हम सब अपने-अपने भंगी
अपने हाथों अपना गोबर धोते धुर सत्संगी
कौन अछूत, सवर्ण कौन है, पट में सबकी नंगी
कोई काला, कोई गोरा यह दुनिया बहुरंगी
रज की सुधा, वीर्य के अमृत से निर्मित यह काया
गर्भाशय या परखनली में भ्रूण एक-सा पाया
शब्द-शब्द को मन से गाया, ताल-ताल पर थिरका
नवरस के कवि! आदिकाल से अपना रस तो सिरका
सबका मुँह कुश से चीरा है, सबकी क्षुधा समुद्र
सबकी सोच गगनचुंबी है, कर्म क्षुद्र से क्षुद्र
दूध सभी का उज्जर होगा, रक्त सभी का लाल
अष्टभुजा के मुँह मत लगना, अष्टभुजा चंडाल।
- रचनाकार : अष्टभुजा शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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