हितहरिवंश की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 4
रसना कटौ जु अन रटौ, निरखि अन फुटौ नैन।
स्रवन फुटौ जो अन सुनौ, बिनु राधा-जसु बैन॥
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तनहिं राखु सतसंग में, मनहिं प्रेमरस भेव।
सुख चाहत ‘हरिवंस हित', कृष्ण-कल्पतरु सेव॥
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सबसौ हित निहकाम मन, बृंदाबन बन विस्राम।
राधावल्लभ लाल कौ, हृदय ध्यान, मुख नाम॥
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निकसि कुंज ठाढ़े भये, भुजा परस्पर अंस।
राधावल्लभ-मुख-कमल,निरखत ‘हित हरिबंस'॥
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