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गोरखनाथ

प्रसिद्ध नाथ कवि। मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य, नाथ संप्रदाय के संस्थापक और नौ नाथों में से एक। समय : 845 ई. के आस-पास।

प्रसिद्ध नाथ कवि। मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य, नाथ संप्रदाय के संस्थापक और नौ नाथों में से एक। समय : 845 ई. के आस-पास।

गोरखनाथ का परिचय

सिद्धों से संबद्ध सभी जनश्रुतियाँ इस बात पर एकमत है कि नाथ संप्रदाय के आदि प्रर्वतक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं शिव ही है। उनके दो शिष्य हुए, जालंधरनाथ और मत्स्येंद्रनाथ या मच्छंदरनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य थे कृष्णपाद (कान्हपाद, कान्हपा, कानफा) और मत्स्येंद्रनाथ के गोरख (गोरक्ष) नाथ। इस प्रकार ये चार सिद्ध योगीश्वर नाथ संप्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। परवर्ती नाथ संप्रदाय में मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दंत-कथाएँ प्रचलित हैं। पहली यह कि मत्स्येंद्र और जालंधर गुरुभाई थे और दोनों के प्रधान शिष्य क्रमशः गोरखनाथ और कृष्णपाद (कानपा) थे। दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ किसी विशेष प्रकार के योग मार्ग के प्रवर्तक थे परंतु बाद में किसी ऐसी साधना में आ फंसे थे, जहाँ स्त्रियों का अबाध संसर्ग माना जाता था। 'कौलज्ञान निर्णय' से जान पड़ता है कि यह वामाचारी कौल साधना थी, जिसे सिद्ध कौशल मत कहते थे; गोरखनाथ ने अपने गुरु का वहाँ से उद्धार किया था। तीसरी यह कि शुरू से ही मत्स्येंद्र और गोरख की साधना पद्धति जालंधर और कृष्णपाद की साधना पद्धति से भिन्न थी।
इनके समय के बारे में ये निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं—

(1) मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा लिखित कहे जानेवाले ग्रंथ 'कौलज्ञान निर्णय' की प्रति का लिपिकाल डॉ. प्रबोधचंद्र बागची के अनुसार ग्यारहवीं शती के पूर्व का है। यदि यह ठीक हो तो मत्स्येंद्रनाथ का समय ईस्वी ग्यारहवीं शती से पहले होना चाहिए।

(२) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त के ‘तंत्रालोक’ में मच्छंद विभु को बड़े आदर से स्मरण किया गया है। अभिवनगप्त निश्चित रूप से ई. की दसवीं शती के अंत में और ग्यारहवीं शती के प्रारंभ में विद्यमान थे। इस प्रकार मत्स्येंद्रनाथ इस समय से काफी पहले हुए होंगे।

(3) मत्स्येंद्रनाथ का एक नाम मीननाथ है। वज्रयानी सिद्धों में एक मीनपा हैं जो मत्स्येंद्रनाथ के पिता बताये गये हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्र ई. की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे।

(4) तिब्बती परंपरा के अनुसार कानपा (कृष्णपाद) देवपाल के राज्यकाल में आविर्भूत हुए थे। इस प्रकार मत्स्येंद्र आदि सिद्धों का समय ई. सन् के नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दशवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए।

कुछ ऐसी भी दंतकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का संकेत करती हैं जैसे कबीर और नानक से उनका संवाद, परंतु ये बहुत बाद की बातें हैं, जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। इस बात का ऐतिहासिक सबूत है कि तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसलिए इसके बहुत पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरखनाथी संप्रदाय में मिल गये थे। इनकी अनुश्रुतियों का संबंध भी गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिए कभी-कभी गोरखनाथ का समय और भी पहले निश्चित किया जाता है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'नाथ-संप्रदाय' नामक पुस्तक में उन संप्रदायों के अंतर्भुक्त होने की प्रक्रिया का विस्तार से विवेचन किया है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईस्वी सन् की नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही मानना ही उचित है।

