कुच-जुग अंकुर उतपति भेल
kuch jug ankur utapati bhel
कुच-जुग अंकुर उतपति भेल। चरन-चपल-गति लोचन लेल॥
अब सब खन रह आँचर हाथ। लाजे सखीजन न पुछए बात॥
कि कहब माधब बयसक संधि। हेरइत मनसिज मन रहु बंधि॥
तइअओ काम हृदय अनुपाम। रोपल कलस ऊँच कए ठाम॥
सुनइत रस-कथा थापए चीत। जइसे कुरंगिनि सुनए संगीत॥
सैसव जौबन उपजल बाद। केओ नहि मानए जय-अबसाद॥
विद्यापति कौतुक बतिहारि। सैसब से तनु छोड़नहिं पारि॥
कुचों की जगह अँखुए फूट पड़े। चरणों की चपलता आँखों ने ले ली। अब हमेशा हाथों से आँचल सँभालती रहती है। लाज के मारे सहेली से कुछ पूछती भी नहीं। माधव, मैं तुमसे क्या बताऊँ! शैशव और तरुणाई मिलते हैं तो उस उम्र में ऐसा ही होता है। देखते ही कामदेव मन को बाँध लेता है। हृदय के अंदर वह अनोखे चमत्कार पैदा करता है। उसने कितनी ऊँची जगह पर कलश रख दिए हैं। सुंदरी रसभीनी बातें सुनती है, मन को उसी में जमाए रहती है। हिरनी संगीत सुनती है तो वह भी ऐसा ही करती है। बचपन और जवानी में बहस छिड़ गई है। किसकी जीत और किसकी हार! कोई मानने को तैयार नहीं। विद्यापति इस खिलवाड़ पर निछावर हैं। उनकी राय में बचपन को ही हार माननी पड़ेगी, शरीर पर से अपना अधिकार छोड़ना पड़ेगा।
- पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 13)
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2011
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