दरिया (बिहार वाले) का परिचय
दरिया साहब अठारहवीं शताब्दी में आविर्भूत बिहारप्रांतीय निर्गुण संत कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। कहा जाता है कि इनके पूर्वज उज्जैन निवासी क्षत्रिय थे, जो बिहार में आकर बस गये थे और बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया; किंतु बिहार प्रांत के वर्तमान उज्जैनी क्षत्रिय-परिवारों से इनका संबंध नहीं जुड़ता। दलदास दरियापंथी इनका जन्म सन् 1634 ई. में और ‘दरियासागर’ के संपादक सन् 1674 ई. में मानते हैं। धर्मेंद्र ब्रह्मचारी ने पूरी छान-बीन के बाद सन् 1734 ई. में इनका जन्मकाल निश्चित किया है। इनकी मृत्यु सन् 1780 ई. में निश्चित है। इनका जन्म रोहतास जिले के धरकंधा गाँव में हुआ था। नौ वर्ष की अल्प आयु में आपका विवाह हो गया था। बीस वर्ष की अवस्था में ही विरक्त होकर आपने संत-जीवन व्यतीत करना आरंभ किया। आपकी पत्नी शाहमती सदा आपके साथ रहीं। कहा जाता है कि नवाब मीर कासिम ने इन्हें 101 बीघा जमीन प्रदान की थी।
दरिया साहब अपने को कबीर का अवतार मानते थे। यथासाध्य आपने कबीर के पद-चिह्नों पर ही चलने का प्रयत्न किया है। प्रारंभ में आपको अपने गाँव के ही गणेश पंडित और उनके साथियों के उग्र विरोध का सामना करना पड़ा था किंतु धीरे-धीरे आपकी प्रसिद्धि बढ़ती गयी और हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही आपके अनुयायी होने लगे। आपके पंथ में किसी प्रकार की जटिलता नहीं है। साधु और गृहस्थ दोनों ही पंथ में समान रूप से आदृत होते हैं। साधु नंगे सिर रहते हैं, यही उनका चिह्न है। गृहस्थ टोपी पहन सकते हैं। हिंदू और मुसलमान दोनों समान रूप से पंथ में प्रवेश पाते हैं। गृहस्थ संत समाज में समान आचरण करते हैं किंतु गृहस्थी में लौटने पर अपना-अपना कुल व्यवहार निभाते हैं। अब धीरे-धीरे यह पंथ अपना अस्तित्व खोता जा रहा है।
दरिया साहब की कुल बीस रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-'अग्रज्ञान', 'अमरसार', 'भक्ति हेतु', 'ब्रह्म चैतन्य', 'ब्रह्मविवेक', 'दरियानामा', 'दरियासागर', 'गणेशगोष्ठी', 'ज्ञानदीपक, 'ज्ञानमूल', 'ज्ञानरत्न', 'ज्ञानस्वरोदय', 'कालचरित्र', 'मूर्ति उखाड़', 'निर्भयज्ञान', 'प्रेममूल', 'शब्द या बीजक' 'सहसरानी', 'विवेक सागर' और 'यज्ञ समाधि'। धर्मेंद्र ब्रह्मचारी उपर्युक्त रचनाओं को ही प्रामाणिक मानते हैं। इनमें 'ब्रह्म चैतन्य' संस्कृत तथा 'दरियानामा' फ़ारसी में लिखा गया है। शेष कृतियाँ हिंदी में हैं। 'दरियासागर' (बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद), 'प्रेममूल' (शान्ति प्रिण्टिग प्रेस, सहारनपुर) तथा 'ज्ञानदीपक’ (1936 ई.) प्रकाशित हो चुके हैं। दो संग्रह ग्रंथ-'दरियासाहब बिहारवाले के चुने हुए पद’ और ‘साखी' (बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद) और 'दरिया दर्पण' (ग्रंथमाला कार्यालय, पटना) भी प्रकाशित हुए हैं। दरिया साहब की कृतियों में 'ज्ञानस्वरोदय', 'दरियानामा', 'दरियासागर', 'ज्ञानरत्न', 'विवेकसागर', 'शब्द' 'ज्ञानदीपक', 'सहसरानी' विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती हैं। प्रथम दो कृतियों में योग-पद्धति का वैज्ञानिक निरूपण किया गया है। 'दरियासागर' में 'छपलोप' (एक प्रकार की साधना प्रसूत आनंदमयी मनोभूमि) या 'अमरलोक' का वर्णन है। 'ज्ञानरत्न' में रामायण और "विवेकसागर' में महाभारत की कथा को संतमत के अनुकूल उपस्थित किया गया है। 'शब्द' गेय पदों का बृहत् संग्रह है। 'ज्ञानदीपक' में प्रायः वे सभी विषय आ गये हैं, जिनका वर्णन संत साहित्य में किया जाता है। 'सहसरानी' में एक सहस्र से अधिक साखियाँ संगृहीत हैं।
दरिया साहब का प्रतिपाद्य विषय सत्पुरुष का स्वरूप, नाम महिमा, बाह्याचार खंडन, सद्गुरु का महत्व, मुक्त और बद्ध जीव, ब्रह्मांडरूप पिंड का महत्त्व, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत, ज्ञान से मुक्ति, छपलोक का वर्णन, पिपीलिका योग (हठयोग) और विहंगम योग का निरुपण, सृष्टि रचना, माया की जटिलता, भक्ति और प्रेम तथा आत्मानुशासन आदि है। योग-पद्धति तथा सूफ़ी प्रेमसाधना की ओर झुकाव, कबीर को आदर्श रूप में स्वीकार करना, 'छपलोक' की कल्पना, रामायण-महाभारत और पौराणिक आख्यानों की संत मतानुकूल व्याख्या तथा तुलसीदास के अनुकरण पर अवधी-भाषा का अधिक प्रयोग दरियासाहब की विशेषताएँ मानी जा सकती हैं।
दरिया साहब में सामान्य संत कवियों की तुलना में कवित्व-शक्ति कहीं अधिक है। उन्होंने अलंकारों और प्रतीकों का सफल प्रयोग किया है। कुल मिलाकर आपने चालीस प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। यह प्रयोग-वैविध्य आपके पिंगलज्ञान का परिचायक है। आपने फ़ारसी, संस्कृत तथा भोजपुरी और खड़ी बोली मिश्रित अवधी भाषा का प्रयोग किया है। फ़ारसी और संस्कृत में लिखी गयी रचनाएँ व्याकरण सम्मत नहीं हैं। इन भाषाओं में आपका ज्ञान सामान्य स्तर का ही था। शब्द-समूह की दृष्टि से आपकी भाषा के दो रूप हैं- पंजाबीपन लिये हुए फ़ारसी और अरबी शब्द समूह प्रधान-भाषा और संस्कृत शब्दों के तत्सम तद्भव रूपों से युक्त देशज-शब्द-समूह प्रधान भाषा। इनकी वर्णन-क्षमता अच्छी थी। दरिया जी ने प्रबंध और मुक्तक, दोनों शैलियों में रचनाएँ की हैं। इनकी कृतियों में शांतरस का प्राधान्य है। 'ज्ञानरत्न' में अन्य सभी रसों की स्थिति देखी जा सकती है। दरिया साहब हिंदी-संत-परंपरा के एक प्रमुख विचारक, प्रसिद्ध प्रचारक तथा प्रभावशाली व्यक्ति थे। उत्तर मध्यकाल में संतमत की संपूर्ण विशेषताओं का सफल प्रतिनिधित्व करने वाले ये अकेले संत हैं।