सुन-सुन सुंदर कन्हाई
sun sun sundar kanhai
सुन-सुन सुंदर कन्हाई। तोहि सोंपलि धनि राई॥
कमलिनि कोमल कलेबर। तुहु से भूखल मधुकर॥
सहज करह मधु पान। भूलह जनि पँचबान॥
परबोधि पयोधर परसह। मधुकर जइसे सरोरुह॥
गनइत मोतिम हारा। छलें परसब कुच भारा॥
न बुझए रति-रस-रंग। खन अनुमति खन भंग॥
सरिस-कुसुम सम तनु। थोरि सहब फुल-धनु॥
विद्यापति कवि गाब। दूतिक मिनति तुअ पाब॥
सुनो, ओ सलोने कन्हाई! मैंने तुम्हें अपनी सहेली सौंप दी है। राधा की देह मुलायम कमल है, तुम प्यास से तड़पते हुए भ्रमर हो। हौले-हौले मधुपान करना। देखना, कामदेव कहीं तुम्हारा होश न ग़ायब कर दे! कहीं उस बेचारी पर तुम टूट न पड़ो। समझा-बुझाकर, बातचीत में भुलाकर उसके कुचों पर हाथ फेरना। भ्रमर पचास फेरे लगाता है, देर तक गुनगुनाता है, तब कहीं जाकर कमलिनी राज़ी होती है और वह उसे छू पाता है। कुचों में यों ही हाथ नहीं लगाना। हार के मोतियों के गिनने के बहाने चाहे स्तनों को भले छू लो, यों मत छूना! उसे अभी काम-केलि का पता नहीं है। वह कब ‘हाँ करेगी, कब ‘ना' करेगी, यह समझना आसान नहीं होगा। उसकी देह शिरीष के फूल की तरह कोमल है, कामदेव का तीर वह कैसे झेलेगी? विद्यापति कवि ने गाया—“दूती की विनती-भरी बातें तुम तक पहुँचा दी गई हैं।”
- पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 50)
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2011
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