत्य हो गया था कि एक बार उन्होने स्वयं गोसाई विट्ठलनाथ से सेवा का अधिकार छीनकर उनके भतीजे श्री पुरुषोत्तम जी को दे दिया था । लगभग छह महीने तक गोसाईं विट्ठलनाथ श्रीनाथजी से वियुक्त होकर परासौली में निवास करते रहे। महाराज बीरबल ने कृष्णदास को इस अपराध के दंडस्वरूप बंदीखाने में डलवा दिया था परंतु विट्ठलनाथ जी ने महाराज बीरबल की इम आज्ञा के विरूद्ध अनशन कर कृष्णदास को मुक्त करा दिया। विट्ठलनाथजी की इस उदारता से प्रभावित होकर कृष्णदास को अपने मिथ्या अहंकार पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने गोस्वामीजी के प्रति भी भक्ति-भाव प्रकट करना प्रारंभ कर दिया तथा उनकी प्रशंसा में वे पद-रचना भी करने लगे। वास्तव में गोस्वामीजी के प्रति कृष्णदास ने जो दुर्व्यवहार किया था, उसका कारण कुछ और था। गंगाबाई नामक एक क्षत्राणी से कृष्णदास की गहरी मित्रता थी। एक बार गोस्वामीजी ने उनके इस संबंध पर कुछ कटु व्यंग्य किया जिससे कृष्णदास ने असंतुष्ट होकर उनसे यह बदला लिया।
एक बार विषम ज्वर की अवस्था में प्यास लगने पर उन्होंने वृंदावन के अन्यमार्गीय वैष्णव ब्राह्मणों के यहाँ जल नहीं पिया, जब एक पुष्टिमार्गीय भंगी के यहाँ का जल लाया गया तब उन्होंने अपनी प्यास बुझायी।
कृष्णदास के अंतिम समय की घटना भी उनके स्वभाव की तामसी प्रवृत्ति को चरितार्थ करती है। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार किसी वैष्णव के कुएँ के निमित्त दिये हुए 300 रुपए में से उन्होंने दो सौ रूपये कुएँ में व्यय करके 100 रुपए छिपा लिए थे। उसी अधूरे कुएँ में गिरकर उनका शरीर लुप्त हो गया और वे प्रेत बन गये। जब गोसाईं विट्ठलनाथ ने एक ग्वाल से कहकर गड़े हुए रूपये निकलवाये और गोसाईंजी ने कुआँ पूरा कराया तब उनकी सद्गति हुई।
चरित्र की इतनी दुर्बलताएँ होते हुए भी कृष्णदास को सांप्रदायिक सिद्धांतों का बहुत अच्छा ज्ञान था और भक्तगण उनके उपदेशों के लिए अत्यंत उत्सुक रहा करते थे। उस समय जातीय भेदभाव और छुआछूत अपने चरम पर थे। लेकिन कृष्णदास की अनन्य भक्ति और व्यवहार- कुशलता के कारण उनका कथित रूप से शूद्र जाति के होने से भी उनके रुतबे में कहीं कमी नहीं आने पायी। अपने संप्रदाय में उनका स्थान उस समय अग्रगण्य था और उन्होंने ‘पुष्टिमार्ग’ के प्रचार में जो सामयिक योग दिया वह कदाचित् 'अष्टछाप' में अन्य भक्त कवियों की अपेक्षा कहीं अधिक सराहा जाता था। कृष्णदास ने कृष्णलीला के अनेक प्रसंगों पर पद-रचना की है। प्रसिद्ध है कि पदरचना में सूरदास के साथ वे प्रतिस्पर्धा करते थे। इस क्षेत्र में भी अपने स्वभाव के अनुसार उनकी इच्छा सर्वोपरि स्थान ग्रहण करने की थी। भले ही कृष्णदास ने उच्चकोटि की काव्यरचना न की हो, उन्होंने अपने प्रबंध-कौशल द्वारा उन परिस्थितियों के निर्माण में अवश्य महत्त्वपूर्ण योग दिया, जिनके कारण सूरदास, परमानंददास, नंददास आदि महान कवियों को अपनी प्रतिभा का विकास करने के लिए अवसर मिला। कृष्णदास के ‘राग-कल्पद्रुम’, ‘राग-रत्नाकर’ और संप्रदाय के कीर्तन संग्रहों में प्राप्त पदों का विषय लगभग वही है जो कुंभनदास के पदों का है। अतिरिक्त विषयों में ‘चंद्रावलीजी की बधाई’, ‘गोकुलनाथजी की बधाई’ और ‘गोसाईंजी के हिंडोरा के पद’ विशेष उल्लेखनीय हैं। कृष्णदास के कुल पदों की संख्या 250 से अधिक नहीं है। कृष्णदास के पदों का संग्रह विद्याविभाग, कांकरोली मे प्रकाशित हुआ है।