नब बृंदाबन नब-नब तरुगन
nab brindaban nab nab tarugan
नब बृंदाबन नब-नब तरुगन,
नब-नब विकसित फूल।
नब बसंत नबल मलयानिल,
मातल नब अलि कूल॥
बिहरइ नबल किसोर।
कालिंदी-पुलिन कुंज बन शोभन,
नब-नब प्रेम-विभोर॥
नबल रसाल-मुकुल-मधु मातल,
नब कोकिल कुल गाय।
नबजुबती गन चित उमताअई,
नब रस कानन धाय॥
नब जुबराज नबल बर नागरि,
मीलए नब-नब भाँति।
निति-निति ऐसन नब-नब खेलन,
विद्यापति मति माति॥
(वसंतागमन के कारण) वृंदावन नवीन प्रतीत हो रहा है, उसमें (नव कोंपलों से सुशोभित) नए-नए वृक्ष लगे हैं तथा अनेक प्रकार के नूतन-नूतन पुष्प प्रफुल्लित हैं। बसंत नवीन है, और मलयज भी नूतन है और भ्रमरों का समुदाय भी उन्मत्त हो रहा है। इस नूतन प्राकृतिक सृष्टि में सुंदर कुजों के वन में, अभिनव प्रेम में विभोर होकर यमुना के तट पर नवयुवक कृष्ण विहार कर रहे हैं। नवीन कोकिलाओं का समूह नवीन आम्र-मंजरी की (सुगंध से) उन्मत्त होकर गायन कर रहा है। नव-युवतियों का मन उन्मत्त हो रहा है और वे नवीन रस की आकांक्षा में वनों में दौड़ी जाती हैं। नवयुवक श्रेष्ठ (श्री कृष्ण) तथा अभिनव श्रेष्ठ सुंदरी (राधिका) दोनों नए-नए ढंगों से मिल रहे हैं। विद्यापति कहते हैं कि प्रतिदिन ही इस प्रकार की (रति) क्रीड़ाओं की अभिनवता के कारण राधा-कृष्ण अपने हृदयों को उन्मत्त किए हुए हैं।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 305)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.