भगवत रसिक का परिचय
मूल नाम : भगवत रसिक
भगवत रसिक बहुत निर्भीक, निस्पृह, सत्यवादी और त्यागी स्वभाव के महात्मा थे। ललित मोहिनीदास के निधन के उपरांत गद्दी का अधिकार भी आपने स्वीकार नहीं किया और एकांत में रहकर भजन में लीन रहते थे। इनके काव्य को पढ़कर दो तथ्य बड़े स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। एक तो इनकी वाणी में सत्य कथन की प्रबल शक्ति है। पाखंड और दंभ से इन्हें बहुत ही चिढ़ थी। ये अपने साथियों को भी फटकारने और उनकी कमजोरियों को छुड़ाने के लिए कठोर वचन कहने में नहीं चूकते थे।
भगवत रसिक के जन्म स्थान, जाति, वंश आदि का विवरण कहीं प्राप्त नहीं होता। ये ‘टट्टी संप्रदाय’ के महात्मा स्वामी ललित मोहिनीदास के शिष्य थे। ललित मोहिनीदास संवत् 1766 ई. से 1801 ई. तक टट्टी संस्थान की गद्दी पर आसीन रहे, अतः इस काल में भगवत रसिक भी जीवित थे। हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों तथा ‘निंबार्क संप्रदाय’ के ग्रंथों में इसी आधार पर इनका जन्म सन् 1738 ई. में स्थिर किया गया है।
रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें ‘सच्चा प्रेमयोगी महात्मा’ लिखा है। यथार्थ में इनका काव्य इसका पूरा-पूरा प्रमाण है। इनके काव्य की दूसरी उल्लेख्य विशेषता है कला समन्वित होना। साधुओं की वाणी प्रायः कलाविहीन और सीधी-सादी ही पायी जाती है किंतु भगवत रसिक की वाणी में कला के अनुरूप अलंकार, लक्षण, व्यंजना, माधुर्य, ओज, व्यंग्य आदि सभी उपकरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है आपने संस्कृत काव्य-शास्त्र का विधिवत् अध्ययन करके हिन्दी काव्य क्षेत्र में प्रवेश किया था। इनका एक ग्रंथ 'अनन्य निश्चयात्मक ग्रंथ’ संवत् 1914 ई. में लखनऊ से प्रकाशित हुआ था। इनकी एक ‘ध्यान मंजरी’ और कुछ स्फुट छंद भी उपलब्ध हुए हैं। इनके पदों में प्रेमलक्षणा भक्ति के साथ व्यावहारिक दृष्टि से जीवन-निर्माण के उपाय भी मिलते हैं। अर्थ-संचय में लीन लोभी मनुष्यों को सामने रखकर इन्होंने कहा है :
"जगत में पैसन ही की मांड।
पैसन बिना गुरु को चेला, खसमें छोड़े रांड॥"
भगवत रसिक ने सांप्रदायिक दृष्टि से भी बड़ी निःस्पृहता का रुख स्वीकार किया है। वे चतुःसंप्रदाय की सीमाओं में अपने को बाँधना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा है :
‘आचारज ललिता सखी, रसिक हमारी आप।
नित्य किशोर उपासनी, बुगल मंत्र का जाप॥
नाहीं द्वैताद्वैत हरि, नहीं विशिष्टाद्वैत।
बंधे नहीं मतवाद में, ईश्वर इच्छा द्वैत॥'