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चल देखए जाऊ ऋतु बसंत

chal dekhe jaau ritu basant

विद्यापति

विद्यापति

चल देखए जाऊ ऋतु बसंत

विद्यापति

और अधिकविद्यापति

    चल देखए जाऊ ऋतु बसंत।

    जहाँ कुद कुसुम केतकि हसंत॥

    जहाँ चंदा निरमल भमर कार।

    जहाँ रयनि उजागर दिन अंधार॥

    जहाँ मुगधलि माननि करएमान।

    परिपथिहि पेखए पंचबान।

    भनइ सरस कबि कंठहार।

    मधुसूदन राधा बन-बिहार॥

    चलो, वसंत ऋतु की शोभा को वन-कांतारों में देख पाएँ। जहाँ कुंद और केतकी के पुष्प प्रफुल्लित हैं, जहाँ स्वच्छ चंद्रमा (की ज्योत्स्ना के धवल प्रकाश) से रात्रियाँ उज्ज्वल हैं, जहाँ श्यामल भ्रमरों के आधिक्य के कारण दिन में भी अंधकार का प्रतिच्छायन हो रहा है। वसंत की उन्मादक श्री में यौवन रस से अनजान मुग्धा नायिका ही मान करती है और कामदेव उसे अपने शत्रु के रूप में देखता है। भाव यह है कि जिस प्रकार शत्रु पर साँघातिक आक्रमण किया जाता है उसी प्रकार कामदेव मुग्धा नायिकाओं पर आक्रमण करके उनके मान को भंग कर देता है और वे भी इस ऋतु में कामांदोलित हो जाती हैं। कविश्रेष्ठ विद्यापति रसमयी वाणी में कृष्ण के वन-विहार करने का वर्णन करते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 303)
    • संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
    • रचनाकार : विद्यापति
    • प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
    • संस्करण : 1965

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