अर्जुनदास केडिया के दोहे
सूम साँचि धरि जात धन, भाग्यवान के हेतु।
दाँत दलत पीसत घिसत, रस रसना ही लेतु॥
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काटत हू बितरत बिमल, परिमल मलयज-मूल।
सींचत हू घृत दूध मधु, सूलहि सृजत बबूल॥
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कै धन धनिक कि धनिक धन, तजिहैं अवसि अक्रूर।
तिहिं धन लौं त्यागत धरम, तिन धनिकन-सिर धूर॥
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प्रकृति न पलटत साधु खल, पाय कुसंग सुसंग।
पंक-दोष पदम न गहत, चंदन गुन न भुजंग॥
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अनहित हू जो जगत को, दुर्जन बृश्चिक ब्याल।
तजत न, तो हित क्यों तजै, संतत संत दयाल॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere