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दीनदयाल गिरि

1802 - 1858 | बनारस, उत्तर प्रदेश

रीतिकाल के नीतिकार। भाव निर्वाह के अनुरूप चलती हुई भाषा में मनोहर और रसपूर्ण रचनाओं के लिए प्रसिद्ध।

रीतिकाल के नीतिकार। भाव निर्वाह के अनुरूप चलती हुई भाषा में मनोहर और रसपूर्ण रचनाओं के लिए प्रसिद्ध।

दीनदयाल गिरि का परिचय

दीनदयाल हिंदी नीति-काव्य के प्रमुख स्तंभों में हैं। इनका जन्म सन् 1802 ई. में बनारस में हुआ था। उनकी रचना ‘अनुराग बाग़’ का यह दोहा द्रष्टव्य है :

‘सुखद देहली पे जहाँ, बसत विनायक देव।
पश्चिम द्वार उदार है, कासी को सुर सेव।’

इससे स्पष्ट होता है कि ये काशी के पश्चिमी द्वार पर देहली-विनायक पर रहते थे। ये दशनामी संन्यासी और कृष्णभक्त थे। 'शिवसिंह सरोज' के अनुसार ये संस्कृत और हिंदी के महान् पंडित थे। इनके गुरु का नाम कुशागिरि था। इनकी मृत्यु सन् 1865 ई. में हुई।

इनके 'अनुराग बाग', ‘दृष्टांत-तरंगिणी', 'अन्योक्ति माला', 'वैराग्य दिनेश' और 'अन्योक्ति कल्पद्रुम' ये पाँच ग्रंथ मिलते हैं, जो श्यामसुंदर दास के संपादन में 'दीनदयाल गिरि ग्रंथावली' नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। ‘शिवसिंह सरोज’ में इनके एक अन्य ग्रंथ 'बाग बहार' का उल्लेख मिलता है, किंतु अभी तक उक्त ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। श्यामसुंदर दास के अनुसार 'अनुराग बाग' का ही दूसरा नाम ‘बाग़ बहार’ है। 'अनुराग बाग' कृष्ण लीला विषयक रचना है जो काव्यत्व की दृष्टि से उच्चकोटि की है। 'वैराग्य दिनेश' का विषय वैराग्य है। शेष तीनों ग्रंथ ‘दृष्टांत-तरंगिणी', 'अन्योक्ति माला' और ‘अन्योक्ति कल्पद्रुम’ नीति विषयक हैं। संस्कृत से प्रभावित होते हुए भी इन्होंने अपने ग्रंथों में मौलिकता का सन्निवेश किया है। इनके प्रमुख नीति विषय दैनंदिन जीवन और हमारे आचार-व्यवहार से संबंधित हैं। नीति विषयक कविता लिखने वाले अधिकतर रचनाकार हमारे सामने सूक्तिकार के रूप में आते हैं लेकिन दीनदयाल उन थोड़े से नीतिकारों में हैं, जो कवि-प्रतिभा-संपन्न हैं। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ और बहुत प्रौढ़ है। व्याकरणिक दृष्टि से वह मूलतः ब्रज है किंतु अवधी-भोजपुरी का भी कहीं-कहीं प्रभाव है।

हिंदी के अन्योक्तिकारों में दीनदयाल का स्थान बहुत ऊँचा है। ये अत्यंत सहृदय और भावुक कवि थे। इनकी अन्योक्तियाँ बहुत चर्चित हुई। यद्यपि इन अन्योक्तियों के भाव अधिकांश संस्कृत से लिये हुए हैं, पर भाषा शैली की सरसता और पदविन्यास की मनोहरता के विचार से वे स्वतंत्र काव्य के रूप में हैं। इनकी सी परिष्कृत, स्वच्छ और सुव्यवस्थित भाषा बहुत थोड़े कवियों की है। इनका 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' हिन्दी साहित्य में एक अनमोल वस्तु है। अन्योक्ति के क्षेत्र में कवि की मार्मिकता और सौंदर्य भावना के स्फुरण का बहुत अच्छा अवकाश रहता है। पर इसमें अच्छे भावुक कवि ही सफल हो सकते हैं। इनके प्रिय छंद कुंडलियाँ और दोहे हैं, यों कवित्त, सवैया आदि का भी इन्होंने प्रयोग किया है। कवि की कल्पनाशक्ति बड़ी उर्वरा है, जिसका पता उसके अप्रस्तुत चयन से लगता है।

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