अब्दुल रहमान का परिचय
मूल नाम : अब्दुल रहमान, अद्दहमाण
अब्दुल रहमान की जन्म-तिथि अभी तक अनिर्णीत है। किंतु ‘संदेशरासक’ के अंतः साक्ष्य के आधार पर मुनि जिनविजय ने कवि अब्दुल रहमान को अमीर ख़ुसरो से पूर्ववर्ती सिद्ध किया है और इनका जन्म 12 वीं शताब्दी में माना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अब्दुल रहमान को हिंदी का प्रथम कवि मानते हुए कहा है कि “इनके द्वारा लिखित 'संदेश रासक' पहला धर्मेतर रास ग्रंथ है और देशी भाषा में किसी मुसलमान द्वारा लिखित प्रथम काव्य ग्रंथ भी ‘संदेशरासक’ ही है।” कई विद्वानों ने इनका समय बारहवीं शती का उत्तरार्द्ध और 13 वीं शती का आरंभ माना है। केशवराम काशीराम शास्त्री इनके समय को बहुत आगे 15 वीं शताब्दी तक ले गए हैं लेकिन उन्होंने अपने मत का कोई प्रमाण नहीं दिया है। 'सदेश रासक' के कुछ छंदों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के पश्चिमी भाग में स्थित म्लेच्छ देश के अंतर्गत मीरसेन के पुत्र के रूप में अब्दुल रहमान का जन्म हुआ जो प्राकृत काव्य में निपुण था। केशवराम काशीराम शास्त्री का अनुमान है कि पश्चिमी देश में भरुच के समीप चैमूर नामक एक नगर था जहाँ मुसलमानी राज्य स्थापित होने पर अब्दुल रहमान के पूर्वज ने किसी हिंदू कन्या से विवाह कर लिया और उसी वंश में अव्दुल रहमान का जन्म हुआ। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कवि के पूर्वजों के हिंदू होने का अनुमान लगाकर कहा है कि अब्दुल रहमान में भारतीय संस्कार जीवन भर रहे। अद्दहमाण ने प्राकृत एवं अपभ्रंश का अध्ययन किया और अपने ग्रंथ की रचना साहित्यिक अपभ्रंश के स्थान पर ग्राम्य अपभ्रंश में की। इस कवि की अन्य कोई कृति उपलब्ध नहीं है। ‘सन्देश-रासक’ की हस्तलिखित प्रतियाँ मुनि जिनविजय को पाटण भंडार से सन् 1912-13 में प्राप्त हुई। इससे ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि किन्हीं कारणों से कवि पाटण में आकर बस गया होगा और हिंदुओं तथा जैनों के संपर्क में आने से उसने संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश का अभ्यास कर लिया होगा। इससे अधिक इस कवि का और कोई परिचय संभव नहीं।
मुनि जिनविजय को सन् 1918 ई. में पूना के ‘भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट’ में एक और हस्तलिखित प्रति मिली जिसमें संस्कृत भाषा में अवचूरिका विद्यमान थी। मुनि जिनविजय जी ने विविध प्रतियों में पाठभेद देखकर यह परिणाम निकाला कि इस रासक में देश-काल-भेद के कारण पाठान्तर होता गया। जनप्रिय होने के कारण भिन्न-भिन्न स्थानों के विद्वान् स्थानीय शब्दों को इसमें सन्निविष्ट करते गए, जिसका परिणाम यह हुआ कि इसके पाठभेद उत्तरोत्तर बढ़ते ही गये।
‘संदेश रासक’ में दो सौ तेईस पद हैं तथा यह तीन प्रक्रमों में विभक्त है। इस रचना में विजयनगर में रहने वाली एक विरहिणी नायिका की कहानी वर्णित है जिसका पति खंभात चला गया है। खंभात जाने वाले एक पथिक से विरहिणी बार-बार रोककर अपना करुण दशा का हाल कहती है ताकि उसके प्रियतम तक उसकी बात पहुँचे और वह लौट आए। इसके एक अध्याय में षट्ऋतु वर्णन की परिपाटी के माध्यम से विरह-वेदना को प्रस्तुत किया गया है। इसमें कुल 22 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। यद्यपि इसमें रासा छंदों की संख्या अधिक है, किंतु गाहा, रड्डा, पद्धडिया, दोहा, चउपइया, वत्थु, अडिल्ल, मडिल्ला आदि अपभ्रंश छदों की संख्या भी कम नहीं हैं।
देशी भाषा-मिश्रित इस अपभ्रंश ग्रंथ की महत्ता के अनेक कारण हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इतिहास की दृष्टि से यह सबसे प्राचीन धर्मेतर रास रचना है। इसके पूर्व विरचित रास जैन धर्म संबंधी ग्रंथ हैं, जिनकी रचना जैनावलंबियो को ध्यान में रखकर की गई थी। लोक-प्रचलित प्रेमकथा के आधार पर शुद्ध लौकिक प्रेम की व्याख्या करने वाला यह प्रथम प्राप्य रासक ग्रंथ है। इसकी दूसरी विशेषता यह है कि इसका रचयिता अब्दुल रहमान ऐसा उदार मुसलमान है, जिसने बड़ी सहानुभूति के साथ विजित हिंदुओं की धार्मिक एवं साहित्यिक परंपरा को हृदय से स्वीकार किया और उनके सुख-दुख की गाथा का गान उन्हीं के शब्दों और उन्हीं की शैली में गाकर विजेता और विजित के मध्य विद्यमान कटुता के निवारण का प्रयास किया।
‘संदेश रासक’ की भाषा ‘पृथ्वीराज रासो’ की भाषा से साम्य रखती है। ‘संदेश रासक’ में भी 'य' के स्थान पर 'इ' अथवा 'इ' के स्थान पर 'य' प्रयुक्त हुआ है, 'वियोगी' शब्द 'विउयह' हो गया है। इस प्रकार का परिवर्तन दोहा-कोश और प्राचीन बँगला में भी पाया जाता है। 'ब' और 'व' का भेद प्रायः प्रतियों में नहीं पाया जाता। जैसे—'बलाहक' का 'वलाहय', 'अब्रवीत' का 'बोलंत', 'बर्हिणी' का 'वरहिणी" आदि रूप पाए जाते हैं।
आश्चर्य का विषय है कि इतने मनोहर काव्य का उल्लेख किसी ग्रंथ में नहीं मिलता। सिद्धराज और कुमारपाल के राजत्वकाल में व्यवसाय का प्रसार देखकर और इस रासक के कथानक से तत्कालीन परिस्थिति की तुलना करने पर यह निष्कर्ष निकला जा सकता है कि यह रासक बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रचा गया होगा! श्री मुनि जिनविजय ने अपना यही मत प्रकट किया है। यह सुखद है कि अब यह काव्य विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाने लगा है और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के संपादन में छप चुका है जो पाठकों के लिए सहज उपलब्ध है।