हरि हैं राजनीति पढ़ि आए
hari hain rajaniti paDhi aaye
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर जो? समाचार कछु पाए?
इक अति चतुर हुते पहिले ही, अरु करि नेह दिखाए।
जानी बुद्धि बड़ी, जुवतिन को जोग-सँदेस पठाए॥
भले लोग आगे के, सखि री! परहित डोलत धाए।
वे अपने मन फेरि पाइए जे हैं चलत चुराए॥
ते क्यों नीति करत आपुन जे औरनि रीति छुड़ाए?
राज-धर्म सब भए सूर जहँ प्रजा न जायँ सताए॥
हे सखियो, श्रीकृष्ण अब राजनीति शास्त्र के ज्ञाता हो गए अर्थात मथुरा जाते ही छल और कपटपूर्ण व्यवहार करने लगे। क्यों सखियो, जो बात उद्धव जी कह रहे हैं क्या उन्हें तुम सबों ने कुछ समझा? क्या तुम्हें उनके राजनीति विशारद होने और इस प्रकार योग-संदेश भेजने का कुछ समाचार मिला? एक तो श्रीकृष्ण पहले ही बहुत चतुर थे, दूसरे गोपियों से जो प्रेम व्यवहार किया उसमें भी अपनी चतुराई दिखाई। उनकी बुद्धि का परिचय तो इसी में मिल गया कि उन्होंने ब्रज की युवतियों को योग-साधना का संदेश भिजवाया है। अरी सखी, पहले के लोग कितने भले और सज्जन होते थे जो दूसरों के हित के लिए बराबर घूमते-फिरते थे, और एक कृष्ण को देखो जो दूसरे के मन को चोरी किए फिरते हैं। वे क्या नीति और धर्म का पालन करते होंगे जो दूसरे को अच्छी नीति से हटाकर बुरी नीति पर लगाना चाहते हैं। सूरदास कहते हैं कि राजधर्म तो वहीं देखा जाता है जहाँ प्रजा को किसी प्रकार कष्ट न हो।
- पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 91)
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2008
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