मज्जन करत गोपाल चौकी पर।
अति ही सुगंध फुलेल उबटनौ, विविध भांति सब सौंज, निकट धर॥
केसर चरचि न्हाबइ प्रथम, पुनि अंग उबटनौ, करत सुंदर वर।
ब्रजगोपी सब मंगल गावति, अति प्रमुदित, मन अंग परस कर॥
एकु जु अंगवस्त्र ले आई, पौंछति हैं अंग, अति अनंद भर।
पुनि सिंगार करन कौं बैठे, रतनजटित चौकी आनी धर॥
विविध भांति बसन-भूषन लै, करति सिंगार, रुचि अपनी सुघर।
लै दरपन श्रीमुख दिखरावति, निरखि निरखि, हंसि लेत है मनहर॥
भांति-भांति सामग्री करि-करि, लै आईं, अरपत सब घर-घर।
छीतस्वामी गिरिधरन अरोगैं, अति आनंद, प्रमुदित ता औसर॥
- पुस्तक : अष्टछाप कवि और उनकी रचनाएं : छीतस्वामी (पृष्ठ 92)
- संपादक : वसंत यामदग्नि
- रचनाकार : छीतस्वामी
- प्रकाशन : प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
- संस्करण : 2003
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