जांभोजी का परिचय
जांभोजी का जन्म जोधपुर राज्य के नागौर इलाके के पीपासर ग्राम में सन् 1451 (वि.सं. 1508, सोमवार, भाद्रपद कृष्ण अष्टमी) को परमार वंशीय राजपूत परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम लोहित और माता का नाम हंसा देवी था। इनका वास्तविक नाम जंभनाथ या जंभेश्वर था। बाद में इनका जांभोजी नाम प्रचलित हो गया और ये विष्णु अवतार के रूप में पूजे गए। जनश्रुति है कि इन्होंने चौंतीस वर्ष की अवस्था तक एक भी शब्द नहीं बोले और अनेक चमत्कारी कार्य किए, अतः जनता ने इन्हें जांभोजी कहना प्रारंभ किया। सिद्धि प्राप्त हो जाने के अनंतर ये मुनींद्र जंभ ऋषि के नाम मे विख्यात हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कोई विवरण नहीं मिलता है। जनश्रुति है कि जंभनाथ के चौंतीसवें वर्ष में पदार्पण करने पर इनके माता-पिता को इनके गूंगेपन पर चिंता हुई। जंभनाथ की जब पहली बार वाणी फूटी, तो ब्रह्मविषयक उपदेश ही स्फुटित हुए। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे। जांभोजी स्वभाव से बड़े विनयशील तथा उदारचेता थे। जाति-पाँति में उनकी आस्था कभी नहीं रही। वे भ्रमणशील प्रवृत्ति के थे। उन्होंने राजस्थान से बाहर भी अन्य प्रदेशों में अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया था। ये अच्छे कवि थे, परंतु दुर्भाग्य मे उनकी कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं है। जो स्फुट रचनाएँ उपलब्ध हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि उनका भाषा पर अच्छा अधिकार था और अभिव्यंजना की सराहनीय शक्ति थी। उनकी काव्य-भाषा अवधी मिश्रित राजस्थानी थी, जिसमें खड़ी बोली का विकासमान रूप उपलब्ध होता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है :
‘गगन हमारा बाजा बाजे, मूल मंतर फल हाथी।
संसे का बल गुरुमुख तोड़ा, पाँच पुरुष मेरे साथी।
जुगति हमारी छत्र सिंघासन, महासक्ति में बाँसे।
जंभनाथ वह पुरुष विलच्छन, जिन मंदिर रचा अकासे।’
जांभोजी ने अपने आदशों के प्रचारार्थ विश्नोई संप्रदाय की स्थापना की। एक आदर्श जीवन के लिए उन्होंने उनतीस (बीस और नौ) नियम बताए, इसलिए इनके संप्रदाय का नाम बिश्नोई या विश्नोई पड़ गया। जांभोजी के अधिकतर अनुयायी जाट हैं, जो विश्नोई संप्रदाय में दीक्षित हुए। बिश्नोई समाज के ज्यादातर लोग खेती-किसानी और पशुपालन करते हैं और ये बड़े मेहनती एवं निडर होते हैं। संप्रदाय-स्थापना के संबंध में एक दोहा प्रसिद्ध है:
“उणतीस धर्म की आंकड़ी, हृदय धरियो जोय।
जांभोजी जी कृपा करी, नाम विश्नोई होय।”
जांभोजी द्वारा बताये गए उनतीस नियमों में ‘प्रतिदिन स्नान करना’, ‘शील का पालन करना’, ‘संतोष रखना’, ‘तीन समय संध्या उपासना करना’, ‘हवन करना’, ‘पानी व दूध को छानकर उपयोग में लेना’, ‘दया एवं क्षमा को धारण करना’, ‘चोरी व निंदा नहीं करनी’, ‘झूठ नहीं बोलना’, ‘नशा नहीं करना’, ‘नीले रंग का त्याग करना’ ‘जीवों के प्रति दया-भाव रखना’ और ‘हरा वृक्ष नहीं काटना’ प्रमुख हैं। यह पंथ अपने प्रकृति-प्रेम के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। पेड़ों और वन्य-जीवों को बचाने में इनका ऐतिहासिक योगदान है। खेजड़ी के हरे वृक्षों की रक्षा करने के लिए अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में 363 बिश्नोईयों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिये थे, यह घटना ‘खेजड़ली बलिदान’ के नाम से जानी जाती है।
मारवाड़ के राजा के लिए महल बनाए जाने हेतु पेड़ काटने के आदेश का अनुपालन कराने में मारवाड़ के राजा के सैनिकों द्वारा यह हत्याकांड किया गया। यह विश्व भर में वृक्षों को बचाने के लिए अद्वितीय और सर्वोच्च बलिदान है। वर्ष 1787 ई. में जोधपुर (मारवाड़) के महाराजा अभयसिंह के फूल महल के लिए लकड़ियों की आवश्यकता पड़ी। महाराजा के कारिंदे खेजड़ली गाँव में बड़ी संख्या में खेजड़ी के पेड़ देखे तो काटने पहुँच गए। गाँव की अमृता देवी विश्नोई ने इसका विरोध किया। विरोध को अनसुना करने पर अमृता देवी पेड़ के चारों तरफ हाथों से घेरा बना कर खड़ी हो गई। राजा के कारिंदों ने तलवार से उसे मार दिया। इसके बाद बारी-बारी से उसकी तीन पुत्रियों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दिया। पेड़ बचाने के लिए अमृता देवी के शहीद होने का समाचार आसपास के गाँवों में फैला तो बड़ी संख्या में लोग एकत्र हो गए। आसपास के 60 गाँवों के 217 परिवारों के 294 पुरुष, 65 महिलाएँ विरोध करने गाँव पहुँच गईं। ये सभी लोग पेड़ों को पकड़ कर खड़े हो गए। राजा के कारिंदों ने बारी-बारी से सभी को मौत के घाट उतार दिया। एक साथ इतनी बड़ी संख्या में लोगों के मारे जाने की जानकारी महाराजा तक पहुँची तो उन्होंने तुरंत सभी को वापस लौटने का आदेश दिया। इसके बाद महाराजा ने लिखित में आदेश जारी किया कि मारवाड़ में कभी खेजड़ी के पेड़ को नहीं काटा जाएगा। इस आदेश की आज तक पालना होती आई है। तब से लेकर आज तक भादवा सुदी दशमी को ‘बलिदान दिवस’ के रुप में खेजड़ली गाँव में मेला लगता है। यहाँ इन शहीदों का एक स्मारक व वन क्षेत्र विकसित किया हुआ है। इस मेले में हजारों श्रद्धालु पहुँचते हैं और बलिदानियों को नमन करते हैं। राज्य सरकार अमृता देवी के नाम पर पर्यावरण क्षेत्र में सर्वोच्च पुरस्कार भी हर वर्ष प्रदान करती है। उत्तराखंड में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में हुए 'चिपको आंदोलन' की प्रेरणा खेजड़ली आंदोलन से ही मिली थी।अपने जीवनकाल में जांभोजी ने हावली, पावजी, लोहा पागल, दत्तनाथ तथा मालदेव नामक शिष्यों को मान्यता प्रदान की। ये नाथ पंथ से प्रभावित थे। परशुराम चतुर्वेदी का मत है कि इनकी उपलब्ध रचनाओं में भी वस्तुतः देहभेद, योगाभ्यास, कायासिद्धि जैसे विषय अधिकतर पाये जाते हैं। फिर भी यही प्रतीत होता है कि वे संत मत के अनुयायी थे, किन्तु नाथ पंथ का भी प्रभाव उन पर विशेष रूप से पड़ा था। इनकी रचनाओं में ओंकार जप, निरंजन की उपासना, अजपाजप, गगन मंडल, पंच पुरुष, सतगुरु महिमा, सोहंजप, अमृत पान से जरामरण मुक्ति, अनन्य भक्ति आदि का बार-बार उल्लेख हुआ है। हिंदी के अन्य संतों की रचनाओं में सिद्धांत प्रतिपादन तथा साधना-उपदेश प्रसंग में यही शब्दावली सहस्त्रों बार प्रयुक्त हुई है। जांभोजी ने 1523 ई. (सं. 1580 वि.) के लगभग तालवा, बीकानेर में समाधि ली।