दयाराम की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 110
लाल लली ललि लाल की, लै लागी लखि लोल।
त्याय दे री लय लायकर, दुहु कहि सुनि चित डोल॥
लाल को लली से और लली को लाल से मिलने की इच्छा है। दोनों मुझे कहते हैं, अरी तू उससे मुझे मिलाकर विरहाग्नि को शांत कर। इनकी बातें सुनते-सुनते मेरा भी चित्त विचलित हो गया है।
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चकमक सु परस्पर नयन, लगन प्रेम परि आगि।
सुलगि सोगठा रूप पुनि, गुन-दारू दूड जागि॥
चकमक के सदृश नेत्र जब आपस में टकराते हैं तो उनसे प्रेम की चिनगारियाँ निकलती हैं। फिर रूप रूपी सोगठे (रूई) पर इनके गिरने से आग सुलग जाती है, किंतु पूर्णतया प्रज्वलित तभी होती है जब उसका संयोग गुण रूपी शराब से होता है।
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ऐसो मीठो नहिं पियुस, नहिं मिसरी नहिं दाख।
तनक प्रेम माधुर्य पें, नोंछावर अस लाख॥
प्रेम जितना मिठास न दाख में है, न मिसरी में और न अमृत में। प्रेम के तनिक माधुर्य पर ऐसी लाखों वस्तुएँ न्योछावर है।
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गोकुल ब्रंदावन लिहू, मोपें जुगजीवन्न।
पलटें मोको देहु फिर, गोकुल ब्रंदाबन्न॥
कवि कहता है, मेरी इंद्रियो के समूह (गोकुल) को आप लीजिए, अपने वश में कर लीजिए। तुलसीदल (वृंदा) और जल (वन) अर्थात् वृंदावन से ही आपकी मैं मनुहार कर सकता हूँ, अतः कृपा करके इन्हें स्वीकार कीजिए और इनके बदले में आप मुझे अपने प्रिय धाम गोकुल और वृंदावन में रहने का सौभाग्य प्रदान कीजिए।
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बिरहारति तें रति बढ़ै, पै रुचि बढन न कोय।
प्यासो ज़ख्मी जिए तहूँ, लह्यो न त्यागें तोय॥
विरह की पीड़ा से प्रेम बढ़ता है, पर इस तरह (विरह सहकर) प्रेम को बढ़ाने की रुचि किसी की भी नहीं होती। वैसे ही जैसे प्यासा घायल यह जानते हुए भी कि वह तभी जीवित रहेगा जब वह पानी न पिए, पर प्राप्त जल को वह नहीं त्याग पाता।
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