जनम होअए जनु, जओं पुनि होइ
janam ho.a.e janu, ja.o.n puni ho.i
जनम होअए जनु, जओं पुनि होइ।
जुबती भए जनमए जनु कोइ॥
होइए जुबति जनु हो रसमंति।
रसओ बुझए जनु हो कुलमंति॥
निधन माँगओं बिहि एक पए तोहि।
थिरता दिहह अबसानहु मोहि॥
मिलओ सामि नागर रसधार।
परबस जन होअ हमर पिआर॥
परबस होइह बुझिह बिचारि।
पाए बिचार हार कओन नारि॥
भनइ विद्यापति अछ परकार।
दंद-समुद होअ जिब दए पार॥
सखी, अच्छा है, कोई पैदा ही न हो! अगर पैदा हो ही जाए तो लड़की होकर पैदा नहीं हो! अगर युवती ही हो तो उसे रसवंती नहीं होना चाहिए। यदि रसवंती हो तो उसे अच्छे ख़ानदान की नहीं होना चाहिए। विधाता, मैं तुमसे मृत्यु माँगती हूँ। साथ ही एक बात का ध्यान रखना। अंतिम क्षणों में भी मेरे मन को चंचल न बनाना। स्वामी मिले और चतुर मिले, रसिक मिले। मगर मेरा प्यार कभी पराधीन न हो। पराधीन ही हो तो इतना ज़रूर ध्यान रखना कि प्रेमी विचारवान हो। प्रेमी के अंदर विवेक हो तो कौन नारी बाज़ी हारेगी? विद्यापति कहते हैं—“हाँ, है रास्ता इसका भी। जान की बाज़ी लगाकर अड़ जाओगी तो सारे झमेले हल हो जाएँगे।”
- पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 85)
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2011
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