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चंदबरदाई

1168 - 1192 | लाहौर, पंजाब

हिंदी के प्रथम महाकवि। वीरगाथा काल से संबद्ध। ‘पृथ्वीराज रासो’ कीर्ति का आधार-ग्रंथ।

हिंदी के प्रथम महाकवि। वीरगाथा काल से संबद्ध। ‘पृथ्वीराज रासो’ कीर्ति का आधार-ग्रंथ।

चंदबरदाई का परिचय

मूल नाम : चंदबरदाई

जन्म :लाहौर, पंजाब

निधन : तौंसा शरीफ़, पंजाब

चंदबरदाई का जन्म लाहौर में हुआ था। बाद में वह अजमेर-दिल्ली के सुविख्यात हिंदू नरेश पृथ्वीराज के राजकवि और सहयोगी हो गए थे। इससे उसका अधिकांश जीवन महाराजा पृथ्वीराज चौहान के साथ दिल्ली में बीता था। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पृथ्वीराजरासो’ है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने पिंगल कहा है, जो राजस्थान में ब्रजभाषा का पर्याय है। इसलिए चंदवरदाई को हिन्दी का प्रथम महाकवि माना जाता है। 'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और शृंगार दो ही रस है। चंदबरदाई ने इस ग्रंथ की रचना प्रत्यक्षदर्शी की भाँति की है।

चंद की उपस्थिति 'पृथ्वीराज रासो' में दो प्रकार से दर्ज़ हुई है, एक तो कथा-नायक के सहचर के रूप में और दूसरे काव्य के कवि के रूप में। कहीं तो यह चंद विरदिआ है, कहीं चंद, कहीं चंदबरदाई और कहीं भट्ट चंद। 'विरदिआ' या 'विरुदिआ' का अर्थ है विरुद (प्रशस्ति) का गान करने वाला। 'बरदाई’ या ‘वरदाई’ का अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं है किंतु रचना में एक स्थान पर आता है कि उसे सिद्धि का वर प्राप्त था।

चंदबरदाई के संबंध में प्रायः यह प्रसिद्ध रहा है कि इसका जन्म पृथ्वीराज के साथ-साथ हुआ और दोनों का प्राणांत भी साथ-साथ हुआ। पहली प्रसिद्धि का आधार 'रासो' का एक दोहा रहा है, जो उसके समस्त रूपों में नहीं मिलता है और इसीलिए जिसकी प्रामाणिकता नितांत संदिग्ध है। दूसरी प्रसिद्धि का आधार ‘रासो’ की कथा रही है जिसमें शब्दवेधी बाण की सहायता से पृथ्वीराज द्वारा शहाबुद्दीन गोरी का वध कराने के अनंतर पृथ्वीराज और चंद का प्राणांत होना कहा गया है। एक प्रसिद्धि और रही है कि इसी कारण चंद अपने काव्य को पूरा नहीं कर सका था, और वह इस संभावना को जानते हुए जब पृथ्वीराज का उद्धार करने गजनी जाने लगा था, उसने अपने पुत्र जल्हण को इस रचना को पूरा करने का कार्य सौंपा था। इसका आधार भी ‘रासो’ में आये हुए छंद हैं किंतु ये छंद ‘रासो’ के सबसे अधिक प्रक्षिप्त रूप में ही मिलते हैं अन्य में नहीं, इसलिए विश्वसनीय नहीं है।

