आज नाथ एक बर्त्त माँहि सुख लागत है
aaj naath ek bart maanhi sukh laagat hai
आज नाथ एक बर्त्त माँहि सुख लागत हे।
तोहें सिव धरि नट वेष कि डमरू बजाएब हे॥
भल न कहल गउरा रउरा प्राजु सु नाचब हे।
सदा सोच मोहि होत कबन विधि बाँचब हे ॥
जे-जे सोच मोहिं होत कहा सुझाएब हे॥
रउरा जगत के नाय कबन सोच लागए हे ॥
नाग ससरि भुमि खसत पुहुमि लोटाएत है।
गनपति पोसल मजूर से हो धसि खाएत हे।
अमिअ चूइ भुमि खसत बघंबर जागत हे ।
होत बघंबर बाघ बसह धरि खाएत है॥
टूटि खसत रुदराछ मसान जगावत हे।
गौरि कहँ दुख होत विद्यापति गावत हे॥
गौरी शिव से अपने मन की साध बताती हुई कहती हैं कि हे नाथ! आज मुझे केवल एक बात से सुखानुभव होगा; कि आप आज नट-वेश धारण कर डमरू बजाएँ। (गौरी के इस आग्रह से शिव असमंजस में पड़ गए और कहा) तुमने ऐसा आग्रह कर अच्छा नहीं किया। मुझे सदैव ही यह चिंता सताती रहती है (कि मेरे नृत्य से उत्पन्न विनाश के कारण) हमारा यह छोटा-सा संसार कैसे बचेगा! तुम्हारे इस आग्रह से मुझे जो चिंताएँ घेर रही हैं, तुम्हें कैसे समझाऊँ! (इस पर गौरी शंकर से कहती हैं) हे प्रभु! आप तो अखिल जगत के स्वामी हैं, आपको किस प्रकार की चिंता व्याप सकती है? (पार्वती की इस शंका का समाधान करते हुए शिव कहते हैं कि मेरे नृत्य (करने से) सर्प जटाओं से खिसक कर नीचे पृथ्वी पर लोटने लगेंगे। इन सर्पों को पृथ्वी पर देखकर कार्तिकेय पोषित मयूर द्वारा वे खा लिए जाएँगे।(इसके अतिरिक्त नृत्य करने के कारण) मस्तक पर आसीन चंद्रमा का अमृत छलक कर पृथ्वी पर गिर जाएगा और फिर व्याघ्र चर्म जीवित सिंह में परिवर्तित होकर मेरे बैल को खा जाएगा। तात्पर्य यह है मेरे नृत्य से मेरे ही परिजनों का विनाश हो जाएगा। रुंडमाला टूट कर बिखर जाएगी, तो फिर श्मशान जग जाएँगे। शिव की भयावह बातों को सुनकर गौरी को दुख हुआ। कवि विद्यापति इस प्रसंग को गाकर वर्णन करते हैं।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 139)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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