मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई।
साधाँ संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
संत देख दौड़ि आई, जगत देख रोई।
प्रेम आँसू डार-डार अमर बेल बोई॥
मारग में तारण मिले संत नाम दोई।
संत सदा सीस पर नाम हृदै सब होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दासि मीरा लाल गिरधर, होई सो होई॥
गिरधर गोपाल के सिवा और कौन है जिसे मैं अपना कहूँ! उनके लिए माँ, बाप अज़ीज़-व-अक़ारिब सभी को छोड़ दिया और साधुओं के साथ बैठ-बैठकर अपने दुनियावी शर्म-व-हया तक को छोड़ दिया। जब कोई संत दिखाई दिया तो दौड़कर उसके साथ हो ली, और जब दुनिया सामने आई तो रोने लगी। मैंने मुहब्बत के आँसुओं से इश्क़ की अमरबेल को सींचा है, संतों को सिर पर बिठाया और उसके पाक नाम की माला जपती रही हूँ। अब तो बात फैल चुकी है और मेरा राज़ सबको मालूम हो गया है। मीरा तो गिरधरलाल की दासी बन चुकी है अब जो होना है, सो होगा।
- पुस्तक : मीरा वाणी (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : मीरा
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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