आयो घोष बड़ो व्योपारी
aayo ghosh baDo wyopari
आयो घोष बड़ो व्योपारी।
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी॥
फाटक दै कर हाटक माँगत भोरै निपट सुधारी।
धुर ही तें खोटी खायो है लये फिरत सिर भारी॥
इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी?
अपनो दूध छाँड़ि को पीवै खार कूप को पानी॥
ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावौ।
मुँह माँग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ॥
गोपियाँ उद्धव के संबंध में परस्पर कह रही हैं−देखो सखियो, अहीरों की इस बस्ती में एक बहुत बड़ा व्यापारी आया है। इस व्यापारी ने अपने ज्ञान और योग के माल का भारी बोझ सीधे ब्रज में आकर उतारा। यह हम ब्रजवासियों को सर्वथा भोला-भाला जान कर फटकन (निस्सार निर्गुण) देकर हम से महार्थ स्वर्ण (कृष्ण की भक्ति और प्रेम) को माँग रहा है। इसके माल को किसी ने ख़रीदा नहीं और आरंभ से ही इसे घाटा उठाना पड़ा है। अब ऐसे माल (ज्ञान) के भारी बोझ को अपने सिर पर लिए घूम रहा है। भला ऐसे खोटे माल को इसके कहने पर ख़रीदकर कौन अज्ञानी अपने को ठगवाए? ऐसा भी क्या कोई मूर्ख होगा जो अपने घर का मधुर दुग्ध छोड़ कर खारे कुएँ का जल पिएगा! अर्थात् कौन भगवान कृष्ण की मधुर उपासना को त्याग कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना की ओर उन्मुख होगा? हे उद्धव, यदि तुम अपना माल बेचना चाहते हो तो यहाँ से शीघ्र ही चले जाओ और देरी मत करो, और उस महाजन (श्रीकृष्ण) को लेकर हमें दिखाओ, जिसने यह माल देकर तुम्हें भेजा है। तुम्हे इसके बदले मुँह माँगा दाम मिलेगा। तात्पर्य यह है कि यदि तुम निर्गुण ब्रह्म की उपासना की ओर हमें लगाना चाहते हो तो पहले हम लोगों को श्रीकृष्ण के दर्शन कराओ जो बहुत समय से हमसे बिछुड़े हैं, उसके पश्चात् हम तुम्हारे ज्ञान को स्वीकार करेंगी।
- पुस्तक : भ्रमगीत सार (पृष्ठ 73)
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2008
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