अक्षर अनन्य का परिचय
अक्षर अनन्य सेनुहरा (दतिया) के राजा पृथ्वीचंद्र के दीवान कहे जाते हैं। स्वतः आत्मोल्लेखों में उन्होंने अपने को आरंभ से साधु प्रवृत्ति का कहा है। हिन्दी-साहित्य के इतिहास-लेखकों द्वारा इनका जन्म सं. 1710 वि. (सन् 1653 ई.) निर्दिष्ट किया गया है। अक्षर अनन्य कविता में अपना नाम अछिर, अच्छिर, छिर लिखते हैं। जनश्रुति यह है कि अक्षर एक बार कुंवर पृथीचंद से रुष्ट हो कर वन को चले गये और एक पेड़ का सहारा लेकर पाँव फैला कर बैठ गए। पृथीचंद उन्हें मनाने को निकले, और पेड़ के पास पहुँचे तो अक्षर अनन्य ने उनका आदर न किया।
इस पर कुंवर पृथीचंद ने व्यंग वचन कहा—"पाँव पसारा कब से?”
अक्षर अनन्य ने उत्तर दिया—"हाथ समेटा जब से।“
पृथीचंद्र अपने गुरु को मना कर लौटा ले गए। मिश्र-बंधुओं ने इनका जन्म काल संवत् 1701 और कविता काल संवत् 1735 लिखा है। ये निवृत्ति मार्ग के साधू थे। इन्होंने धर्म संबंधी अनेक ग्रंथ रचे। उनमें से ज्ञानयोग और राजयोग, काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किए हैं। मिश्रबंधुओं ने इनके रचे इतने ग्रंथ लिखे हैं : 1. सिद्धांत-बोध, 2. ज्ञान-योग, 3. हरसंवाद भाषा, 4. योग शास्त्र स्वरोदय, 5. अनन्य योग, 6. राज योग, 7. अनन्य की कविता, 8. दैवशक्ति पचीसी, 9.अनन्य पचीसी, 10. प्रमदीपिका, 11. उत्तम चरित्र (श्री दुर्गाभाषा), 12. अनुभव तरंग, 13. ज्ञान-बोध, 14. श्री सरस-मंजावली, 15. ब्रह्मज्ञान, 16. ज्ञान पचासा, 17. भवानी स्तोत्र, 18. वैराग्य तरंग। इनके अतिरिक्त एक अन्य ग्रंथ ‘सिद्धान्त जोग’ भी है।
इनकी कविता से इनकी विद्वत्ता और इनका धर्म-विषयक ज्ञान पद-पद पर झलकता है। प्रेम दीपिका में गोपियों के वचन भ्रमर गीत के वाक्यों से कहीं बढ़े-चढ़े हैं। इनके ग्रंथ अद्वैत-वेदांत के गूढ़ रहस्यों को सरल-भाषा में उद्घाटित करते हैं। यद्यपि इनकी गणना संत कवियों में की जाती है, किंतु संतों की संपूर्ण प्रवृत्तियाँ इनमें नहीं मिलतीं। इनके ग्रंथों में वैष्णव-धर्म के साधारण देवताओं के प्रति आस्था तो मिलती ही है, साथ-साथ कर्मकांड के प्रति सजगता के अनेक निर्देश प्राप्त होते हैं। इन्होंने सम्पूर्णतः दोहे, चौपाई एवं पद्धरि छन्दों का प्रयोग किया है।