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लरिकाई को प्रेम कहौ अलि

larikai ko prem kahau ali

सूरदास

सूरदास

लरिकाई को प्रेम कहौ अलि

सूरदास

लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत?

कहा कहौं ब्रजनाथ-चरित अब अंतरगति यों लूटत॥

चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुन गावत।

नटवर भेस नंदनंदन को वह विनोद गृह वन तें आवत॥

चरनकमल की सपथ करति हौं यह संदेस मोहि विष सम लागत।

सूरदास मोहि निमिष बिसरत मोहन मूरति सोवत जागत॥

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव, कृष्ण के प्रति हमारा यह प्रेम भाव आकस्मिक नहीं है, बल्कि इसका उदय बचपन से हुआ है, अतः बचपन का प्रेम कैसे छूट सकता है। (श्रीकृष्ण) के चरित्र की विशेषताएँ हमारी चित्तवृत्ति को आज भी अभिभूत कर लेती हैं। उनकी चंचल गति, सुंदर चितवन और वह मुस्कराहट तथा मंद-मंद स्वरों में गाना...जब वे नटवर वेश में नाना प्रकार के विनोद करते हुए वन से घर लौटते थे, तो हमारा मन श्रीकृष्ण की उस अदा पर मोहित हो जाता था। हम उनके कमलवत चरणों की शपथ खाकर कहती हैं कि उनका यह योग का संदेश श्रीकृष्ण की उस रूप-माधुरी के समक्ष विष के समान दुखद प्रतीत होता है। सूरदास कह रहे हैं कि हे उद्धव, हमें सोते-जागते श्रीकृष्ण की वह माधुर्यपूर्ण मूर्ति एक क्षण के लिए नहीं भूलती।

स्रोत :
  • पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 76)
  • रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
  • प्रकाशन : लोकभारती
  • संस्करण : 2008

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