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श्री सरस्वती वंदना

shri sarasvati vandna

यमुना प्रसाद चतुर्वेदी

यमुना प्रसाद चतुर्वेदी

श्री सरस्वती वंदना

यमुना प्रसाद चतुर्वेदी

और अधिकयमुना प्रसाद चतुर्वेदी

    बिपति बिदारीबे की, कुमति निबारबे की,

    सुरति सँभारबे की, जाकी परी बान है।

    सुजस दिबाइबे की, सु-रस पिबाइबे की,

    सरस बनाइबे की अदभुत आन है।

    भाबना बढ़ाइबे की, भाउ बिकसाइबे की,

    सुख सरसाइबे की रुचि-सुचि सान है।

    ‘प्रीतम’ सुजान जान ऐसी बुद्धि दायनी कों,

    बंदों बार-बार जाकी महिमा महान है॥

    तो सों ही सरंगे मन मोद के मनोरथ औ,

    सुलभ समृद्धि के जु सुगम सुरुचि काज।

    बैभव बिपुल भव भोग के सुभावन सों,

    प्रचुर प्रभाबन सों पूरित रहँगे साज।

    तेरे ही प्रसाद दुख दारिद दहँगे अब,

    सुखद सजैगी तब ‘प्रीतम’ सु कवि लाज।

    चित्त के अनंद छंद-बंदन करन हेतु,

    री जगदंब मेरे रसना पै बैठ आज॥

    तेरे ही बिहरिबे कों अजिर बनायौ हिय,

    भाबना के भौनन में सुभग सजाए साज।

    कल्पना कुसुम कमनीय बिकसित भए,

    भाग भौर भ्रमन हूँ करें जहाँ गँध काज।

    ‘प्रीतम’ सुकवि काव्य कौमुदी खिली है बेलि,

    मेल की थली है जित तेरौ ही रहैगौ राज।

    साँच जिय जान, आन छंदन-प्रबंध हेतु—

    री जगदंब मेरे रसना पै बैठ आज॥

    सरस बती हौ मातु, सरस स्रुतीन गायौ,

    सरस दै सुधी-निधी राखौ मति मंद ना।

    सरस सु ग्रंथ बीना धार हार धौरौ सुभ्र,

    हँसन बसन सुभ्र जा के सम चंद ना।

    फंद ना रहें हैं कछू, ओपै जो तिहारी दया,

    मो पै करौ त्यों ही, जो पै रहें दुख द्वंद ना।

    ‘प्रीतम’ कबिंद-बृंद-छंदन सराहिबे कों,

    बानी मम करै बीना पानी की सु बंदना॥

    भारत की भब्यता कों, भावन की स्वच्छता कों,

    अच्छ-रच्छ-लच्छन प्रतच्छ ह्वै प्रसारती।

    राष्ट्र हित एकता कों, बुद्धि की बिबेकता कों,

    जग-जन जीवन में नेकता उभारती।

    नित नव गहन में नेह की निकुंज रचि,

    बनि अलि मधुरिम गुनन गुँजारती।

    ‘प्रीतम’ निधि आरती कों बानी ते उतारती, औ,

    गावत जस भारती, जै-जै रस भारती॥

    तेरी ही कृपा ते मेरी बिपति नसैगी मातु,

    सुमति सजैगी एक सुरति तिहारी पै।

    ‘प्रीतम’ सुकवि रस रसना रसैगी जब,

    आय निबसैगी हिय-हँस की सबारी पै।

    भावना लसैगी बुद्धि भाग्य की बिधाता बन,

    वर बिलसैगी बानी बोलिबे की बारी पै।

    हो बीन बारी कमल कर धारी अब,

    दीजै वर आज शुद्ध साधना हमारी पै॥

    बानी के बोलिबे की, सु सब्द रस घोलिबे की,

    भाव अनमोल की जु हिय अनुरक्ति दै।

    बासना बिलासिता ते करि कें बिलग मन,

    धन्य कर जन्म चरणारबिंद भक्ति दै।

    त्रास ना रहें ता सों सु तन में तनक कहूँ,

    ऐसी दुर्व्यसना ते बेगि ही बिरक्ति दै।

    ‘प्रीतम’ सुकवि उक्ति साधना ससक्त हेतु,

    री मातु मेरी, मो करन में सु-सक्ति दै॥

    जय जयति बीना बादिनी सुर साधिनी माँ सारदे।

    मन मोहिनी जन मोद मति गो दोहिनी अनुसार दे॥

    रस रागिनी अनुरागिनी भव भाग के सुख सार दे।

    वैभव बिमल जस हँस वाहिनि बिपुल बिस्व प्रसार दे॥

    कर कलित कीरत कामना कर पूर्न हे कमलासने।

    करमाल पुस्तक धारिनी सुभ सारिनी मृदुभासने॥

    सुचि स्वेत बसना सरस रसना रुचिर रम्य सुहासने।

    कवि कल्पना कृति काव्य कलिका कुंज पुँज बिकासने॥

    हे गुन गिरा गोतीत गम्या गान धुनि झँकारनी।

    रति गति सुगमना तरनि तुम भव सिंधु की हौ तारिनी॥

    निज जन मनोरथ पूरि पुनि-पुनि भाव भृँग बिहारिनी।

    माँ भारती हौ बिस्व के तुम कोटि कष्ट निबारिनी॥

    जय जयति जग अघ हारिनी, हित कारिनी, चित चायिनी।

    सदुपायनी हरसायनी, हिय सरस रस सर पायिनी॥

    सुर सिद्धि दायिनि, बुधि प्रदायिनि, जननि जन अनुपयिनी।

    ‘प्रीतम’ प्रवर जिव्हाग्र बसि वर देहु हे वरदायिनी॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : यमुना प्रसाद चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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