कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ
kakhan harab dukh mor he bholanath
कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ।
दुखहि जनम भेल दुखहि गमाएब सुख सपनहु नहिं भेल, हे भोला...
आछत चानन अवर गंगाजल बेलपात तोहि देब, हे भोला...
यहि भवसागर थाह कतहु नहिं, भैरव धरु कर पाए, हे भोला...
भव विद्यापति मोर भोलानाथ गति, देहु अभय बर मोहिं, हे भोला...
हे भोलानाथ! आप किस क्षण मेरी पीड़ा का हरण करेंगे। मेरा जन्म वेदना में ही हुआ है, दुःख में ही सारा जीवन बीता है, यहाँ तक कि स्वप्न तक में सुख का दर्शन मुझे नहीं हुआ है। हे प्रभो! मैं अक्षत, चंदन, गंगाजल और बेलपत्र को अर्पित कर आपकी आराधना करता हूँ। यह भवसागर अथाह है, अतः इस स्थिति में हे भैरव (भय से मुक्त करने वाले देव) आप ही आकर मेरा हाथ पकड़ कर भवसागर में डूबने से बचाइए। विद्यापति कहते हैं कि प्रभु। आप ही मेरी गति हो, कृपा कर आप मुझे निर्भयता का वरदान दीजिए।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 128)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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