यह चंद वास्तव में पृथ्वीराज का समकालीन और उसका सहचर था, यह रचना से पूर्णतः प्रामाणित नहीं होता है, कारण कि इस एक रचना छोटे-बड़े अनेक रूप उपलब्ध हैं, और उनमें तथ्यों की भिन्नता भी बहुत अधिक है। 'रासो' के जितने भी पाठ हैं, उनकी सहायता से उसका कोई भी ऐसा पाठ नहीं तैयार किया जा सकता जो इतिहास से कुछ न कुछ विरुद्ध न जाता हो। यही कारण है कि इस ग्रन्थ की प्रमाणिकता को लेकर सवाल उठने शुरू हुए। श्यामसुन्दर दास, मिश्र बंधु, कर्नल टॉड और मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या ने जहाँ इसे प्रमाणिक ग्रन्थ बताया है, वहीं आचार्य रामचंद्र शुक्ल, देवीप्रसाद, कविराजा श्यामलदास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, बूल्हर और मुरारिदान जैसे इतिहासकारों ने इसे अप्रमाणिक बताया है। मुनि जिनविजय, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी और डॉ. दशरथ ओझा ने बीच का रास्ता निकालते हुए इस ग्रन्थ को अर्ध-प्रमाणिक बताया है। इस ग्रन्थ में 68 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है जिनमें कवित्त, छप्पय, दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या मुख्य हैं। चंद को ‘छप्पय’ छंद का विशेषज्ञ माना जाता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘पृथ्वीराज रासो’ को जाली ग्रंथ घोषित करते हुए भी चंदबरदाई को हिंदी का प्रथम महाकवि और ‘पृथ्वीराज रासो’ को हिंदी का पहला महाकाव्य घोषित किया है। इस ग्रंथ का महत्व इसी से प्रमाणित हो जाता है। उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में रचना के कई और भी रूप-रूपान्तर प्राप्त हुए हैं। इसलिए अब रचना की ऐतिहासिकता का प्रश्न पीछे चला गया है।

इधर राजस्थान के कुछ विद्वान रासो' को सोलहवीं-सत्रहवीं शती की रचना बताने लगे हैं। यह बात उसके सबसे बड़े रूप के सम्बन्ध में ही किसी हद तक ठीक मानी जा सकती है और वह भी इस अर्थ में कि यह सबसे बड़ा रूप सोलहवीं-सत्रहवीं शती में इस आकार-प्रकार में आया होगा किन्तु रचना अपने मूल रूप में बहुत प्राचीन रही होगी, इसमें अब कोई सन्देह नहीं रहा है। प्रसिद्ध जैन विद्वान मुनि जिन विजय जी को कुछ ऐसे जैन प्रबन्ध मिले हैं, जिनमें पृथ्वीराज और जयचन्द की रचनाएँ आती हैं और इनमें चार छप्पय ऐसे मिले हैं, जिसमें से तीन 'पृथ्वीराज रासो' में मिलते हैं। अन्तर केवल भाषा के रूप का है। जैन प्रबन्धों में इन छप्पयों की जो भाषा मिलती है, वह अपेक्षाकृत पुरानी ज्ञात होती है। इन जैन प्रबन्धों की जो प्रतियाँ मिली हैं, उनमें से एक 1471 ई. की है, इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा कि उक्त छप्पय 1471 ई. के इतने काफी पहले रचे गये होंगे कि विद्वानों में उनकी मान्यता प्राप्त हो गयी हो। यदि 1471 ई. की प्रति के सौ-सवा सौ वर्ष पहले भी इन छन्दों की रचना मानी जाय, जो कि किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं होगा तो इन छन्दों की रचना 1343 ई. के आसपास ठहरती है।

कुछ विद्वानों ने इन छन्दों के विषय में यह समाधान सोच निकाला है कि पृथ्वीराज सम्बन्धी कुछ स्फुट छन्द प्रचलित थे, उन्हीं में से कुछ इन जैन प्रबन्धों में उद्धृत किये गये हैं। कोई 'रासो' जैसी प्रबन्धात्मक कृति का होना इन छन्दों से प्रमाणित नहीं होता है किन्तु यह कल्पना सर्वथा निराधार है। ये सभी छन्द ऐसे हैं, जो विशिष्ट प्रसंगों के हैं और किसी प्रबन्ध के बाहर इनकी कल्पना नहीं की जा सकती है। वीर-रस के काव्य की दृष्टि से तो 'रासो' अपने लघुतमरूप में भी अप्रतिम है। दुखांत कथा को आधार बनाते हुए डॉ. बच्चनसिंह ने इसे ‘राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी’ कहा है क्योंकि हिन्दी का कोई भी अन्य काव्य वास्तविक वीरता का, जिसमें अपनी आन के लिए मर मिटने की साध ही सर्वोपरि होती है, इतना ऊँचा आदर्श नहीं प्रस्तुत करता है, जितना यह।

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