भोर तमचुर बोले दीनों जु दरसना
bhor tamchur bole diino.n ju darasna
भोर तमचुर बोले दीनों जु दरसना॥
आतुर व्है उठि धाए डगत चरन आए।
आलस में नैन वैन अटपटी रसना॥
संध्या जु कहि सिधारे बचन जिय में संभारे।
सकुचि के मंद-मंद प्रगटित दसना॥
‘चतुर्भुज’ प्रभु गिरिधरन! सिधारो तहां।
जहां रति-रंग-रस पलटाए वसना॥
- पुस्तक : अष्टछाप कवि : चतुर्भुजदास (पृष्ठ 51)
- संपादक : हरगुलाल
- रचनाकार : चतुर्भुजदास
- प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
- संस्करण : 2009
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