अति मलीन वृषभानुकुमारी
ati maliin vrishabhaanukumaarii
अति मलीन वृषभानुकुमारी।
हरि-स्रमजल अंतर-तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी॥
अधोमुख रहति उरध नहिं चितति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।
छूटे चिहुर, बदन कुम्हिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी॥
हरि-संदेस सुनि सहज मृतक भई, इक बिरहिनि दूजे अलि जारी।
सूर स्याम बिनु यों जीवित है ब्रजवनिता सब स्यामदुलारी॥
अरी सखी, राधा तो अत्यंत मलीन दीखती है। श्रीकृष्ण के सत्विक प्रेमोद्रेक-जन्य पसीने से उसका हृदय और शरीर दोनों ही भीग उठे हैं। वह अपनी साड़ी इस लालच से नहीं धुलवा रही है कि इसमें श्रीकृष्ण के सात्विक प्रमोद्रेक-जन्य पसीने की गंध मिलती है। वह सदैव अपने मुख को नीचे किए हुए बैठी रहती है, ऊपर की ओर देखती ही नहीं। जैसे कोई जुआरी जुए में अपनी पूँजी हार कर उदासीन आनत मुख बैठा हो। राधा के बाल बिखरे हुए हैं, इसका मुख कुम्हलाया हुआ दिखाई पड़ता है—ऐसे मुख को देखकर लगता है कि जैसे कमलिनी तुषार पड़ने पर जल गई हो। वह श्रीकृष्ण के वियोग में पहले ही संतप्त थी, दूसरे जब उद्धव द्वारा श्रीकृष्ण का योग-साधना का संदेश सुना तो सहज ही मृतक तुल्य हो गई। सूरदास कहते हैं कि ऐसी दशा केवल राधा की ही नहीं है बल्कि श्रीकृष्ण की सभी प्रियतमाएँ वियोग की ऐसी दारुण पीड़ा को सहती हुई जीवित रह रही हैं।
- पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 93)
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2008
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