गोरखनाथ के नाम से बहुत-सी पुस्तकें संस्कृत में मिलती हैं और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी चलती हैं।  हिंदी में कुल चालीस रचनाएँ गोरखनाथ की कही जाती हैं, जिनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है। निम्नलिखित पुस्तकों की सूची में कई तो एक-दो पृष्ठों की ही हैं—'सबदी', 'पद', ‘सिष्यादर्सन', 'प्राणसंकली', 'नरवे बोध', ‘आतम बोध',  'अभैमात्रा योग', 'पंद्रह तिथि', 'सप्नवाद', 'मछंद्रगोरख बोध', 'रोमावली', 'ग्यानतिलक', 'ग्यान चौतींस', 'पंचमात्रा', 'गोरखगणेश गोष्ठी', 'गोरावदत्त गोष्ठी', 'महादेवगोरख गुष्ट', 'सिस्टपुराण', 'दयाबोध', 'जाती भौंरावली' (छंद-गोरख), 'नवग्रह', ‘नवरात्र', ‘अष्टपारछया', 'रहरास', 'ग्यानमाल', 'आतमाबोध' (दूसरा), 'व्रत', 'निरंजन पुराण', 'गोरखवचन', 'इंद्री देवता', ‘मूल गर्मावती', 'खाणवारूणी', 'गोरखसत', 'अष्टमुद्रा', 'चौबी सिधि', 'डक्षरी', ‘पंचअग्नि', ‘अष्टचक्र', 'अवलि सिलूक', और 'काफिर बोध’। इनमें अधिकांश ग्रंथ गोरखनाथी मत के संग्रहमात्र हैं। गोरखनाथ ने इनकी रचना की होगी, इसमें भी संशय है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी इनकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं।

गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित योगी संप्रदाय मुख्य रूप से बारह शाखाओं में विभक्त है। इसीलिए इसे बारहपंथी कहते हैं। इस मत के अनुयायी कान फड़वाकर मुद्रा धारण करते हैं, इसलिए उन्हें कनफटा, भाकतफटा योगी भी कहते हैं। गोरखमत के योग को ‘षडंग योग’ कहते हैं, क्योंकि इसमें योग के (यम और नियम को छोड़कर) केवल छ: अंगों का ही महत्त्व है। इनकी साधना-प्रक्रिया को ‘हठयोग’ कहा जाता है। ‘ह’ का अर्थ सूर्य है और ‘ठ’ का अर्थ चंद्रमा है। शरीर में प्राण और अपान, सूर्य और चंद्र नामक जो बहिर्मुखी और अंतर्मुखी शक्तियाँ हैं, उनको प्राणायाम, आसन, बंध आदि के द्वारा सामरस्य में लाने से सहज समाधि सिद्ध होती है। जो कुछ पिंड में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है, इसीलिए हठयोग की साधना पिंड या शरीर को ही केंद्र बनाकर ब्रह्मांड में क्रियाशील शक्ति को प्राप्त करने का प्रयास है। गोरखनाथ के ग्रंथों में इस साधना प्रक्रिया का ही विस्तार है। कुछ अंग दर्शन या तत्त्ववाद के समझाने के उद्देश्य से लिखे गये हैं। गोरखनाथ असली मोक्ष सहज समाधि को मानते हैं। सहज समाधि उस अवस्था को बताया गया है, जिसमें मन स्वयं ही मन को देखने लगता है। उनके ग्रंथों में योगांगों, उनकी प्रक्रियाओं, वैराग्य, ब्रह्मचर्य, सदाचार आदि के उपदेश हैं और माया की निंदा है। तर्क-वितर्क को गर्हित कहा गया है, भवसागर में पच-पचकर मरनेवाले जीवों पर तरस खाया गया है और पाखंडियों को फटकार बतायी गयी है। सदाचार और ब्रह्मचर्य पर गोरखनाथ ने बहुत बल दिया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “शंकराचार्य के बाद भारतीय लोकमत को इतना प्रभावित करनेवाला आचार्य भक्तिकाव्य के पूर्व दूसरा नहीं हुआ। निर्गुणमार्गी भक्ति शाखा पर भी गोरखनाथ का भारी प्रभाव है। निस्संदेह गोरखनाथ बहत तेजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व लेकर आये थे।“

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