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अलबेलीअलि

1713

राधाकृष्ण भक्त। विष्णु स्वामी संप्रदाय से संबंध। वंशीअली के शिष्य। युगल भक्ति के कोमल पदों के लिए स्मरणीय।

राधाकृष्ण भक्त। विष्णु स्वामी संप्रदाय से संबंध। वंशीअली के शिष्य। युगल भक्ति के कोमल पदों के लिए स्मरणीय।

अलबेलीअलि का परिचय

 

श्री अलबेलीअलि ‘ललितसंप्रदाय’ के स्वनामधन्य कवि हुए हैं। यद्यपि साहित्यिक क्षेत्र में उनकी पर्याप्त ख्याति है, किंतु उनके जीवन-चरित, काव्य तथा व्यक्तित्व के सूत्र अभी तक पूर्ण रूप से प्रकाश में नहीं आये हैं। उनकी निजी उक्तियों से यह सिद्ध होता है कि वे श्री वंशीअलि जी के शिष्य थे। वंशीअलि अपनी उपासना पद्धति को नवीन रूप देने वाले प्रसिद्ध महात्मा हुए हैं। ‘विष्णुस्वामी’ की दार्शनिक विचारधारा से वे प्रभावित थे। इसके अतिरिक्त इनका कोई वृत्त ज्ञात नहीं। 

अलबेली अलि की 'वृंदावनसत' आरंभिक रचना है, जिसका समय 1750 ई. है। अनुमान है कि इस ग्रंथ की रचना के समय इनकी अवस्था लगभग 35 वर्ष रही होगी और उन्होंने इस ग्रंथ की रचना से 5-7 वर्ष पूर्व श्री वंशीअलि जी से दीक्षा ली होगी। अनुमान के अनुसार इनका दीक्षा समय 1743 ई. और जन्म 1713 ई. के आसपास ठहरता है। आचार्य शुक्ल ने इनका कविता-काल 18 वीं शताब्दी का अंतिम समय माना है। हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रन्थों में इनका नामोल्लेख हुआ है, परंतु इनके संबंध में कोई विशिष्ट सूचना उनमें नहीं दी गयी। केवल उनकी रचनाओं के आधार पर उनका संप्रदाय ‘विष्णुस्वामी’ तथा उनका वंशीअलि जी से दीक्षा लेना ही लिखा गया है। 

श्री वंशीअलि जी के सिद्धान्तों को अलबेलीअलि ने पूर्णतया आत्मसात् कर लिया था। उनकी वाणी में जो सरसता, शब्द चयन, रस की मादकता और अनन्यता की भावना मिलती है, वह भी वंशीअलि की काव्य-गरिमा का स्मरण दिलाती है। ये रीतिकालीन कवि थे। ब्रजभक्ति के उन्नायकों में अलबेली अलि संस्कृत भाषा के परंपरागत विद्वानों में माने जाते है। अलबेली अलि ने संस्कृत भाषा में ‘श्रीस्तोत्र' नामक काव्य यमक और अनुप्रास की छटा में लिखा है। 

ब्रजभाषा में इनकी 'समय प्रबंध पदावली' प्रसिद्ध है। अलबेलीअलि ने अपनी वाणी में मुख्य रूप से अपनी उपास्या श्रीराधा और उनकी रूपमाधुरी और नित्यविहारलीला का सरस वर्णन विस्तार से किया है। इसके अतिरिक्त अपने गुरुदेव और इष्टदेव के प्रति उन्होंने अपनी अनन्य निष्ठा को बड़े सुंदर रूप में व्यक्त किया है। 'समय प्रबंध पदावली' में 313 पद हैं। राधा के रूप दर्शन को ही मोक्षसुख मानने वाले ब्रज के भक्तों में उनके अनेक पद बड़े चाव से गाये जाते हैं। रूपमुग्धा ही भक्तों का भोजन है। उनकी मान्यता है कि— 

‘लाल तेरे लोभी लोलुप नैन।
केहि रस छकनि छके हौ छबीले मानत नाहिन चैन।
नींद नैन घुरि-घुरि आवत अति, घोरि रही कछु नैन।
अलबेली अलि रस के रसिया, कत बिसरत ये बैन

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